गंगा को देखकर दुख होता है

गंगा गंदगी से ज्यादा आधुनिकता और परंपरा के पाखंड की शिकार हैं। कांग्रेस और भाजपा और उनसे जुड़े तमाम संगठन इसी का खेल खेल रहे हैं। गंगा को हर तरह से लूटने की कोशिश हो रही है। मोक्षदायिनी गंगा को कहीं बांध में बांधकर तो कहीं गंदे नाले का कचरा डालकर कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बना रहे हैं। जब गंगा नदी राष्ट्रीय प्राधिकरण का गठन हुआ तो दावा किया गया था कि गंगा को टेम्स नदी की तरह साफ-सुथरा और सदानीरा बना दिया जाएगा। सवाल है कि इतनी उपेक्षा और पाखंड के बाद क्या गंगा के पास भी ज्यादा समय बचा है? गंगा के साथ हो रहे अत्याचार को बता रहे हैं आचार्य जितेंद्र।

भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं कि गंगा के पास समय कम बचा है। प्रधानमंत्री जब स्वीकार कर रहे हैं कि समय कम बचा है तो इससे साफ जाहिर है कि गंगा मुक्ति के लिए अतिशीघ्र कुछ नहीं किया जाएगा तो गंगा फिर से सिर्फ देवलोक की नदी बन जाएगी। अगर ऐसा होता है तो केवल एक नदी नहीं मिटेगी, बल्कि उस पर किसी न किसी तरह से आश्रित 40 करोड़ लोग भी मिटने के कगार पर आ जायेंगे।

मानो तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी।’ इन पंक्तियों के माध्यम से यह पता चल रहा है कि गंगा है। वह पीड़ित क्यों है, इसका संकेत भी यही पंक्तियां दे रही हैं। जो लोग गंगा को गंगा मां नहीं मानते, सिर्फ एक जलस्रोत मानते हैं, ऐसे लोगों के कारण ही गंगा पीड़ित है। गंगा को भारतीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक न मानने वाले लोग ही इसके लिए समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। हजारों शोध यह सिद्ध कर चुके हैं कि गंगा के पानी की तुलना अन्य नदियों के पानी से नहीं की जा सकती। इसके पानी की गुणवत्ता उच्च स्तर की है। जल की गुणवत्ता तभी कायम रह सकती है, जब इसके प्रवाह को अविरल रहने दिया जाये। अगर गंगा के अविरल प्रवाह को रोका जाता है तो गंगाजल की गुणवत्ता काफी कम हो जाती है। गंगा मुक्ति के लिए आंदोलन कर रहे आंदोलनकारियों की सबसे बड़ी मांग यही है कि गंगा नदी पर बांध न बनाया जाये। जी.डी. अग्रवाल इनमें प्रमुख हैं। उन्होंने दिल्ली, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में कई जगह अनशन किये। उनके अनशन के प्रभाव से गंगा के ऊपर बनने वाले कई बांधों को सरकार ने निरस्त कर दिया।

जी.डी. अग्रवाल की तरह अन्य कई लोग भी गंगा की समस्याओं के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार के मंत्री और सरकारी अधिकारी बांध और बिजली बनाने वाली कंपनियों से मिलने वाले अनैतिक पैसे के लालच में इस कदर पड़े हुए हैं कि वो अपनी जिद छोड़ते ही नहीं। ये लोग देश की जनता से यह तो कह सकते नहीं कि हमें निजी कंपनियों से टेबल के नीचे से पैसा मिल रहा है, इसलिए हम गंगा की अविरलता के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं। सो वो कहते हैं कि बांधों से बिजली पैदा होगी, जिससे आम आदमी को लाभ होगा। लेकिन वो यह नहीं बताते कि देश में चल रही पनबिजली परियोजनाओं में से आज तक कोई भी पूर्णतया सफल नहीं हो पाई है। अधिकतर योजनाएं असफल ही रही हैं। टिहरी बांध के साथ भी यही हो रहा है। इससे उम्मीद की गई थी कि 1000 मेगावाट प्रतिदिन बिजली का उत्पादन होगा, लेकिन हो रहा है केवल 250 मेगावाट।

टिहरी बांध की वजह से हुए खनन से हिमालय की कई वनस्पतियों को हानि पहुंची है। हिमालय में अकसर भूकंप आते हैं। अगर कहीं भूकंप का केंद्र बांध हुआ तो उत्तराखंड से दिल्ली तक कितनी तबाही होगी, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह बांध चीन के करीब भी पड़ता है। चीन से भारत के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं। दोनों एक-दूसरे को अघोषित दुश्मन मानते हैं। अगर चीन ने भारत के इस बांध पर एक भी बम गिरा दिया तो न जाने कितनी जानें चली जायेंगी। गंगा की दूसरी समस्या प्रदूषण है। गंगा को आध्यात्मिक रूप से भारत में विशेष सम्मान प्राप्त है। इस कारण इसे स्वच्छ होना चाहिए था, लेकिन इसके प्रदूषित होने के पीछे भी यही वजह है। गंगा दो तरह से प्रदूषित है। एक है धार्मिक आस्था की वजह से हो रहा प्रदूषण और दूसरा औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले हानिकारक केमिकल्स से हो रहा प्रदूषण।

पहले प्रकार के प्रदूषण की बात करें तो गंगा के किनारे लाशों का जलाया जाना, धार्मिक क्रियाकलापों में उपयोग में आई वस्तुओं का गंगा में बहाया जाना आदि आते हैं। इनको रोकने के लिए समय की जरूरतों के हिसाब से धार्मिक नियमों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। ये पुनर्विचार देश के धार्मिक नेता कर सकते हैं और उसे लोगों में फैला सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बस किसी तरह गंगा के किनारे कुंभ मेला लग जाये, इससे ज्यादा वो कुछ भी नहीं सोच पाते। खैर, धार्मिक कारणों से हो रहा प्रदूषण गंगा के कुल प्रदूषण का केवल 10 प्रतिशत है। गंगा सबसे ज्यादा प्रदूषित हो रही है औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले केमिकल्स और शहरों की गंदगी से। हमारे देश में एक तो वैसे ही कानून कमजोर है, ऊपर से भ्रष्टाचार। इसकी वजह से कंपनी प्रदूषण संबंधी मापदंडों की अवहेलना करती हैं, जिसका परिणाम गंगा को भुगतना पड़ रहा है।

रोज करोड़ों लीटर गंदा पानी गंगा में मिलता है। इस प्रदूषण का असर उन फसलों पर पड़ता है जो गंगा के पानी से सींची जाती हैं। प्रदूषण युक्त पानी के कारण खेतों की सब्जियां जल्दी सड़ जाती हैं। उनमें किसी तरह का स्वाद नहीं रहता है। गंगा जिन क्षेत्रों में बुरी तरह प्रदूषित है, वहां के लोग चर्मरोग की चमेट में आ रहे हैं। वैसे तो डाल्फिन देश में बहुत कम रह गई हैं, जो रह गई हैं उनमें 60 प्रतिशत बिहार प्रदेश की गंगा के हिस्से में हैं। लेकिन वैज्ञानिक बता रहे हैं कि तेजी से प्रदूषित हो रही गंगा के कारण इन डाल्फिनों का अस्तित्व भी संकट में आ रहा है। गंगा को साफ करने के लिए सरकार ने अरबों रुपये अब खर्च कर डाले हैं, लेकिन स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। गंगा को साफ करने का विश्वसनीय तरीका यही है कि गंगा को अविरल बहने दिया जाए। इसके बालू का दोहन न किया जाए। गंगा के बालू में इतनी शक्ति है कि वो गंगा में आ मिले हानिकारक तत्वों को सोख सकती है।

गंगा का व्यवसायिक उपयोग भी गंगा की एक समस्या है। गंगोत्री के निकट हिमालय कंपनी ने अपनी एक यूनिट स्थापित कर रखी है। यह यूनिट गंगा के पानी का दोहन करती है। गंगा के पानी को बोतलों में पैक कर यह दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में बेचती है। गंगा के जल को वह मिनरल वाटर का नाम देती है। गौरतलब है कि बड़े ब्रांडों वाली मिनरल वाटर की बोतल बारह से पंद्रह रुपये में मौजूद है, वहीं हिमालय कंपनी अपने गंगाजल से तैयार मिनरल वाटर को चालीस से पैंतालीस रुपये में बेचती है। इस कंपनी से सरकार वाजिब टैक्स भी नहीं लेती। निजी कंपनियां गंगा के केवल पानी का दोहन नहीं करतीं, गंगा के बालू का भी दोहन करती हैं। गंगा नदी में से बड़ी-बड़ी मशीनों के द्वारा बालू निकाल लिया जाता है। गंगा से बालू निकाल लिये जाने पर गंगा के आसपास रहने वालों की जिंदगी पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसकी चिंता खनन कंपनियों को नहीं रहती।

पर्वतों के ऊपर कई पोषक तत्व होते हैं। पहले जब बरसात होती थी तो ये पोषक तत्व पानी के साथ आते हुए गंगा में मिल जाते थे। यही पोषक तत्व गंगा के बहाव के साथ मैदानी क्षेत्रों में पहुंचते थे। मैदानी क्षेत्रों के खेत इन पोषक तत्वों को पाकर अच्छी फसलें उत्पन्न करते थे। इससे किसान का जीवन खुशहाल रहता था। लेकिन अब हालात बदल गये हैं। अब गंगा में खनन का काम शुरू हो गया है। खनन की वजह से गंगा का पाट गहरा हो गया है। जो भी पोषक तत्व होते हैं, वो अब पाट की गहराई में समा जाते हैं। खेतों तक नहीं पहुंच पाते। इस कारण फसलों की पैदावार भी प्रभावित हुई है।

गंगा को समस्या हिमालय के बांधों से ही नहीं है। गंगा को खतरा फरक्का बैराज से भी है। फरक्का बैराज उस जगह बनाया गया है, जहां से गंगा बांग्लादेश में प्रवेश करती है। उसकी एक धारा पश्चिम बंगाल में बहती है, जिसे हुगली कहा जाता है। फरक्का बैराज बनाने के पीछे उद्देश्य यह था कि गर्मियों के महीनों में इस बैराज के माध्यम से पानी रोककर हुगली में प्रवाहित किया जाए। इसके अलावा सोच यह भी थी कि कभी बांग्लादेश से युद्ध हो तो इस फरक्का बैराज के पानी को एक झटके के साथ बांग्लादेश में छोड़ दिया जाए, जिससे शत्रु पक्ष कमजोर हो जाए। किन्तु फरक्का बैराज से जितना लाभ नहीं हुआ, उससे ज्यादा नुकसान हुआ और हो रहा है। पहले जब बैराज नहीं था तो गंगा बिना किसी रुकावट समुद्र से सीधे मिली हुई थी। इस कारण गंगा के बिहार और बंगाल वाले हिस्से में दो किस्म की मछलियां भारी मात्रा में पाई जाती थीं। एक थी हिल्सा और दूसरी झींगा।

इन मछलियों की कुछ विशेषताएं हैं। हिल्सा खारे पानी में रहती और अंडे देने मीठे पानी में आती है। जबकि झींगा मीठे पानी में रहती और अंडे देने खारे पाने में जाती है। फरक्का बैराज बनने से पहले इन दोनों मछलियों की आवाजाही इस क्षेत्र में थी। कई सारे मछुआरों का जीवन इन्हीं मछलियों पर निर्भर था। लेकिन आज फरक्का बैराज की वजह से इनकी आवाजाही बंद हो गई है। नतीजा यह है कि मछुआरों को शहरों की ओर पलायन करना पड़ा है। वहां ये लोग मजदूरी करने या रिक्शा चलाने पर विवश हैं। विश्व की जिन दस बड़ी नदियों पर अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है, उनमें से गंगा भी एक है। भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं कि गंगा के पास समय कम बचा है। प्रधानमंत्री जब स्वीकार कर रहे हैं कि समय कम बचा है तो इससे साफ जाहिर है कि गंगा मुक्ति के लिए अतिशीघ्र कुछ नहीं किया जाएगा तो गंगा फिर से सिर्फ देवलोक की नदी बन जाएगी। अगर ऐसा होता है तो केवल एक नदी नहीं मिटेगी, बल्कि उस पर किसी न किसी तरह से आश्रित 40 करोड़ लोग भी मिटने के कगार पर आ जायेंगे।

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