गंगा दशहरा, 14 जून 2016 पर विशेष
आज गंगा दशहरा है। पौराणिक मान्यता है कि राजा भगीरथ वर्षों की तपस्या के उपरान्त ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल हुए। स्कन्द पुराण व वाल्मीकि रामायण में गंगा अवतरण का विशद व्याख्यान है। शास्त्र, पुराण और उपनिषद भी गंगा की महत्ता और महिमा का बखान करते हैं। गंगा भारतीय संस्कृति की प्रतीक है। हजारों साल की आस्था और विश्वास की पूँजी है। उसका पानी अमृत व मोक्षदायिनी है। गंगा का महत्त्व जितना धार्मिक व सांस्कृतिक है उतना ही आर्थिक भी।
गंगा तट के आसपास देश की 43 फीसद आबादी का निवास है। प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उनकी जीविका गंगा पर ही निर्भर है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की लगभग 66 फीसद आबादी का मुख्य व्यवसाय कृषि है और सिंचाई की निर्भरता गंगा पर है। गंगा गोमुख से निकल उत्तराखण्ड में 450 किमी, उत्तर प्रदेश में 1000 किमी, बिहार में 405 किमी, झारखण्ड में 40 किमी और पश्चिम बंगाल में 520 किमी सहित कुल 2525 किमी लम्बी यात्रा तय करती है।
लेकिन त्रासदी है कि जीवनदायिनी गंगा प्रदूषण के दर्द से कराह रही है। गंगा के बेसिन में प्रतिदिन 275 लाख लीटर गंगा पानी बहाया जाता है। इसमें 190 लाख लीटर सीवेज एवं 85 मिलियन लीटर औद्योगिक कचरा होता है। गंगा की दुर्गति के लिये मुख्य रूप से सीवर और औद्योगिक कचरा ही जिम्मेदार है जो बिना शोधित किये गंगा में बहा दिया जाता है।
गंगा नदी के तट पर अवस्थित 764 उद्योग और इससे निकलने वाले हानिकारक अवशिष्ट बहुत बड़ी चुनौती हैं जिनमें 444 चमड़ा उद्योग, 27 रासायनिक उद्योग, 67 चीनी मिलें तथा 33 शराब उद्योग शामिल हैं। जल विकास अभिकरण की मानें तो उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा तट पर स्थित इन उद्योगों द्वारा प्रतिदिन 112.3 करोड़ लीटर जल का उपयोग किया जाता है।
इनमें रसायन उद्योग 21 करोड़ लीटर, शराब उद्योग 7.8 करोड़ लीटर, चीनी उद्योग 30.4 करोड़ लीटर, कागज एवं पल्प उद्योग 30.6 करोड़ लीटर, कपड़ा एवं रंग उद्योग 1.4 करोड़ लीटर एवं अन्य उद्योग 16.8 करोड़ लीटर गंगाजल का उपयोग प्रतिदिन कर रहे हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा नदी के तट पर प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग और गंगा जल के अन्धाधुन्ध दोहन से नदी के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है। उचित होगा कि गंगा के तट पर बसे औद्योगिक शहरों के कल-कारखानों के कचरे को गंगा में गिरने से रोका जाये और ऐसा न करने पर कल-कारखानों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाये।
गंगा की सफाई हिमालय क्षेत्र से इसके उद्गम से शुरू करके मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी एवं अन्य सहायक नदियों में होनी चाहिए। क्योंकि गत वर्ष पहले वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो गई है। सीवर का गन्दा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने से क्रोमियम एवं मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा बढ़ी है।
प्रदूषण की वजह से गंगा में जैविक ऑक्सीजन का स्तर 5 हो गया है। जबकि नहाने लायक पानी में कम-से-कम यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किमी के रास्ते में कॉलीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गई है जो अनेक बीमारियों की जड़ है। गत वर्ष पहले औद्योगिक विष-विज्ञान केन्द्र लखनऊ के वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गंगा के पानी में ई-कोली बैक्टीरिया पाया गया है जिसमें जहरीला जीन है। वैज्ञानिकों ने माना कि बैक्टीरिया की मुख्य वजह गंगा में मानव और जानवरों का मल-मूत्र बहाया जाना है।
वैज्ञानिकों की मानें तो ई-कोली बैक्टीरिया की वजह से सालाना लाखों लोग गम्भीर बीमारियों की चपेट में आते हैं। प्रदूषण के कारण गंगा के जल में कैंसर के कीटाणुओं की सम्भावना प्रबल हो गई है। जाँच में पाया गया है कि पानी में क्रोमियम, जिंक, लेड, आर्सेनिक, मरकरी की मात्रा बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों की मानें तो नदी जल में हैवी मेटल्स की मात्रा 0.01-0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम के खतरनाक स्तर तक पहुँच चुका है।
नई सरकार के आने के बाद इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहल होते हुए दिख रहे हैं। केन्द्र की सरकार ने गंगा को निर्मल बनाने के लिये अलग से एक मंत्रालय का गठन कर 2037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना शुरू की है। इसके तहत गंगा को प्रदूषित करने वाले उद्योगों की निगरानी और उनके विरुद्ध कार्रवाई हो रही है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने गंगा के किनारे दो किलोमीटर के दायरे में पॉलीथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाया था। लेकिन यह प्रतिबन्ध सिर्फ दिखावा साबित हुआ है। मनाही के बावजूद भी गंगा के किनारे पॉलीथिन एवं प्लास्टिक बिखरे पड़े हैं। गौर करें तो इसके लिये पूर्णतः समाज जिम्मेदार है। जब तक समाज गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने का व्रत नहीं लेगा। तब तक गंगा की सफाई सम्भव नहीं है। ध्यान रखना होगा कि गंगा में तकरीबन एक हजार छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती हैं। अगर गंगा को स्वच्छ रखना है तो इन नदियों की भी साफ-सफाई की भी उतनी ही जरूरत है।नमामि गंगे योजना के तहत गंगा नदी के किनारे स्थित 118 शहरों एवं जिलों में जलमग्न शोधन संयंत्र एवं सम्बन्धित आधारभूत संरचना का अध्ययन के साथ गंगा नदी के किनारे स्थित शमशान घाटों पर लकड़ी निर्मित प्लेटफार्म को उन्नत बनाना तथा प्रदूषण एवं गन्दगी फैलाने वालों पर लगाम कसना है। उधर, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने भी गोमुख से हरिद्वार तक गंगा किनारे हर प्रकार के प्लास्टिक पर पाबन्दी लगा दी है। साथ ही गंगा और उसकी सहायक नदियों में घरेलू कूड़ा एवं सीवेज डालने वाले होटल, धर्मशाला तथा आश्रमों पर 5000 रुपए प्रतिदिन की दर से जुर्माना लगाने के भी आदेश दिये हैं।
पर बात तब बनेगी जब आम जनता भी गंगा की सफाई को लेकर गम्भीर होगी। गंगा के घाटों पर प्रत्येक वर्ष लाखों लाशें जलाई जाती हैं। इसमें दूर स्थानों से जलाकर लाई गई अस्थियों को प्रवाहित किया जाता है। ऐसी आस्थाएँ गंगा को प्रदूषित करती हैं। हद तो यह कि गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियाँ भी गंगा से निकाली गई अधजली हड्डियाँ और राखें पुनः गंगा में उड़ेल देती हैं।
जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वारभाटे पर नैतिक रूप से लगाम नहीं लगेगा तब तक गंंगा का निर्मलीकरण सम्भव नहीं है। गत वर्ष पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने गंगा के किनारे दो किलोमीटर के दायरे में पॉलीथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाया था। लेकिन यह प्रतिबन्ध सिर्फ दिखावा साबित हुआ है। मनाही के बावजूद भी गंगा के किनारे पॉलीथिन एवं प्लास्टिक बिखरे पड़े हैं। गौर करें तो इसके लिये पूर्णतः समाज जिम्मेदार है।
जब तक समाज गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने का व्रत नहीं लेगा। तब तक गंगा की सफाई सम्भव नहीं है। ध्यान रखना होगा कि गंगा में तकरीबन एक हजार छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती हैं। अगर गंगा को स्वच्छ रखना है तो इन नदियों की भी साफ-सफाई की भी उतनी ही जरूरत है। गंगा पर बने बाँधों के कारण भी गंगा का प्रवाह बाधित हुआ है। इसको लेकर पर्यावरणविद सरकार को हमेशा से सचेत करते आये हैं।
याद होगा कुछ वर्ष पहले गंगा के किनारे अवैध खनन के खिलाफ आन्दोलनरत चौंतीस वर्षीय निगमानंद को अपनी आहुति तक देनी पड़ी। देश की समझना होगा कि गंगा की निर्मलता की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार के साथ-समाज की भी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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