देश के बड़े इलाके की जीवनधारा कही जाने वाली राष्ट्रीय नदी गंगा सफाई अभियान पर एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल उठाए हैं। गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए केंद्र की राजग सरकार ने अभी तक क्या कार्यवाई की है? अदालत ने हाल ही में सरकार से इस पर कैफियत तलब करते हुए उससे दो हफ्ते के भीतर एक विस्तृत कार्ययोजना का खाका पेश करने का निर्देश दिया है। केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए अदालत ने पूछा कि इस संबंध में जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? अदालत का कहना था कि यह महत्वपूर्ण मामला है। इसमें त्वरित कार्रवाई की जरूरत है, लेकिन सरकार उतनी तेजी नहीं दिखा रही।
गंगा एक्शन प्लान के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों में 261 परियोजनाएं शुरू की जानी थी। बहरहाल इस मुहिम पर अब तक कोई दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए हैं, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और 29 सालों की कोशिशों के बाद भी गंगा पहले से ज्यादा गंदी और प्रदूषित है।अदालत ने न सिर्फ गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए सरकारी कार्ययोजना की देरी पर चिंता जताई, बल्कि अपनी ओर से सरकार को कुछ सुझाव भी दिए। अदालत का कहना था कि सफाई परियोजना चरणबद्ध तरीके से हो, क्योंकि एक बार में ऐसा नहीं किया जा सकता है। अदालत ने सुझाव दिया कि शुरू में सरकार को सौ किलोमीटर नदी की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद अगले हिस्से की सफाई का काम हाथ में लेना चाहिए।
सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने जब अदालत से गंगा सफाई की योजनाओं और तौर-तरीकों पर हलफनामा दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय मांगा, तो न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि पवित्र गंगा को साफ करना तो सरकार के घोषणापत्र में शामिल है। इसे पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अदालत का यह गुस्सा वाजिब भी है।
बीते लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर में गंगा नदी को लेकर जिस तरह से लगातार भावनात्मक भाषण दिए, उससे यह उम्मीद बंधी थी कि वे जब सत्ता में आएंगे, तो गंगा का उद्धार जरूर होगा। गंगा नदी की स्वच्छता उनकी प्राथमिकता में होगी। लेकिन अभी तक का उनका कार्यकाल बताता है कि इस मामले में उनका रवैया औरों की तरह ही है। हां, देखने-दिखाने को जरूर उनकी सरकार कुछ कवायद करती नजर आती है। केंद्रीय जल संसाधन और गंगा सफाई अभियान मंत्री उमा भारती की शुरुआती सक्रियता महज एक छलावा भर थी।
भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड देश की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रूकावट बने हुए हैं।यह पहली बार नहीं है जब गंगा नदी मामले में शीर्ष अदालत का कड़ा रुख सामने आया हो और उसने सरकार को फटकार लगाई हो। अदालत बीते कई सालों से गंगा नदी को प्रदूषणमुक्त कराने के लिए दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। गंगा सफाई अभियान को लेकर उसने कई बार सरकार और प्रशासन की तीखी आलोचना की, गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए अनेकों बार दिशा-निर्देश जारी किए, लेकिन फिर भी सरकार के कामकाज में कोई ज्यादा बड़ा बदलाव नहीं आया।
करोड़ों-अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी गंगा की हालत जरा भी नहीं सुधरी। उलटे ये और भी ज्यादा प्रदूषित हो गई है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड देश की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रूकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि आज जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला हो गया है कि इस जहरीले पानी से न सिर्फ पशु-पंक्षियों के लिए संकट पैदा हो गया है, बल्कि आस-पास के इलाकों का भूजल भी प्रदूषित होने से बड़े पैमाने पर लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
करीब ढाई हजार किलोमीटर लंबी गंगा नदी देश के 29 बड़े शहरों, 23 छोटे शहरों और 48 कस्बों से होकर गुजरती है। गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए, ऐसा नहीं कि सरकारी पहल नहीं हुई। कोशिशें खूब हुईं, मगर उसका असर कहीं दिखलाई नहीं देता।
गंगा किनारे बसे शहरों और उद्योगों से निकल रहे प्रदूषित जल और रासायनिक कचरे को जब तक गंगा में बहाने पर पूरी तरह रोक नहीं लग जाती, तब तक गंगा शुद्धि के नाम पर कितने भी रुपए फूंक दिए जाएं, जमीनी स्तर पर कुछ सुधार नहीं होगा।गंगा नदी में प्रदूषण की ओर सरकार का सबसे पहले ध्यान साल 1979 में गया। उस वक्त केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड ने गंगा में प्रदूषण पर अपनी दो व्यापक रिपोर्टें पेश की थीं। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर अप्रैल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैबिनेट ने गंगा एक्शन प्लान को मंजूरी दी। राजीव गांधी ने गंगा को पांच साल के भीतर प्रदूषणमुक्त करने के वादे के साथ गंगा एक्शन प्लान को क्रियान्वित किया। इस प्लान के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों में 261 परियोजनाएं शुरू की जानी थी। बहरहाल इस मुहिम पर अब तक कोई दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए हैं, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और 29 सालों की कोशिशों के बाद भी गंगा पहले से ज्यादा गंदी और प्रदूषित है। भारी धन राशि खर्च करने के बाद भी गंगा एक्शन प्लान पूरी तरह से नाकाम रहा।
तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी गंगा नदी क्यों स्वच्छ नहीं हो पा रही? इसकी वजह जानना ज्यादा मुश्किल नहीं। गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए पहली शर्त है कि नदी में मिलने वाली गंदगी को किसी भी तरह रोका जाए। जब तक इस गंदगी को मिलने से रोका नहीं जाएगा, तब तक गंगा सफाई की सारी मुहिमें बेकार हैं। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-करखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के लिए कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आज भी गंगा में इनका प्रवाह रूक नहीं पा रहा है।
अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर अवशिष्ट गंगा में आकर मिलता है। कमोवेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिल जाता है। दीगर बड़े शहरों की भी यही कहानी है।
गंगा की सफाई पर एक रिहाइशी कॉलेनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से कैसे रोका जाए? औद्योगिक इकाईयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं विभिन्न राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदें रहते हैं। और तो और न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी पूंजीपतियों और कल-कारखानेदारों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं।
गंगा नदी की बर्बादी के लिए जितना इसे प्रदूषित करने वाले जिम्मेदार हैं, उससे कहीं ज्यादा वे लोग जिम्मेदार हैं, जिन्हें इसे प्रदूषणमुक्त करने की जिम्मेदारी दी गई थी। सच बात तो यह है कि इन्होंने अपने काम को सही तरह से अंजाम नहीं दिया। जिसके चलते हालात और भी ज्यादा बिगड़ते चले गए। केंद्र और जिम्मेदार राज्य सरकारें कागजों में फंड रिलीज करने के बजाय यदि जमीनी स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाएं, तो हालात बदल सकते हैं। गंगा ‘मंथन’ जैसी जज्बाती बातें बहुत हुईं, अब कुछ काम हो।
गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है, जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन हो और नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे एवं नदी के आसपास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल हो। गंगा किनारे बसे शहरों और उद्योगों से निकल रहे प्रदूषित जल और रासायनिक कचरे को जब तक गंगा में बहाने पर पूरी तरह रोक नहीं लग जाती, तब तक गंगा शुद्धि के नाम पर कितने भी रुपए फूंक दिए जाएं, जमीनी स्तर पर कुछ सुधार नहीं होगा।
(लेखक का ईमेल- vasimakhan2@gmail.com)
गंगा एक्शन प्लान के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों में 261 परियोजनाएं शुरू की जानी थी। बहरहाल इस मुहिम पर अब तक कोई दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए हैं, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और 29 सालों की कोशिशों के बाद भी गंगा पहले से ज्यादा गंदी और प्रदूषित है।अदालत ने न सिर्फ गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए सरकारी कार्ययोजना की देरी पर चिंता जताई, बल्कि अपनी ओर से सरकार को कुछ सुझाव भी दिए। अदालत का कहना था कि सफाई परियोजना चरणबद्ध तरीके से हो, क्योंकि एक बार में ऐसा नहीं किया जा सकता है। अदालत ने सुझाव दिया कि शुरू में सरकार को सौ किलोमीटर नदी की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद अगले हिस्से की सफाई का काम हाथ में लेना चाहिए।
सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने जब अदालत से गंगा सफाई की योजनाओं और तौर-तरीकों पर हलफनामा दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय मांगा, तो न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि पवित्र गंगा को साफ करना तो सरकार के घोषणापत्र में शामिल है। इसे पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अदालत का यह गुस्सा वाजिब भी है।
बीते लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर में गंगा नदी को लेकर जिस तरह से लगातार भावनात्मक भाषण दिए, उससे यह उम्मीद बंधी थी कि वे जब सत्ता में आएंगे, तो गंगा का उद्धार जरूर होगा। गंगा नदी की स्वच्छता उनकी प्राथमिकता में होगी। लेकिन अभी तक का उनका कार्यकाल बताता है कि इस मामले में उनका रवैया औरों की तरह ही है। हां, देखने-दिखाने को जरूर उनकी सरकार कुछ कवायद करती नजर आती है। केंद्रीय जल संसाधन और गंगा सफाई अभियान मंत्री उमा भारती की शुरुआती सक्रियता महज एक छलावा भर थी।
भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड देश की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रूकावट बने हुए हैं।यह पहली बार नहीं है जब गंगा नदी मामले में शीर्ष अदालत का कड़ा रुख सामने आया हो और उसने सरकार को फटकार लगाई हो। अदालत बीते कई सालों से गंगा नदी को प्रदूषणमुक्त कराने के लिए दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। गंगा सफाई अभियान को लेकर उसने कई बार सरकार और प्रशासन की तीखी आलोचना की, गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए अनेकों बार दिशा-निर्देश जारी किए, लेकिन फिर भी सरकार के कामकाज में कोई ज्यादा बड़ा बदलाव नहीं आया।
करोड़ों-अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी गंगा की हालत जरा भी नहीं सुधरी। उलटे ये और भी ज्यादा प्रदूषित हो गई है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड देश की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रूकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि आज जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला हो गया है कि इस जहरीले पानी से न सिर्फ पशु-पंक्षियों के लिए संकट पैदा हो गया है, बल्कि आस-पास के इलाकों का भूजल भी प्रदूषित होने से बड़े पैमाने पर लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
करीब ढाई हजार किलोमीटर लंबी गंगा नदी देश के 29 बड़े शहरों, 23 छोटे शहरों और 48 कस्बों से होकर गुजरती है। गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए, ऐसा नहीं कि सरकारी पहल नहीं हुई। कोशिशें खूब हुईं, मगर उसका असर कहीं दिखलाई नहीं देता।
गंगा किनारे बसे शहरों और उद्योगों से निकल रहे प्रदूषित जल और रासायनिक कचरे को जब तक गंगा में बहाने पर पूरी तरह रोक नहीं लग जाती, तब तक गंगा शुद्धि के नाम पर कितने भी रुपए फूंक दिए जाएं, जमीनी स्तर पर कुछ सुधार नहीं होगा।गंगा नदी में प्रदूषण की ओर सरकार का सबसे पहले ध्यान साल 1979 में गया। उस वक्त केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड ने गंगा में प्रदूषण पर अपनी दो व्यापक रिपोर्टें पेश की थीं। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर अप्रैल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैबिनेट ने गंगा एक्शन प्लान को मंजूरी दी। राजीव गांधी ने गंगा को पांच साल के भीतर प्रदूषणमुक्त करने के वादे के साथ गंगा एक्शन प्लान को क्रियान्वित किया। इस प्लान के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों में 261 परियोजनाएं शुरू की जानी थी। बहरहाल इस मुहिम पर अब तक कोई दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए हैं, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और 29 सालों की कोशिशों के बाद भी गंगा पहले से ज्यादा गंदी और प्रदूषित है। भारी धन राशि खर्च करने के बाद भी गंगा एक्शन प्लान पूरी तरह से नाकाम रहा।
तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी गंगा नदी क्यों स्वच्छ नहीं हो पा रही? इसकी वजह जानना ज्यादा मुश्किल नहीं। गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए पहली शर्त है कि नदी में मिलने वाली गंदगी को किसी भी तरह रोका जाए। जब तक इस गंदगी को मिलने से रोका नहीं जाएगा, तब तक गंगा सफाई की सारी मुहिमें बेकार हैं। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-करखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के लिए कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आज भी गंगा में इनका प्रवाह रूक नहीं पा रहा है।
अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर अवशिष्ट गंगा में आकर मिलता है। कमोवेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिल जाता है। दीगर बड़े शहरों की भी यही कहानी है।
गंगा की सफाई पर एक रिहाइशी कॉलेनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से कैसे रोका जाए? औद्योगिक इकाईयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं विभिन्न राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदें रहते हैं। और तो और न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी पूंजीपतियों और कल-कारखानेदारों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं।
गंगा नदी की बर्बादी के लिए जितना इसे प्रदूषित करने वाले जिम्मेदार हैं, उससे कहीं ज्यादा वे लोग जिम्मेदार हैं, जिन्हें इसे प्रदूषणमुक्त करने की जिम्मेदारी दी गई थी। सच बात तो यह है कि इन्होंने अपने काम को सही तरह से अंजाम नहीं दिया। जिसके चलते हालात और भी ज्यादा बिगड़ते चले गए। केंद्र और जिम्मेदार राज्य सरकारें कागजों में फंड रिलीज करने के बजाय यदि जमीनी स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाएं, तो हालात बदल सकते हैं। गंगा ‘मंथन’ जैसी जज्बाती बातें बहुत हुईं, अब कुछ काम हो।
गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है, जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन हो और नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे एवं नदी के आसपास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल हो। गंगा किनारे बसे शहरों और उद्योगों से निकल रहे प्रदूषित जल और रासायनिक कचरे को जब तक गंगा में बहाने पर पूरी तरह रोक नहीं लग जाती, तब तक गंगा शुद्धि के नाम पर कितने भी रुपए फूंक दिए जाएं, जमीनी स्तर पर कुछ सुधार नहीं होगा।
(लेखक का ईमेल- vasimakhan2@gmail.com)
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Post By: pankajbagwan