गंगा भारत की जीवन रेखा है। यह भारतीय सभ्यता के विकास का केन्द्र और भारतीयता की पहचान है। यह जीवनदायिनी है। गंगा ने भारत के विशाल हिस्से में समतल मैदान का निर्माण किया। इस भाग के वासियों को काफी उपजाऊ भूमि भी उपलब्ध करायी। गंगा में असंख्य जीव-जन्तुओं का वासस्थान है। उपलब्ध तथ्यों के अनुसार गंगा में वनस्पतियों एवं जन्तुओं की 2000 प्रजातियाँ मौजूद हैं। इन प्रजातियों में से कई क्षेत्र विशेष में पायी जाती हैं। वे विश्व के और किसी हिस्से में नहीं पायी जातीं। गांगेय डाल्फिन, घड़ियाल और मुलायम आवरण वाले कछुए इसके विशिष्ट उदाहरण हैं। पालीकीट, सीप एवं घोंघों की कई प्रजातियाँ, समुद्र और गंगा, दोनों में पायी जाती हैं। हिलसा मछली रहती तो है समुद्र में, लेकिन प्रजनन के लिए गंगा में आती है। प्रजनन के बाद वह अपने बच्चों के साथ पुन: वापस समुद्र में लौट जाती है। इसी तरह झींगा की कुछ प्रजातियाँ प्रजनन के लिए गंगा से समुद्र में जाती हैं। वे अपने बच्चों के साथ पुन: गंगा में वापस लौट आती हैं। पिछले एक-दो दशकों से तिलापिया, ग्रास कार्प, कामन कार्प, टेरिगोप्लीक्थीस अनिसित्सी और फाईसा (हाइतिया) मेक्सिकाना-जैसी मछली एवं घोंघे की कई विदेशी प्रजातियाँ भी गंगा में आ गयी हैं।
गंगा में कई संवर्ग के जीव-जन्तु पाये जाते हैं, जो न केवल कई समुदायों के लोगों के लिए जीविका के साधन हैं, बल्कि गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए भी अत्यावश्यक हैं। गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन को स्थानीय लोग ‘सुंस’ कहते हैं। यह मीठे जल में पायी जाने वाली मात्र तीन डाल्फिनों में से एक है। यह लालित्यपूर्ण स्तनधारी प्राणी है। इसी तरह घड़ियाल मगरमच्छ जाति का एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो केवल मछली को ही अपना आहार बनाता है। गंगा में पाया जाने वाला उदविलाव भी विलक्षण स्तनधारी प्राणी है। गंगा बेसिन में भारत का लगभग 26 प्रतिशत भू-भाग है परन्तु, इसमें देश की 43 प्रतिशत आबादी बसी हुई है। यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है। कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता-जैसे कई बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में अनेक कल-कारखाने हैं। शहरों का मल-जल तथा उद्योगों के अपशिष्ट बिना शोधन के गंगा मे प्रवाहित किये जाते हैं। इसका उपयोग जल-मार्ग की तरह भी किया जा रहा है। गंगा एवं इसकी सहायक नदियों पर बांध बनाकर इसके जल को नहरों में ले जाया जा रहा है। गंगा और सहायक नदियों पर बनाये गये तटबंध गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। फलत: इसकी जैव-विविधता में तेजी से ह्रास हुआ है।
जैव विविधता में ह्रास के दो मुख्य कारण हैं- 1. जीवों का अधिक शिकार या दोहन एवं 2. जीवों के वासस्थान का विनाश। अधिक शिकार के कारण गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन, घड़ियाल, उदविलाव और मुलायम आवरण वाले कछुए कई क्षेत्रों से विलुप्त हो गये हैं। अन्य क्षेत्रों में ये विलुप्ति के कगार पर हैं। चिड़ियों का भी अंधाधुन्ध शिकार किया जाता है। कई जगहों पर तो गेहूँ में कीटनाशक डालकर इनका शिकार किया जाता है। इन मरे हुए जहरीले पक्षियों को खाने के बदले बाजार में बेच दिया जाता है। आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण रोहू, कतला, नैनी-जैसी प्रजातियों के लिए गंगा का दियारा बरसात के मौसम में प्रजनन क्षेत्र होता है। दियारा में पहले प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पतियाँ होती थीं। अब सम्पूर्ण दियारा क्षेत्र में खेती हो रही है। खेती में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इन जहरीले पदार्थों के कारण मछलियों के अंडे से बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं। इस तरह वासस्थान के जहरीला होते जाने और अंधाधुन्ध शिकार के कारण मछलियों में तेजी से ह्रास हुआ है। वैश्वीकरण के दौर में मछलियों की कई विदेशी प्रजातियाँ भारत में आ रहीं हैं। इनके प्रभाव से गंगा भी अछूती नहीं है। दो दशक पहले तक (1993-95 ई.) गंगा में पटना के आस-पास एक भी विदेशी मछली नहीं पायी गयी थी। लेकिन 2007-09 में विदेशी मछलियों की लगभग दस प्रजातियाँ यहाँ पायी गयीं। ये विदेशी मछलियाँ स्थानीय मछलियों के लिए खतरनाक हैं।
वासस्थान के ह्रास के भी कई कारण हैं। इनमें सबसे प्रमुख है प्रदूषण एवं जल प्रवाह की कमी। शहरों से बिना शोधन के जल-मल को सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। प्रतिदिन लगभग 13,000 मिलियन लीटर जल-मल गंगा के किनारे वाले शहरों में जनित होते हैं। मगर, मुश्किल से 4,000 मिलियन लीटर जल-मल के शोधन की व्यवस्था हो पायी है। इसी तरह कल-कारखानों से प्रतिदिन 260 मिलियन लीटर बहि:स्राव निकलता है। इसका अधिकांश भाग बिना शोधन के गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। घरेलू एवं औद्योगिक बहि:स्राव के कारण गंगा काफी प्रदूषित हो गयी है। कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र को उपयोग में लाये जाने वाले डी.डी.टी., टी.सी.एच, बी.एच.सी. और इण्डोसल्फान आदि कीटनाशक बरसात के महीने में बहकर गंगा में आ जाते हैं। गंगा का जल एवं पारिस्थितिकी तन्त्र इन जहरीले रसायनों से प्रदूषित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 3,000 टन कीटनाशक प्रति वर्ष गंगा में प्रवाहित हो रहे हैं। कीटनाशकों के अलावा पालीक्लोरिनटेड, बाईफनाईल, परक्लोरिनेटेड- जैसे रसायन भी गंगा में पाए गए हैं।
गंगा एवं सहायक नदियों पर बनाये गये बांध जलीय जन्तुओं के आवागमन के मार्ग में बड़े अवरोध हैं। पश्चिम बंगाल के फरक्का में बांध बनने के बाद से मछली की हिलसा प्रजाति का बिहार एवं उत्तर प्रदेश में आना बन्द हो गया है। इसी प्रकार नरोरा एवं बिजनौर बांध के बीच लगभग 60 डाल्फिन बंदी हो गये हैं। ये बंदी डाल्फिन प्रजनन की समस्या से जूझ रहे हैं। इनके जीन का प्रवाह बंद हो गया है। डाल्फिन की यह बंदी आबादी काफी असुरक्षित हो गयी है। ध्यान देने लायक है कि गंगेय डाल्फिन को भारत का राष्ट्रीय जलीय जन्तु घोषित किया गया है और गंगा एवं इसकी सहायक नदियों में इनकी कुल संख्या मात्र 2400 रह गयी है। गंगा की मुख्य धारा में तो इनकी संख्या मात्र 1520 है।
गंगा एवं सहायक नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ नियन्त्रण के लिए तटबंधों का निर्माण किया गया है। केवल बिहार में तटबंध की लम्बाई 3,000 किलोमीटर से अधिक है। एक अध्ययन के अनुसार बिहार में तटबन्ध निर्माण के बाद से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लगभग तीन गुना वृद्धि हुई है। इन तटबन्धों से नदियों का पश्विक जुड़ाव भी समाप्त हुआ है। इसका असर है कि नदियों एवं इसकी घाटी की आद्र भूमि से जैव विविधता और बरसात के मौसम में होने वाला ऊर्जा एवं पोषक तत्त्वों का विनिमय बन्द हो गया है। इस आर्द्र भूमि की जैव-विविधता में भी काफी ह्रास हुआ है। यह आर्द्र भूमि गाद से भर गयी है और उनकी जल-धारण क्षमता में काफी कमी आयी है। यह आर्द्र भूमि प्रकृति का गुर्दा है। यह जल को छान कर भू-जल को रिचार्ज करता है। यही भू-जल, जल स्तर में कमी के मौसम में नदियों को रिचार्ज करता है। ये तटबन्धों ने न केवल जैव-विविधता के ह्रास का कारण बने हैं, बल्कि इनके कारण नदी एवं आर्द्र भूमि का पारिस्थितिकी तन्त्र भी ध्वस्त हो रहा है।
हिमालय सहित गंगा के अन्य जल ग्रहण क्षेत्रों में जंगलों के कटाव एवं प्राकृतिक वनस्पतियों की बर्बादी के कारण बरसात के मौसम में नदियों में काफी गाद भर रहा है। इस प्रक्रिया में नदियों का तल भी ऊँचा हो रहा है। पानी रखने की क्षमता नदियों में काफी घट रही है। ऐसे में जीवों का वास क्षेत्र घटता जा रहा है। गंगा सहित अन्य नदियों से बालू निकासी हो रही है। नदी से बिल्कुल सटकर र्इंट भट्ठे लगाये जा रहे हैं। किनारों पर भवन एवं सड़क बनाये जा रहे हैं। इन सबका प्रभाव जैव-विविधता में ह्रास के रूप में पड़ रहा है।
गंगा भारत की जल मार्ग संख्या-1 है। इसमें मोटर-युक्त नाव एवं जलयान चलाये जा रहे हैं। इनसे टकराकर डाल्फिनों की मौत की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अन्य जीवों के वासस्थान पर भी काफी बुरा असर पड़ा है। ऐसी नौकाओं से पैदा होने वाला शोर भी डाल्फिन के लिए काफी खतरनाक है, क्योंकि गंगा की अन्धी डाल्फिनों की जीवन-क्रिया प्रतिध्वनि श्रवण पर ही निर्भर करती है। शोर इन जीवों के जीवन-चक्र पर बुरा प्रभाव डालता है हिमालय में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों पर निर्मित जल विद्युत परियोजनाओं का भी पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा है। गंगा में प्रस्तावित बांध भी गंगा के प्रवाह पर असर डालेंगे। इसके जल में प्रदूषण एवं गाद की मात्रा बढ़ेगी। इसका सीधा प्रभाव नदी की जैव- विविधता पर पड़ेगा। सुन्दरवन में मैन्ग्रोव वनस्पति के क्षरण तथा समुद्र से नदियों में खारे पानी के प्रवेश से जैव-विविधता में ह्रास को आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे में नदियों को आपस में जोड़ने की योजना, जलवायु परिवर्तन एवं गंगा पर प्रस्तावित 16 बांध, गंगा की जैव-विविधता के ताबूत में अन्तिम कील साबित होगी।
(लेखक जन्तु विज्ञान विभाग, पटना विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष हैं)
गंगा में कई संवर्ग के जीव-जन्तु पाये जाते हैं, जो न केवल कई समुदायों के लोगों के लिए जीविका के साधन हैं, बल्कि गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए भी अत्यावश्यक हैं। गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन को स्थानीय लोग ‘सुंस’ कहते हैं। यह मीठे जल में पायी जाने वाली मात्र तीन डाल्फिनों में से एक है। यह लालित्यपूर्ण स्तनधारी प्राणी है। इसी तरह घड़ियाल मगरमच्छ जाति का एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो केवल मछली को ही अपना आहार बनाता है। गंगा में पाया जाने वाला उदविलाव भी विलक्षण स्तनधारी प्राणी है। गंगा बेसिन में भारत का लगभग 26 प्रतिशत भू-भाग है परन्तु, इसमें देश की 43 प्रतिशत आबादी बसी हुई है। यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है। कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता-जैसे कई बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में अनेक कल-कारखाने हैं। शहरों का मल-जल तथा उद्योगों के अपशिष्ट बिना शोधन के गंगा मे प्रवाहित किये जाते हैं। इसका उपयोग जल-मार्ग की तरह भी किया जा रहा है। गंगा एवं इसकी सहायक नदियों पर बांध बनाकर इसके जल को नहरों में ले जाया जा रहा है। गंगा और सहायक नदियों पर बनाये गये तटबंध गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। फलत: इसकी जैव-विविधता में तेजी से ह्रास हुआ है।
जैव विविधता में ह्रास के दो मुख्य कारण हैं- 1. जीवों का अधिक शिकार या दोहन एवं 2. जीवों के वासस्थान का विनाश। अधिक शिकार के कारण गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन, घड़ियाल, उदविलाव और मुलायम आवरण वाले कछुए कई क्षेत्रों से विलुप्त हो गये हैं। अन्य क्षेत्रों में ये विलुप्ति के कगार पर हैं। चिड़ियों का भी अंधाधुन्ध शिकार किया जाता है। कई जगहों पर तो गेहूँ में कीटनाशक डालकर इनका शिकार किया जाता है। इन मरे हुए जहरीले पक्षियों को खाने के बदले बाजार में बेच दिया जाता है। आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण रोहू, कतला, नैनी-जैसी प्रजातियों के लिए गंगा का दियारा बरसात के मौसम में प्रजनन क्षेत्र होता है। दियारा में पहले प्राकृतिक रूप से उगने वाली वनस्पतियाँ होती थीं। अब सम्पूर्ण दियारा क्षेत्र में खेती हो रही है। खेती में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है। इन जहरीले पदार्थों के कारण मछलियों के अंडे से बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं। इस तरह वासस्थान के जहरीला होते जाने और अंधाधुन्ध शिकार के कारण मछलियों में तेजी से ह्रास हुआ है। वैश्वीकरण के दौर में मछलियों की कई विदेशी प्रजातियाँ भारत में आ रहीं हैं। इनके प्रभाव से गंगा भी अछूती नहीं है। दो दशक पहले तक (1993-95 ई.) गंगा में पटना के आस-पास एक भी विदेशी मछली नहीं पायी गयी थी। लेकिन 2007-09 में विदेशी मछलियों की लगभग दस प्रजातियाँ यहाँ पायी गयीं। ये विदेशी मछलियाँ स्थानीय मछलियों के लिए खतरनाक हैं।
वासस्थान के ह्रास के भी कई कारण हैं। इनमें सबसे प्रमुख है प्रदूषण एवं जल प्रवाह की कमी। शहरों से बिना शोधन के जल-मल को सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। प्रतिदिन लगभग 13,000 मिलियन लीटर जल-मल गंगा के किनारे वाले शहरों में जनित होते हैं। मगर, मुश्किल से 4,000 मिलियन लीटर जल-मल के शोधन की व्यवस्था हो पायी है। इसी तरह कल-कारखानों से प्रतिदिन 260 मिलियन लीटर बहि:स्राव निकलता है। इसका अधिकांश भाग बिना शोधन के गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। घरेलू एवं औद्योगिक बहि:स्राव के कारण गंगा काफी प्रदूषित हो गयी है। कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र को उपयोग में लाये जाने वाले डी.डी.टी., टी.सी.एच, बी.एच.सी. और इण्डोसल्फान आदि कीटनाशक बरसात के महीने में बहकर गंगा में आ जाते हैं। गंगा का जल एवं पारिस्थितिकी तन्त्र इन जहरीले रसायनों से प्रदूषित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 3,000 टन कीटनाशक प्रति वर्ष गंगा में प्रवाहित हो रहे हैं। कीटनाशकों के अलावा पालीक्लोरिनटेड, बाईफनाईल, परक्लोरिनेटेड- जैसे रसायन भी गंगा में पाए गए हैं।
गंगा मानव के लिए तो जीवनदायिनी है ही, यह असंख्य जीवों का वासस्थान है। यह जीव इसे स्वच्छ रखने में मदद करते हैं। यह लाखों-करोड़ों गरीब मछुआरों की आजीविका का साधन भी है। सबसे अधिक महत्त्व की बात यह कि गंगा हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की पालनहार है। यह भारत की पहचान है। विकास योजनाओं के निर्माण के वक्त हमें गंगा एवं गंगा की जैव-विविधता हिफाजत का ध्यान रखना ही होगा।
गंगा के जल का भी अतिदोहन हो रहा है। हरिद्वार स्थित भीमगोड़ा बांध, बिजनौर स्थित मध्य गंगा बांध एवं नरोरा स्थित लोअर गंगा बांध से लगभग 90 प्रतिशत से अधिक जल सिंचाई के लिए निकाल लिया जाता है। परिणाम है कि गंगा में नदी के पानी की तुलना में जल-मल और उद्योगों के गन्दा पानी की मात्रा कानपुर के आस-पास दोगुने से अधिक हो जाती है। गंगा की सहायक नदियों पर बांध बनाकर जल को सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए निकाला जा रहा है। नतीजतन गंगा के पारिस्थितिकी तन्त्र एवं जैव-विविधता में काफी ह्रास हुआ है। हरिद्वार से बिजनौर के बीच गंगा में डाल्फिन विलुप्त हो गयी है। प्रवाह की कमी एवं प्रदूषण के कारण नरोरा से इलाहाबाद के बीच गंगा के लगभग 600 किलोमीटर क्षेत्र में बची डाल्फिन की संख्या मुश्किल से 70-80 रह गयी है। अन्य जीव भी काफी कम बच गये हैं। इस इलाके की तुलना में गंगा के अन्य क्षेत्रों में डाल्फिन की संख्या अब भी अधिक है।गंगा एवं सहायक नदियों पर बनाये गये बांध जलीय जन्तुओं के आवागमन के मार्ग में बड़े अवरोध हैं। पश्चिम बंगाल के फरक्का में बांध बनने के बाद से मछली की हिलसा प्रजाति का बिहार एवं उत्तर प्रदेश में आना बन्द हो गया है। इसी प्रकार नरोरा एवं बिजनौर बांध के बीच लगभग 60 डाल्फिन बंदी हो गये हैं। ये बंदी डाल्फिन प्रजनन की समस्या से जूझ रहे हैं। इनके जीन का प्रवाह बंद हो गया है। डाल्फिन की यह बंदी आबादी काफी असुरक्षित हो गयी है। ध्यान देने लायक है कि गंगेय डाल्फिन को भारत का राष्ट्रीय जलीय जन्तु घोषित किया गया है और गंगा एवं इसकी सहायक नदियों में इनकी कुल संख्या मात्र 2400 रह गयी है। गंगा की मुख्य धारा में तो इनकी संख्या मात्र 1520 है।
गंगा एवं सहायक नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ नियन्त्रण के लिए तटबंधों का निर्माण किया गया है। केवल बिहार में तटबंध की लम्बाई 3,000 किलोमीटर से अधिक है। एक अध्ययन के अनुसार बिहार में तटबन्ध निर्माण के बाद से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लगभग तीन गुना वृद्धि हुई है। इन तटबन्धों से नदियों का पश्विक जुड़ाव भी समाप्त हुआ है। इसका असर है कि नदियों एवं इसकी घाटी की आद्र भूमि से जैव विविधता और बरसात के मौसम में होने वाला ऊर्जा एवं पोषक तत्त्वों का विनिमय बन्द हो गया है। इस आर्द्र भूमि की जैव-विविधता में भी काफी ह्रास हुआ है। यह आर्द्र भूमि गाद से भर गयी है और उनकी जल-धारण क्षमता में काफी कमी आयी है। यह आर्द्र भूमि प्रकृति का गुर्दा है। यह जल को छान कर भू-जल को रिचार्ज करता है। यही भू-जल, जल स्तर में कमी के मौसम में नदियों को रिचार्ज करता है। ये तटबन्धों ने न केवल जैव-विविधता के ह्रास का कारण बने हैं, बल्कि इनके कारण नदी एवं आर्द्र भूमि का पारिस्थितिकी तन्त्र भी ध्वस्त हो रहा है।
हिमालय सहित गंगा के अन्य जल ग्रहण क्षेत्रों में जंगलों के कटाव एवं प्राकृतिक वनस्पतियों की बर्बादी के कारण बरसात के मौसम में नदियों में काफी गाद भर रहा है। इस प्रक्रिया में नदियों का तल भी ऊँचा हो रहा है। पानी रखने की क्षमता नदियों में काफी घट रही है। ऐसे में जीवों का वास क्षेत्र घटता जा रहा है। गंगा सहित अन्य नदियों से बालू निकासी हो रही है। नदी से बिल्कुल सटकर र्इंट भट्ठे लगाये जा रहे हैं। किनारों पर भवन एवं सड़क बनाये जा रहे हैं। इन सबका प्रभाव जैव-विविधता में ह्रास के रूप में पड़ रहा है।
गंगा भारत की जल मार्ग संख्या-1 है। इसमें मोटर-युक्त नाव एवं जलयान चलाये जा रहे हैं। इनसे टकराकर डाल्फिनों की मौत की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अन्य जीवों के वासस्थान पर भी काफी बुरा असर पड़ा है। ऐसी नौकाओं से पैदा होने वाला शोर भी डाल्फिन के लिए काफी खतरनाक है, क्योंकि गंगा की अन्धी डाल्फिनों की जीवन-क्रिया प्रतिध्वनि श्रवण पर ही निर्भर करती है। शोर इन जीवों के जीवन-चक्र पर बुरा प्रभाव डालता है हिमालय में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों पर निर्मित जल विद्युत परियोजनाओं का भी पारिस्थितिकी तन्त्र पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा है। गंगा में प्रस्तावित बांध भी गंगा के प्रवाह पर असर डालेंगे। इसके जल में प्रदूषण एवं गाद की मात्रा बढ़ेगी। इसका सीधा प्रभाव नदी की जैव- विविधता पर पड़ेगा। सुन्दरवन में मैन्ग्रोव वनस्पति के क्षरण तथा समुद्र से नदियों में खारे पानी के प्रवेश से जैव-विविधता में ह्रास को आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे में नदियों को आपस में जोड़ने की योजना, जलवायु परिवर्तन एवं गंगा पर प्रस्तावित 16 बांध, गंगा की जैव-विविधता के ताबूत में अन्तिम कील साबित होगी।
(लेखक जन्तु विज्ञान विभाग, पटना विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष हैं)
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