गंगा की पेट में गाद की ढेर जमा है। इसमें विभिन्न तरह की गाद है। इसे हिमालय से बहकर आए पानी के साथ आने वाली महीन मिट्टी भर समझना भूल होगी। शहरों के मैला जल और औद्योगिक कचरा के साथ आने वाली गंदगी भी इकट्ठा है। इस गंदगी का असर गंगा में पलने वाले जलीय जीवों पर पड़ा है। गाद में इस गंदगी के मिले होने का असर गंगा के तटवर्ती इलाके में खेती पर हुआ है। लेकिन यह मसला अभी चर्चा में नहीं हैं। गंगा में जमा गाद के खिलाफ बिहार सरकार का ताजा अभियान मूलतः फरक्का बराज की वजह से गाद का प्रवाहित होकर समुद्र में नहीं जाने और बराज के ऊपर के प्रवाह क्षेत्र में एकत्र होने पर केंन्द्रीत है।
हिमालय से निकली नदियों में पानी के साथ गाद आने की समस्या नई नहीं है। बिहार, बंगाल और आसाम सदियों से इसे झेलते रहे हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई से समस्या बढ़ी है। समस्या केवल पहाड़ों पर वनों की कटाई से नहीं, मैदानी क्षेत्र में वृक्षों के विनाश का असर पड़ा है। इन राज्यों में गाद को व्यवस्थित करने की प्रकृति सम्मत व्यवस्था विकसित हुई थी। तटबंधों के निर्माण की वजह से वह व्यवस्था टूट गई है। उस व्यवस्था के टूट जाने से गाद की समस्या विकराल होती गई है।
बिहार में नेपाल की ओर से आई नदियों में काफी मात्रा में गाद आती है। इस मामले में कोसी सबसे बदनाम नदी है। हिमालय के ऊँचे शिखरों से आई यह नदी बिहार में प्रवेश करने के थोड़ा ही पहले पहाड़ से मैदान में उतरती है। प्रवाह गति अचानक कम हो जाती है जिससे नदी के साथ आई मिट्टी- बालू अर्थात गाद बड़े पैमाने पर तल में जम जाता है। बराज और तटबंध बनने के बाद वह गाद कुछ तो नदी के पेट में जमता है और कुछ प्रवाह के साथ बहते हुए गंगा में समाहित होता है। कोसी के गंगा में समाहित होने के तुरंत बाद फरक्का आ जाता है जहाँ बराज की वजह से प्रवाह बाधित होती है और पानी तटों की ओर फैलता है। गाद तल में बैठता जाता है।
गाद की वजह से फरक्का बराज के कई फाटक पूरी तरह जाम हो गए हैं। इससे गाद जमने की समस्या बढ़ती गई है। बराज के पास एकत्र गाद की ढेर से टकराकर गंगा का प्रवाह उल्टी दिशा में होता है। गाद ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में जमने लगता है। इसका असर गंगा की सभी सहायक नदियों पर होता है। कोसी और बिहार में गंगा से मिलने वाली दूसरी नदियों पर तत्काल असर होता है। उन नदियों की जल निकासी रूक सी जाती है, बल्कि उल्टा प्रवाह होता है। इस तरह गंगा के साथ-साथ सहायक नदियों के तल में गाद जमने की समस्या विकराल होती गई है।
उथलेपन का असर फरक्का के निकट के तटवर्ती इलाके पर होता है। चूँकी गंगा के दाहिने राजमहल की पहाड़ियाँ हैं, इसलिए नदी बाएँ तटपर तेजी से कटाव करती है। गंगा का बायाँ तटबंध हर साल कटाव का शिकार होता है। तटबंध थोड़ा पीछे हटकर बना दिया जाता है। इस तरह मालदा जिले में गंगा तट के अनेक गाँव कटाव का शिकार होकर विलुप्त हो गए हैं। लेकिन कटाव और जल जमाव का यह प्रकोप मालदा जिले तक सीमित नहीं रहता। भागलपुर, मुंगेर, पटना और बेगूसराय, समस्तीपुर, हाजीपुर व सारण में भी गाद का जमाव होता है। गाद एकत्र होने से गंगा के दियरा क्षेत्र में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। नदी के भीतर जगह-जगह टापू उभर आए हैं। नदी की सामान्य गहराई काफी घट गई है।
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने चार दशक के सेटेलाइट तस्वीरों के अध्ययन में पाया कि गंगा के दियरा क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ है। दियरा क्षेत्र के 1975 से लेकर 2014 तक के आँकड़ों में क्षेत्रफल में तेजी से विस्तार दिखता है। खासकर सोन नदी के संगम से लेकर महात्मा गांधी सेतु तक दियरा क्षेत्र काफी फल गया है अर्थात जल बहाव के लिये उपलब्ध इलाके में जबरदस्त कमी आई है। अध्ययन में दिखा कि गंगा के बहाव के रास्ते में भी काफी बदलाव हुआ है। विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के डॉ प्रधान पार्थसारथ ने कहा कि पटना के आस-पास दियरा क्षेत्र में जमी रेत और तटीय इलाकों में हो रहे बदलाव की वजह से आगामी दिनों में बाढ़ की स्थिति भयावह हो सकती है।
जब नदियों पर तटबंध नहीं बने थे तो बाढ़ का पानी पूरे इलाके में फैलता था। दो-दस दिनों में बाढ़ का पानी उतरता तो खेतों में सिल्ट या गाद की महीन परत बिछी होती थी। वह गाद उर्वरता के गुणों से भरपूर होता था। पूरे इलाके में फैल जाने से समस्या नहीं बनता था, बल्कि खेतों की उर्वरता को बढ़ाने वाला अवयव साबित होता था। इस संदर्भ में अंग्रेज इंजीनियर विलकॉक्स का नाम अक्सर लिया जाता है। उसने वर्धमान जिले में अध्ययन किया था। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग नदियों की बाढ़ को अपने खेतों में ले जाने का इंतजाम करते थे। गंगा में पटना नहर या बक्सर, मुंगेर आदि जगहों पर बाढ़ का पानी खेत में ले जाने की व्यवस्था के अवशेष दिख जाते हैं। लेकिन विभिन्न नदियों के तटबंधों और बराज से घिर जाने के बाद यह व्यवस्था टूट गई।
अब यह गाद तटबंधों के भीतर नदी के पेट में जमा होता है जिससे नदी उथली होती जाती है। तटबंधों के टूटने से बाढ़ आती है तो खेतों में मोटे बालू की परत बिछ जाती है। खेतों की उर्वरता समाप्त हो जाती है। जैसा कोसी के कुसहा त्रासदी में हुआ। गनीमत है कि गंगा ने अभी तक फुलाहार या मातला जैसी छोटी नदियों का प्रवाह मार्ग नहीं अपनाया है। वैसी स्थिति में कैसी तबाही आएगी, इसकी कल्पना भर की जा सकती है। कुसहा में कोसी बराज का रक्षात्मक तटबंध नदी के पेट में जमा गाद की वजह से 18 अगस्त 2008 को टूट गया था। उस दिन नदी में सामान्य से कम प्रवाह था। तटबंध की देख-रेख में कोताही हुई थी लेकिन असली कारण नदी तल में जमा गाद है, इसमें कोई शक नहीं।
गंगा की वतर्मान बदहाली के लिये फरक्का बराज को सीधे तौर जिम्मेदार ठहराते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने 23 अगस्त 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक तीन पेज का पत्र सौंपा है। फरक्का बराज की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि इससे लाभ के बजाए नुकसान अधिक है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण की पहली बैठक में 2009 में ही उन्होंने गंगा नदी के तल में भारी मात्रा में गाद जमा होने का मामला उठाया था। बाद में अन्तरराज्यीय परिषद और पूर्वी क्षेत्रीय परिषद की बैठक में भी यह मामला उठाते हुए राष्ट्रीय गाद प्रबंधन नीति बनाने की मांग की।
इस पहल पर तत्कालीन जल संसाधन मंत्री ने मई 2012 में चौसा से फरक्का तक गंगा का हवाई सर्वेक्षण किया। फिर सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन द्वारा समस्या का अध्ययन कर समाधान सुझाने की बात की गई। लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है। हालाँकि गाद को निपटाने के बारे में कोसी क्षेत्र में एक प्रयोग चल रहा है। वह प्रयोग कुसहा त्रासदी के बाद खेतों में एकत्र गाद से बर्तन, टाइल्स आदि बनाने के बारे में है। लेकिन क्या इस तरह का प्रयोग गंगा में भी नहीं किया जा सकता? नदी के गाद से निपटने की एक व्यवस्था मिट्टी के बर्तन बनाना भी था। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार आमतौर पर नदियों की मिट्टी का उपयोग ही करते थे। आज भी कलकत्ता और बनारस आदि जगहों पर इसे देखा जा सकता है। पर बिहार में कुम्हारी का कारोबार करीब-करीब समाप्त हो गया है।
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