गंगा के लिये तड़पता ऋषि वैज्ञानिक

सानंद
सानंद

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के अनशन का 81वाँ दिन

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदमानवीय प्रयासों द्वारा धरती में अवतरित एकमात्र नदी गंगा को वर्तमान पीढ़ी भविष्य के लिये नहीं छोड़ना चाहती। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब भी भारतीय सभ्यता, समाज और राज पर कोई गहरा संकट आता था तो ऋषि मुनि, तपस्वी और राज ऋषि समाज और राज को सही रास्ता दिखाते थे जिससे आने वाले संकट से बचा जाता था।

वर्तमान में गंगा जी भी अति संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रही हैं। सिर्फ बरसात के तीन महीनों में गंगा जी की अवस्था कुछ ठीक रहती है और बाकी के 9 महीने तो लगभग वो मृतप्राय ही होती हैं। गंगा जी कि यह स्थिति कैसे हुई यह एक अतिमहत्त्वपूर्ण विषय है लेकिन इस पर सरकार का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। यही वजह है कि गंगा जी की सभी बीमारियों की जानकारी उनके निदान की समझ रखने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द (पूर्व प्रो. जी.डी.अग्रवाल) जी को बार-बार तपस्या (आमरण अनशन) करना पड़ रहा है। हमारी सरकारों को या तो गंगा जी कि विशिष्टता की समग्र समझ ही नहीं है या फिर जान-बूझकर समझने की कोशिश नहीं की जा रही है।

प्रो.अग्रवाल कहते हैं, “गंगा एक सामान्य नदी नहीं है, यह मानव प्रयास (राजा भागीरथ) द्वारा पृथ्वी पर लाई गई एक विशेष धारा है। इसके विशेष गुणों की समझ सभी धर्म के लोगों में थी। मुगल शासक अकबर तो नित्य गंगाजल का सेवन ही करता था, औरंगजेब भी गंगाजल को स्वास्थवर्धक मानता था।”

अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गंगा नहर निर्माण के समय गंगाजल की विशिष्टता को अक्षुण रखने की माँग पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने उठाया था जिसके बाद हरकी पैड़ी में गंगा की अविरलता सुनिश्चित करने हेतु 1916 में हरिद्वार में एक बैठक का आयोजन किया गया था।

इस बैठक में 32 गैर सरकारी एवं 18 सरकारी प्रतिनिधि शामिल हुए थे। बैठक में शामिल हुए लोगों में 8 राज्यों के महाराजा भी थे जिनमें से 2 महाराजा दक्षिण से थे। कहने का निहितार्थ यह है कि उस समय भी सिर्फ गंगा बेसिन का मामला नहीं था बल्कि यह सांस्कृतिक धरोहर, एक पवित्रधारा, गंगाजल के स्वास्थ्यप्रद गुणों और रोगनाशक क्षमता का मामला था।

गंगाजल स्वास्थ्यप्रद गुणों की बात केवल एक कोरी मान्यता नहीं है इसे वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। हम सभी ने यह अनुभव जरूर किया होगा कि गंगाजल को वर्षों तक रखने पर भी सड़ता नहीं है जबकि किसी अन्य नदी के जल के मामले में ऐसा नहीं है।

गंगाजल की इस विशेषता को समझने के लिये 1974-75 में आईआईटी कानपुर में प्रो. अग्रवाल के मार्गदर्शन में एमटेक के छात्र काशी प्रसाद ने शोध किया। शोध में पाया गया कि बिठूर (कानपुर के पास) से एकत्र किये गए गंगाजल में जब कोलीफार्म मिलाया गया तो कुछ दिनों में उसका 98 प्रतिशत हिस्सा स्वतः नष्ट हो गया।

कोलीफार्म मिलाए गए जल को जब फिल्टर किया गया तो उसमें केवल 45 प्रतिशत ही कोलीफार्म नष्ट हुए। उसी जल का जब पूर्ण शोधन किया गया तो कोलीफार्म की मात्रा में कोई बदलाव नहीं हुआ यानि कि एक भी कोलीफार्म खत्म नहीं हुआ। इसके बाद बिठूर से लिये गए जल को जब प्रयोगशाला में सेन्ट्रीफ्यूज (centrifuge) किया गया तो जल की कोलीफार्म नष्ट करने की क्षमता खत्म हो गई। इस प्रयोग से यह स्पष्ट हुआ कि गंगाजल में निलम्बित कण ही इस गुण के वाहक हैं।

इसी प्रकार से आईआईटी कानपुर में ही डीएस भार्गव द्वारा किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि गंगाजल में अवजल के शोधन करने की क्षमता सामान्य नदी जल से अधिक है। सामान्य नदी जल में बीओडी नष्ट करने (BOD Removal) की दर 0.01 से 0.02 थी जबकि गंगा में यह दर 0.17 है यानि की अन्य नदियों की तुलना में 8-17 गुना अधिक।

इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी चण्डीगढ़ ने अपने अध्ययन में गंगा जी में पाये जाने वाले फाजेज की मैपिंग करते हुए पाया कि इनमें 17 प्रकार के रोगाणुओं (जैसे बिब्रिथो कालरा, टायफाइड, सल्मोनेला आदि) को मारने/नष्ट करने की क्षमता है।

जिस समय टिहरी बाँध बन रहा था उस समय यह बात उठी थी कि टिहरी बाँध के कारण गंगाजल की विशिष्टताओं पर कोई प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। इस बात को जानने के लिये बाँध का निर्माण करने वाली टीएचडीसी कम्पनी ने अध्ययन की जिम्मेदारी राष्ट्रीय पर्यावरण आभियांत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) नागपुर को दी। नीरी ने अपने अध्ययन में पाया कि गंगा में कई भारी धातु और रेडियोएक्टिव पदार्थ सूक्ष्म मात्रा में विद्यमान हैं। इसमें विशेष बैक्टीरियोफाजेज भी है। और ये सभी विशेष गुण गंगा में पाये जाने वाले निलम्बित कणों (बहकर आने वाले मिट्टी के कणों) में विद्यमान हैं।

नीरी ने ही अपने अध्ययन में यह स्पष्ट किया कि 90 प्रतिशत निलम्बित कण टिहरी बाँध में जमा हो जाएँगे। यानि टिहरी बाँध बनने के बाद गंगाजल के 90 प्रतिशत विशिष्ट गुण समाप्त हो जाएँगे। परन्तु जैसा वर्तमान में पर्यावरणीय अध्ययनों में होता है।

नीरी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अलकनन्दा और मंदाकिनी नदियों के जल में भी यह विशिष्टताएँ विद्यमान हैं इसीलिये देवप्रयाग में ये गुण पुनः विद्यमान हो जाएँगे। परन्तु अब तो श्रीनगर में भी अलकनन्दा के प्रवाह क्षेत्र में बाँध बन गया है यानि की अलकनन्दा और मंदाकिनी के जो विशिष्ट गुण थे वह भी श्रीनगर बाँध की झील में समाप्त हो गए। इससे साफ़ है कि भागीरथी के प्रवाह क्षेत्र में टिहरी बाँध और अलकनन्दा के प्रवाह क्षेत्र में श्रीनगर बाँध के बन जाने के बाद गंगाजल की उस क्षमता का ह्रास हो गया जिसके कारण गंगा को पाप और रोगों का नाश करने वाली विलक्षण धारा माना जाता था।

जैसाकि आप सभी को पता ही होगा कि हरिद्वार से गंगाजल का लगभग 90 प्रतिशत भाग गंगनहर में डाल दिया जाता है जिससे उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली में सिंचाई एवं पेयजल की आपूर्ति की जाती है। गंगा की अपनी धारा में बहुत ही कम पानी रह जाता है और फिर हरिद्वार के मलजल शोधन संयंत्र (जगजीतपुर, कनखल) से शोधित-अशोधित मल-जल को गंगा में डाल दिया जाता है जहाँ से एक नई मलिन गंगा का बहाव नीचे की तरफ होता है।

उसके बाद गंगा में कई छोटी-बड़ी नदियाँ और धाराएँ मिलती हैं जिनमें भी अधिकांशतः या तो नगरों और कस्बों का अपमल होता है या फिर उद्योगों का अवजल। फिर उत्तर प्रदेश के नरोरा में बैराज बनाकर गंगा को नहर में पुनः डाल दिया जाता है। प्रयाग (इलाहाबाद) एवं वाराणसी में जो लाखों लोग प्रतिदिन स्नान करते हैं वह नगरों के अपमल एवं उद्योगों द्वारा गंगा में विसर्जित अवजल है क्योंकि गंगोत्री,बद्रीनाथ एवं केदारनाथ से आने वाले गंगाजल की मात्रा तो शायद ही वहाँ तक पहुँच पाती है।

अगले वर्ष 2019 में प्रयाग में पड़ने वाले महाकुम्भ की तैयारियाँ बड़े जोर-शोर से चल रही हैं जिसमें करोड़ों श्रद्धालुओं के साथ साधु-सन्त, महामण्डलेश्वर, शंकराचार्य सभी वहाँ एकत्रित होकर गंगा स्नान का पुण्य लाभ अर्जित करेंगे। तैयारी यही होगी कि मुख्य स्नान दिवसों पर टिहरी बाँध से पानी छोड़ा जाएगा। परन्तु एक बड़ा सवाल है कि छोड़े गए पानी का कितना भाग हरिद्वार एवं नरोरा कैनाल से होते हुए प्रयाग पहुँचेगा? कितना अवजल या मलिन जल उसमें मिला होगा? या फिर पिछले कुम्भ की भाँति शारदा नहर का भी सहारा लिया जाएगा।

यह मान भी लिया जाये कि टिहरी से छोड़ा गया कुछ जल प्रयाग पहुँच भी गया तो क्या उसमें गंगाजल का वह अद्वितीय गुण-धर्म होगा जिसके लिये वह जानी जाती है? ऐसा शायद ही हो क्योंकि अद्वितीय गुण-धर्म वाले कण तो टिहरी झील की तलहटी में समा गए हैं। तो क्या यह उन करोड़ों लोगों की आस्था के साथ छलावा नहीं होगा जो लम्बी-लम्बी यात्राएँ करके गंगा में डुबकी लगाने के लिये आते हैं? क्या उनके द्वारा श्रद्धा से अपने घर ले जाया गया जल स्वच्छ और निर्मल होगा जिसके लिये गंगा जानी जाती है।

भारत सरकार द्वारा संचालित स्वच्छ गंगा मिशन ‘नमामि गंगे’ में प्रमुख जोर मल-जल शोधन संयंत्रों (STPS) को बनाने पर है जबकि 1986 में भारतीय सरकार द्वारा चलाए गए गंगा एक्शन प्लान (GAP) की विफलताएँ सभी के सामने हैं। गंगा की सफाई बिना उसकी अविरलता की पुनर्बहाली के नहीं हो सकती है लेकिन लगता है सरकार इससे कोई सरोकार नहीं रखती। तभी तो गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बाँधों की स्वीकृति वाटरवेज का निर्माण की पहल की जा रही है।

प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी को देश का पहला पर्यावरण वैज्ञानिक माना जा सकता है आईआईटी कानपुर में पहली बार इन्होंने ही पर्यावरण अभियांत्रिकी पढ़ाना शुरु किया था। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के प्रथम सदस्य सचिव रहते हुए प्रदूषण नियंत्रण हेतु कानून/नियम बनाने, मानको के निर्धारणों, मापन तकनीकों के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यहाँ तक कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संरचना के विकास में भी इन्होंने अपना उल्लेखनीय योगदान दिया है।

लम्बे समय के बाद 2007 में जब प्रो. अग्रवाल का हिमालय की गंगा घाटी में जाना हुआ तो गंगा जी की दुर्दशा (विशेषकर बाँधों/जल विद्युत केन्द्रों) को देखकर उनका मन व्यथित हो उठा और उन्होंने गंगा जी की दशा ठीक करने हेतु अपने स्तर पर प्रयास करने शुरू कर दिये। परन्तु एक वर्ष तक विभिन्न स्तरों पर किये गए प्रयासों के बाद उन्हें महसूस हुआ कि न ही समाज, न सरकारें और न ही साधु-सन्त गंगा जी की दशा को लेकर गम्भीर हैं। इसके बाद उन्होंने जून 2008 में आमरण अनशन इसलिये प्रारम्भ किया कि आने वाली पीढ़ी कम-से-कम 100 किमी गंगोत्री से उत्तरकाशी तक गंगा जी को अपने नैसर्गिक रूप में देख सके।

मनेरी भाली प्रथम (उत्तरकाशी से 13 किमी ऊपर) से गंगा सागर तक गंगा कहीं भी अपने नैसर्गिक रूप में नहीं बची है। उनके लगातार (3 बार) आमरण अनशनरूपी तपस्या का प्रतिफल रहा कि उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच प्रस्तावित एवं निर्माणाधीन तीन परियोजनाओं पाला-मनेरी, भैरवघाटी एवं लोहारीनाग पाला को तत्कालीन राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार ने निरस्त कर दिया।

केन्द्र सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया। नेशनल रिवर गंगा बेसिन आथरिटी (NGRBA) का गठन किया गया साथ ही उत्तरकाशी से गंगोत्री तक के इलाके को इको सेंसिटिव जोन घोषित किया गया। यहाँ तक कि देश में नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह को लेकर जो सोच शुरू हुई यह डॉ. अग्रवाल जी की तपस्या का ही प्रतिफल है।

जब अलकनन्दा में श्रीनगर एवं विष्णुगाड़ पीपलकोटि तथा मंदाकिनी में फाटाव्योंग एवं सिंगोली-भटवारी जैसी परियोजनाएँ बनने लगीं तब उनका मानना था कि नीरी की रिपोर्ट में जो बात कही गई थी कि मंदाकिनी और अलकनन्दा में भी विशेष गुण है, अब तो वह भी श्रीनगर बाँध की झील में समा जाएँगे। गंगा के साथ हो रहे इस तरह के बर्ताव ने हमेशा उनके मन को बेचैन किया जिससे उन्हें बार-बार आमरण अनशन करना पड़ा।

प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी का यह मानना था कि देश के साधु-संत तथा धर्माचार्य ही गंगा की दशा सुधारने हेतु सरकारों को नियंत्रित एवं क्रियाशील रख सकते हैं। इसी सोच के साथ उन्होंने शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी से सन्यास की दीक्षा लेकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द का नाम धारण किया। इसके पीछे का मूल उद्देश्य यह था कि शंकराचार्यों, महामण्डलेश्वरों एवं साधु-सन्तों के बीच रहकर उन्हें गंगा संरक्षण हेतु प्रेरित करें और उन्हें इसके लिये सही रास्ता दिखा सकें।

2013 में स्वामी सानन्द जी के आमरण अनशन के दौरान जब उन्हें दून अस्पताल में रखा गया था तब पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी ने वृंदावन बुलाकर उनका उपवास समाप्त करवाया। साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि मोदी जी जब प्रधानमंत्री बन जाएँगे तब जो आपकी सोच गंगा के प्रति है जो आप चाहते हैं हम सभी पूर्ण कराएँगे। यहाँ तक कि कई राजनीतिक एवं प्रभावशाली व्यक्तियों ने जो गंगा के प्रति श्रद्धा भी रखते हैं तथा बीजेपी से भी जुड़े हैं, स्वामी सानन्द को आश्वासन दिया था कि बीजेपी की सरकार बनते ही आपकी माँगों को पूर्ण कराया जाएगा।

जब 2014 में चुनाव के समय वाराणसी में मोदी जी ने कहा कि मुझे माँ गंगा ने बुलाया है तो उनकी आशा बढ़ी कि मोदी जी गंगा संरक्षण हेतु प्रभावी कदम उठाएँगे। जब मोदी जी ने नया गंगा मंत्रालय बनाकर उसका प्रभार उमा भारती जी को दिया तब सानन्द जी की और भी आशाएँ बढ़ीं। परन्तु चार वर्ष बीत जाने के बावजूद भी गंगा की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तो स्वामी सानन्द उन सभी लोगों से मिले जिन्होंने गंगा को संरक्षित करने का उन्हें आश्वासन दिया था। उनसे मिलने के बाद स्वामी सानंद को यह पता चला कि आकाओं ने तो गंगा के संरक्षण के लिये कोई काम ही नहीं किया।

इससे स्वामी सानंद को घोर निराशा हुई और वे गंगा दशहरा 22 जून 2018 से आमरण अनशन रूपी तपस्या पर हैं। स्वामी जी जानते हैं कि जब तक गंगा के संरक्षण हेतु कड़े कानून नहीं बनेंगे तब तक उनकी दशा सुधर नहीं सकती है। उनका मानना है कि जो लोग गंगा को एक सामान्य नदी की तरह देखते हैं वे उनका संरक्षण नहीं कर सकते। गंगा को पवित्र धारा समझने वाले गंगा भक्त ही उनकी दशा को ठीक कर सकते हैं। इन्हीं बातों की ध्यान में रखते हुए उन्होंने इन चार माँगों को सरकार के समक्ष रखा है।

1. गंगा के लिये प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 पर तुरन्त संसद द्वारा चर्चा कराकर पास कराना (इस ड्राफ्ट के प्रस्तावकों में स्वामी सानन्द, एम.सी.मेहता और इ.परितोष त्यागी शामिल थे)। ऐसा न हो सकने पर उस ड्राफ्ट की धारा 1 से धारा 9 को अध्यादेश द्वारा तुरन्त लागू और प्रभावी कराया जाये।

2. अलकनन्दा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर तथा मन्दाकिनी पर सभी निर्माणाधिन/प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं को तुरन्त निरस्त करना।

3. प्रस्तावित अधिनियम की धारा 4 (D) वन कटान तथा 4 (F) व 4 (G) किसी भी प्रकार की गंगा में खुदान पर पूर्ण रोक तुरन्त लागू कराना विशेषतया हरिद्वार क्षेत्र में।

4. गंगा-भक्त परिषद का गठन, जो गंगा और केवल गंगा के हित में काम करने की शपथ गंगा में खड़े होकर लें।

स्वामी सानन्द की तपस्या अनशन प्रारम्भ होने के बाद उमा भारती, पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री भारत सरकार तथा नितिन गडकरी सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री, नौवहन एवं जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनरुद्धार मंत्री भारत सरकार के पत्र आये, जिनमें माँगों को लेकर कोई बात नहीं थी। उमा भारती अनशनरत स्वामी सानन्द जी से मिलने मातृसदन हरिद्वार भी आईं। इन सबसे ऐसा लग रहा है कि भारत सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती।

सरकार इस दम्भ में भी है कि वह जो कर रही है वही सही है। नमामि गंगे जैसी परियोजनाओं से गंगा का कोई भला नहीं होने वाला है। सरकार की यह दोहरी मानसिकता समझ से परे है एक तरफ गंगा में बाँधों की शृंखला खड़ी की जा रही है और जलमार्ग बनाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ नमामि गंगे जैसी असफल योजनाओं का ढोल पीटा जा रहा है।

खैर, स्वामी सानन्द जी 81 दिनों से अन्न फल त्याग कर सिर्फ जल के सहारे तपस्या में हैं यह गंगा माँ की कृपा ही है कि 86 वर्ष के होते हुए वे आज भी निराश एवं दुखी रूप में हमारे बीच हैं। इसी बीच में एम्स ऋषिकेश को अपनी देह दान करने हेतु कानूनी प्रक्रिया भी पूर्ण कर चुके हैं।

सरकार और समाज दोनों की आत्मा तो मर ही चुकी है। साधु-सन्त भी विलासिता के चक्कर में गंगा को भुलाकर अपनी आत्मा को मार चुके हैं। गंगा की यह दुर्दशा और ऋषि वैज्ञानिक स्वामी सानन्द की तपस्या व्यर्थ नहीं जाएगी। सरकारों, समाज एवं साधु सन्तों को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। गलती सुधारने का अभी भी मौका है आगे शायद मौके भी न मिलें।

 

 

 

TAGS

swami gyanswaroop sanand, fast unto death, pandit madanmohan malviya, haridwar meeting 1916, research done by iit kanpur in 1974-75, institute of microbial technology chandigarh, national environmental engineering research institute, institute of microbial technology chandigarh admissions, imtech chandigarh mtcc, imtech chandigarh phd 2018, imtech chandigarh summer training, imtech chandigarh recruitment 2017, imtech chandigarh guest house, imtech chandigarh summer training 2018, imtech chandigarh address, centrifuge diagram, centrifuge uses, laboratory centrifuge, centrifuge principle, types of centrifuge, centrifuge how it works, centrifuge machine, parts of centrifuge and its function, national environmental engineering research institute recruitment 2017, neeri nagpur recruitment 2018, neeri nagpur address, neeri nagpur internship, neeri res content recruitment, neeri recruitment 2018, neeri nagpur internship 2018, neeri internship 2018.

 

 

 

Path Alias

/articles/gangaa-kae-laiyae-tadapataa-rsai-vaaijanaanaika

Post By: editorial
×