एक ओर गंगा को लेकर सरकार और समाज की चिंताएं सातवें आसमान पर हैं, दूसरी तरफ इसी मुद्दे को लेकर 19 फरवरी से अनशन कर रहे एक युवा संन्यासी की ओर सबका ध्यान तब गया, जब उन्होंने इस संसार को छोड़ कर चले गए। हालत बिगड़ने पर प्रशासन ने उन्हें गिरफ्तार कर जिला अस्पताल में ला पटका। उन्हें राज्य के एक बड़े अस्पताल में करीब 10 दिन पहले तब दाखिल किया गया, जब उनके बच पाने की उम्मीद नहीं थी। हरिद्वार के स्वामी निगमानंद भले ही कोई ग्लैमरस बाबा नहीं थे, लेकिन गंगा को लेकर उन्होंने जो मुद्दे उठाए थे, वे बुनियादी और गंभीर थे। हरिद्वार में गंगा अपनी गति और त्वरा को नियंत्रित कर देती है। पहाड़ों में अठखेलियां करती उसकी चंचल छवि यहां पहुंचकर एक शांत, गंभीर और लोकमंगलकारी सरिता में परिवर्तित हो जाती है। हरिद्वार ही वह स्थल है, जहां से सिंचाई के लिए गंगा में नहरें निकाली जाती हैं। टिहरी बांध से दिल्ली को मिलने वाले तीन सौ क्यूसेक पेयजल की आपूर्ति भी हरिद्वार से ही प्रारंभ होती है।
लेकिन हरिद्वार में ही गंगा के तट मिट्टी, पत्थर और रेत-बजरी के लिए बुरी तरह खुरचे जाते हैं। अबाध और अवैध खनन के कारण यहां पहुंचकर गंगा अपने तटों को तोड़-फोड़कर कहीं भी और कभी भी अनियंत्रित हो जाती है। हरिद्वार में निर्मित स्नान घाटों के अलावा उसका कोई तट अपने प्राकृतिक स्वरूप में शेष ही नहीं बचा है। गढ़मुक्तेश्वर से लेकर पटना तक हर साल गंगा में आने वाली प्रलयंकारी बाढ़ की भूमिका भी हरिद्वार में ही बन जाती है। इसके लिए वही अंधाधुंध खनन उत्तरदायी है, जिसके विरुद्ध निगमानंद अनशन कर रहे थे। खनन का एक और घातक पहलू यह है कि मैदानी भूमि को उर्वर बनाने के लिए प्राकृतिक खनिज और रसायनों का वितरण भी गंगा यहीं से शुरू करती है। पहाड़ों से बहकर आए खनिज और रसायन यहां उसके तटों पर स्थित बड़े पत्थरों और चट्टानों में ठिठककर अपने प्रसंस्करण की क्रिया प्रारंभ करते हैं। लेकिन अंधाधुंध खनन से यह नैसर्गिक प्रसंस्करण प्रणाली छिन्न-भिन्न हो रही है।
गंगा के पठारों में कृषि उत्पादन घटने का यह एक प्रमुख, पर अनचिन्हा कारण है। इस मामले में उत्तराखंड में एक के बाद एक आई सरकारों की संवेदनहीन भूमिका भी उतनी ही जिम्मेदार है। नया राज्य बनने के बाद देहरादून और हरिद्वार में निर्माण कार्यों में अस्वाभाविक उछाल आया है। इन कार्यों में बड़े-बड़े भूमाफिया और बिल्डर संबद्ध हैं और राजनीतिक दलों के लिए वे गंगा से भी अधिक दुधारू कामधेनु की तरह हैं। यही कारण है कि गंगा समेत उत्तराखंड की सभी नदियों पर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा खनन पर रोक लगाए जाने पर यहां के सभी दलों के प्रतिनिधियों ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री से मुलाकात कर खनन बंद होने पर विकास अवरुद्ध होने की दुहाई दी थी। यहां नदियों पर अंधाधुंध खनन दो कमरे का मकान बनाने के लिए नहीं, बल्कि बहुमंजिला कॉम्पलेक्स, होटल और मॉल बनाने के लिए हो रहा है। हरिद्वार और उसके आसपास हो रहे खनन की एक परिणति यह भी है कि पानी पीने के स्वाभाविक स्थलों के उजड़ने के कारण हाथी आए दिन बौखलाकर राह चलते लोगों को मार रहे हैं।
उत्तराखंड के गठन के बाद आम जनता के हितों के लिए अनशन कर प्राण त्यागने का यह दूसरा उदाहरण है। इससे पहले 2004 में गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को लेकर बाबा मोहन उत्तराखंडी ने अनशन कर प्राण त्यागे थे। इस पूरे प्रकरण में समाज की भावशून्यता भी गंभीर चिंता उपजाती है। एक ओर गंगा रक्षण के मुद्दे पर एक संन्यासी अपनी देह को तिल-तिल कर गलाता रहा, दूसरी ओर गंगा को लेकर हरिद्वार और उसके आसपास सभा सम्मेलन, जुलूस, भंडारे और उत्सव होते रहे। किसी का भी ध्यान अनशनकारी संत और उनके द्वारा उठाए गए प्रश्नों की ओर नहीं गया। बाबा रामदेव के अनशन के दौरान राज्य सरकार उनके आगे एक पांव पर खड़ी हो गई थी, क्योंकि वहां साउंड, कैमरा, एक्शन, डायलॉग सब कुछ था। लेकिन प्रचार-प्रसार की दृष्टि से श्रीहीन और कांतिहीन निगमानंद की सुध-बुध लेने वाला कोई न था। राज्य सरकार ‘स्पर्श गंगा’ अभियान चला रही है और इसका ब्रांड एंबेसेडर हेमा मालिनी को बनाया गया है। राम! तेरी गंगा कब तक मैली रहेगी?
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