एक युवा संन्यासी ने गंगा के लिए अनशन करके प्राण दे दिए, उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि गंगा को पहले की तरह निर्मल कर दिया जाए।
जिस वक्त बाबा रामदेव देहरादून में भीड़ और मीडिया के हुजूम के सामने अपना नौ दिन पुराना अनशन तोड़ रहे थे, उसी वक्त उसी अस्पताल में एक युवा संन्यासी स्वामी निगमानंद लगभग चार महीने के अनशन की वजह से मौत की ओर बढ़ रहे थे। स्वामी निगमानंद की उम्र 34 वर्ष थी और वह गंगा में अवैध खनन के विरोध में 19 फरवरी से भूख हड़ताल पर थे। उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी का राज है। जाहिर है, स्वामी निगमानंद की मृत्यु से कांग्रेस को भाजपा की आलोचना करने का एक कारण मिल गया है। राजनैतिक बयानबाजी तो इस घटना पर होती रहेगी, लेकिन यह घटना बताती है कि किसी सच्चे उद्देश्य से अगर कोई अनशन बिना ढोल-नगाड़े के किया जाए, तो सत्तासीन वर्ग उसके प्रति कितना संवेदनहीन होता है।
भाजपा ने स्वामी रामदेव के अनशन को लेकर आसमान सिर पर उठा लिया, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज देहरादून जाकर उनके समर्थन में प्रेस कांफ्रेंस भी कर आईं, लेकिन स्वामी निगमानंद के बारे में जानने की शायद न उन्होंने कोशिश की, न उनकी पार्टी के स्थानीय नेताओं को यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण लगा। कांग्रेस को भी उनकी सुध मृत्यु के बाद ही आई है। यह भी उल्लेखनीय है कि भाजपा अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में गंगा को एक मुद्दा बनाना चाहती है। उमा भारती के भाजपा में लौट आने से उनके इस मुद्दे के समर्थन में धुआंधार प्रचार करने की संभावना है। उमा भारती उत्तराखंड के श्रीनगर के एक मंदिर को डूब से बचाने के लिए सफल आंदोलन भी कर चुकी हैं, लेकिन वह भी स्वामी निगमानंद को बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाईं। दरअसल, गंगा की पवित्रता की कसम खाने वाली तमाम राजनैतिक पार्टियों का रवैया जमीनी स्तर पर एक-सा है। उत्तराखंड में अवैध खनन माफिया को मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण हो या फिर पनबिजली परियोजनाओं का गोलमाल, इसमें किसी एक पार्टी को दोष नहीं दिया जा सकता।
उत्तराखंड ही नहीं, सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार का रवैया ऐसा ही है। गंगा के प्रदूषण के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करना इसलिए असंभव है, क्योंकि उनसे सत्ताधारियों के राजनैतिक और आर्थिक हित जुड़े हैं। गंगा की सफाई के लिए जो योजनाएं बनती हैं, वे भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का शिकार हो जाती हैं। अब तक की सबसे बड़ी योजना गंगा एक्शन प्लान का हश्र सबके सामने है। लगभग बीस वर्षों बाद और दो हजार करोड़ रुपये खर्च करके यह मालूम हुआ कि योजना की शुरुआत में गंगा जितनी प्रदूषित थी, अब उससे कहीं ज्यादा प्रदूषित हो गई है। अब 7,000 करोड़ रुपये की एक विशाल योजना गंगा की सफाई के लिए शुरू की गई है, जिसमें विश्व बैंक आर्थिक व तकनीकी सहयोग देगा।
यह योजना सफल हो सकती है, बशर्ते उसमें वही गलतियां न दोहराई जाएं, जो गंगा एक्शन प्लान में की गई थीं। सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि इसके तहत हर परियोजना की व्यावहारिकता की जांच हो और इसके लिए जवाबदेही तय हो। ऐसा न हो कि प्रदूषित पानी की सफाई के लिए संयंत्र लगें और उसे प्रदूषित पानी के स्नोत से जोड़ने के लिए नालियां न बनें, जैसा कि गंगा एक्शन प्लान में हुआ। गंगा की सफाई बहुत लंबा और श्रमसाध्य कार्य है और यह काम तभी सफल हो सकता है, जब इसके पीछे दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति हो। अगर सरकारें प्रदूषण करने वाले उद्योगों, खनन माफियाओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के दबाव में काम करती रहीं, तो ये 7,000 करोड़ रुपये भी उसी तरह प्रदूषित पानी में बह जाएंगे, जैसे गंगा एक्शन प्लान में रुपये बह गए। हम सब स्वामी निगमानंद के प्रति लापरवाही के अपराधी हैं। अगर हम गंगा को साफ कर सके, तो शायद इस अपराध का बोझ कम हो
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