दिल्ली स्थित एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक द्वारा जारी 'गंगा नदी के किनारे माइक्रोप्लास्टिक्स का मात्रात्मक विश्लेषण' नामक एक नए अध्ययन में आज पाया गया कि नदी माइक्रोप्लास्टिक से बहुत अधिक गंदी हो गई है।इस अध्ययन के परिणामों से हरिद्वार, कानपुर और वाराणसी में नदी से लिए गए सभी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक पाया गयाहै। यह पाया गया है कि नदी का पानी कई प्रकार के प्लास्टिक से गंदी हो गई है, जिसमें एक बार इस्तेमाल होने वाले और लास्टिक से बनने वाले सेकेंडरी उत्पाद शामिल हैं, इसकी सबसे अधिक मात्रा वाराणसी में पाई गई है। नदी के किनारे कई शहरों से गैर-शोधित सीवेज, औद्योगिक कचरे और बिना गलने वाले प्लास्टिक में लिपटे धार्मिक प्रसाद से नदी में भारी मात्रा में प्रदूषक मिल रहे हैं क्योंकि यह ऐसे कई शहरों से होकर बहती है जो घनी आबादी वाले हैं। प्लास्टिक उत्पादों और कचरे को नदी में छोड़ दिया या फेंक दिया जाता है और जो आखिरकार छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल जाते हैं और नदी अंततः बड़ी मात्रा में इन कचरों को नीचे समुद्र में ले जाती है जो मनुष्यों द्वारा उपयोग किए जा रहे सभी प्लास्टिक का अंतिम सिंक है। टॉक्सिक्स लिंक की मुख्य समन्वयक प्रीति महेश ने कहा कि “निश्चित तौर पर सभी माइक्रोप्लास्टिक नदी में बह रहे हैं। यह ठोस और तरल कचरा प्रबंधन दोनों की खराब स्थिति के बीच सीधे संबंध को दर्शाता या बताता है, इसलिए इसे ठीक करने के लिए कदम उठाना जरूरी है।
हरिद्वार, कानपुर और वाराणसी में नदी से पानी के पांच नमूने इक ट्रा कर गोवा में राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (National Institute of Oceanography) के सहयोग से नदी के पानी की जांच की गई है। सटीक प्रकार या मुख य गाद की पहचान केलिए एफ टी आई आर के माध्यम से नमूनों की जांच की गई और परिणाम दर्शाते हैं कि गंगा के पानी में माइक्रोप्लास्टिक के तौर पर महत्वपूर्ण रूप से 40 अलग-अलग प्रकार के पॉलिमर मौजूद हैं। सभी तीनों स्थानों में ईवीओएच, पॉलीएसिटिलीन, पीआईपी, पीवीसी और पीवीएएल जैसे रेजिन भारी मात्रा में मौजूद थे। देखे गए रेजिन के आकार और प्रकृति रेशे से लेकर टुकड़े, पतली झिल ली और मोती के दाना जैसे थे। सभी स्थानों में सबसे अधिक टुकड़ों के आकार के रेजिन थे जिसके बाद पतली झिल्ली और मोती के दाना जैसे रेजिन पाए गए। अन्य दो शहरों की तुलना में वाराणसी में गंगा नदी में सबसे अधिक माइक्रोप्लास्टिक पाई गई। परिणाम की बात करें तो जहां हरिद्वार में माइक्रोप्लास्टिक गंदगी की मात्रज्ञ कम है तो वह नदी के वाराणसी तक पहुंचने पर और गंदगी दर्शा रहे हैं। वाराणसी और कानपुर में एकदम छोटे-छोटे दाने देखे गए जबकि हरिद्वार में कोई दाने नहीं पाया गया। एनआईओ के प्रमुख अनुसंधानकर्ता डॉ. महुआ साहा ने बताया कि "वाराणसी और कानपुर की तुलना में हरिद्वार में एमपी/मी (1.30+0.5148) की संख्या सबसे कम थी। सभी नमूनों में सबसे अधिक <300um आकार पाए गए।
गंगा में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के कई प्रभाव हो सकते हैं, क्योंकि इसके पानी का उपयोग कई तरह के कामों के लिए किया जाता है, जिससे पर्यावरण के साथ-साथ इंसान के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। नदी अपने किनारे बसे शहरों के लिए पीने के पानी का प्रमुख स्रोत है और माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण एक चिंता का कारण है। हालांकि वर्तमान में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है, लेकिन इस तथ्य को जानना और ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्लास्टिक में कई प्रकार के एडिटिव्स और रसायन होते हैं जो ज्ञात जहरीले पदार्थ हैं जो पानी में मिल सकते हैं। दुनिया भर के विभिन्न संस्थानों के अनुसंधान भी बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक फिल्टर सिस्टम से गुजर कर अंत में हमारे शरीर में जा सकते हैं। फेंक दिए गए लास्टिक कचरे समुद्री पानी को गंदा कर देते हैं जिससे समुद्री जीवन और उस पर निर्भर रहने वाले जीवों को गंभीर परिणाम भुगतना पड़ता है और समुद्री जीवों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक को खाने की वजह से खाद्य जाल प्रभावित हो रहा है। समुद्री कचरों के कारण 663 से अधिक प्रजातियों पर गलत प्रभाव पड़ा है और इनमें से 4% केवल माइक्रोप्लास्टिक खाने से संबंधित है। ये माइक्रोप्लास्टिक नदी से निकलकर समुद्रों में जा रहे हैं जिससे कारण समुद्री जीवन और खाद्य जाल में गंभीर खतरा या असंतुलन पैदा हो सकता है।
हालांकि देश में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम लागू है, लेकिन उसको सही तरीके से लागू नहीं किया गया है। प्लास्टिक को लागू करने में सुधार के साथ-साथ सिंगल यूज़ वाले प्लास्टिक पर सख्त प्रतिबंध लगाना बहुत जरूरी है। इसके साथ ही, माइक्रोप्लास्टिक और हमारी नदियों पर उनके प्रभावों पर अधिक डेटा और शोध की आवश्यकता है। टॉक्सिक्स लिंक के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा ने कहा कि
हमें जलीय जीवन पर प्लास्टिक के खतरे को अधिक वास्तविक रूप से देखने और भविष्य को ध्यान में रखते हुए इससे निपटने की जरूरत है। उद्योग, सरकार, नागरिक समाज संगठनों सहित विभिन्न दावेदारों को प्लास्टिक कचरा प्रबंधन में सुधार और बाद में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण में कमी के लिए हाथ मिलाने की जरूरत है।
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