हिन्दी के प्रसिद्ध कवि निलय उपाध्याय ने गंगोत्री से गंगा सागर तक की 2500 किलोमीटर की यात्रा पैदल और साइकिल से की। इस यात्रा के दौरान उन्होंने गंगा के ‘माँ’ होने और गंगा के ‘जल संसाधन’ होने की समझ के बीच की दूरी को देखा और महसूस किया। प्रस्तुत है उनके यात्रा-वृत्तांत का एक अंश-
अंग्रेज आए तो आरम्भ हुई गंगा की बर्बादी की वह दास्तान जिसने उसे मौत के मुहाने तक पहुँचा दिया। अंग्रेजों की नजर हिमालय की सम्पदा पर थी। गंगोत्री के इलाके में पहाड़ी लोगों का राज था। अंग्रेजों ने टिहरी के राजा से कहा कि जितना कहो लड़ने के लिए सेना हम देते हैं, तुम जीत कर यहाँ का राजा बनो। जीत के बाद विल्सन नाम के अंग्रेज ने राजा से इस पूरे इलाके को मात्र छ: हजार रुपए में सलाना लीज पर ले लिया। जानवरों की खाल और माँस का व्यापार बड़े पैमाने पर किया। बहुत रक्तपात हुआ हिमालय में। हिमालय से लकड़ी काट कर गंगा की धारा में डाल दी जाती। गंगा उसे हरिद्वार पहुँचा देती। हिमालय खाली हो गया। हरिद्वार में गंगा को विभाजित कर उसका साठ प्रतिशत जल दिल्ली ले जाया गया। अंग्रेजों की सत्ता के साथ गंगा का यही रिश्ता था।
अब हम आजाद हैं। देश आजाद है। चुनी हुई है सरकार हमारी। मगर गंगा में पानी फिर भी नहीं रहता। ऐसा क्यों है? पहाड़ में भी बाँधों के ही दर्शन होते हैं। परिणाम क्या है, आप जाकर टिहरी के आस-पास के किसी गाँव को देख सकते हैं। विल्सन की तरह ही हमारी सरकार अब वहाँ के लोगों के खाल और माँस का व्यापार कर रही है। अब भी गंगा विल्सन की है और देश भी उसी विल्सन का है। राजा ने छह हजार की सालाना लीज पर दिया था। हमारे राजा साहब एक-एक मेगावाट बिजली के उत्पादन की मन्जूरी देने के लिए कम्पनियों से एक करोड़ लेते थे, यह जाने कब की बात है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनके आगमन से इस इलाके का चिराग ही बुझ गया।
सच कहें तो अभी हम उस स्थिति में हैं भी नहीं कि गंगा की अविरलता की बात भी कर सकें। हमारे महानगरों की बिजली की जरूरत और बहुत सारी जरूरतें ऐसी बन गई हैं कि जो सिस्टम चल रहा है, उसे आप रोक नहीं सकते। सभी ठान भी लें कि गंगा अविरल होगी, तब भी इस देश की सरकार को और शहरों को, गंगा के ऊपर अपनी निर्भरता कम करने और उन्हें खत्म करने में वर्षों लग जाएँगे।
चार महीनों तक गंगा के साथ रहा। गंगा के साथ-साथ चलने की साध मन में रही। यह देख हूक-सी उठी कि गंगा सागर जाते-जाते गंगा की ताकत इतनी कम हो जाती है कि वह अपने पाँव चल कर समुद्र तक पहुँच नहीं सकती। समुद्र पानी का धर्म निबाहता है, खुद आकर उसे ले जाता है।
स्वर्ग लोक की ऊँचाईयों से मृत्यु लोक तक यानी गंगोत्री से हरिद्वार तक, मृत्यु लोक से पाताल लोक तक यानी हरिद्वार से राजा बलि की नगरी बलिया तक, मंदराचल तक था पाताल लोक तक बलिया से समुद्र तक...
तीन लोकों की यात्रा करते हुए, गंगा के अनगिनत संकटों को प्रवृत्तियों की तरह देखने के बाद मुझे मूलत: पाँच संकट नजर आए। सफाई मूल संकट नहीं है। गंगा का पहला संकट है बंधन।
यह मैं बता चुका हूँ कि देश गुलाम था, यहाँ के लोग भी गुलाम थे। अंग्रेजों ने गंगा के साथ वही सलूक किया जो यहाँ के लोगों के साथ किया। दुख इस बात की है कि गंगा के साथ सरकार का अंग्रेजों वाला रिश्ता आज भी जस की तस है। हमने तो आगे बढ़कर बिजली परियोजना के लिए गंगा को बाँध दिया और देश की धरती से वह मिट्टी छीन ली जिसमें सोना उपजता था।
अब कोई लड़की गंगा होना नहीं चाहती। गंगोत्री से हरिद्वार तक की यात्रा में गंगा बस गंगनानी के ऊपर ही दिखती है। इसके बाद गंगा का दर्शन तो बस झील दर्शन है। केदारनाथ और बद्रीनाथ की राह पर भी बाँधों के ही दर्शन होते हैं। जो यात्री जाते हैं, वहाँ का अतीत सुनते हैं और बस लौट कर आते हैं। मन ही मन कोसते हैं कि हमारी गंगा को झील में बदल दिया गया। इस बंधन के घाटे का आँकलन नहीं हो सकता। बस एक मात्र लाभ है कि हमें बिजली मिलती है। वहीं एक लाभ के बदले कई घाटे हैं-
1. गंगा की मिट्टी जो हिमालय से चलती है, बाँध में जाकर रुक जाती है और यू.पी.-बिहार के किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता।
2. टनल से गुजरते समय गंगा के जल को पानी और धूप नहीं मिलती।
3. झील में जाकर पानी रुक जाता है और बाहर निकलने के लिए कम्पनी के मालिक की ओर एक टक देखता रहता है। और गंगा का पानी प्रदूषित होता रहता है।
4. प्रोटेक्सन वॉल न होने के कारण पानी पहाड़ में रिस कर जाता है। कई गाँव इसमें समा चुके हैं। इससे भी खतरनाक खबर है कि हिमालय की कापर प्लेट गल चुकी है।
इससे हिमालय का इलाका भी खतरे में है। गाँव लगभग खाली हो चुके हैं। अकेले टिहरी में इतना पानी जमा है कि अगर पानी निकला तो ऐतिहासिक हादसे का कारक होगा। हरिद्वार तिनके की तरह बह जाएगा। दिल्ली भी नहीं बचेगी। यह भूकम्प क्षेत्र है, यह जानते हुए भी ये बाँध बनाए गए। इसे बनाने वालों को दाद देनी पड़ेगी, जिन्होंने विस्थापितों की सूची में पाईलट बाबा का नाम डाल दिया।
बहरहाल क्या हुआ, कैसे हुआ, यह सोचने के बजाय, जो हो चुका उसे भूल कर, अब नए बाँधों की मन्जूरी नहीं देनी चाहिए। पुराने बाँधों को धीरे-धीरे चरणबद्ध ढँग से खाली कर देना चाहिए।
वहीं हिमालय की इन वादियों में हवाएँ बहुत तेज चलती हैं, इसके अलावे बिजली का वैकल्पिक साधन सौर उर्जा हो सकती है। पिछले साल के हादसे से अगर यह सबक नहीं लिया गया, तो इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं।
इसलिए गंगा के पथ और प्रवाह को समझना जरूरी है। हरिद्वार से वाराणसी तक गंगा प्रति कोस बारह इन्च ढ़लान के साथ बहती है। वाराणसी से भागलपुर तक 10 इन्च और 8 इन्च, 6 इन्च घटती चली जाती है। गंगा के जल को समुद्र में गिरा देना चालाकी नहीं है, इसलिए पानी का एक मानक तल बनाया जाना चाहिए और उसके तल के अनुसार इस तरह पानी निकालने की योजना बनाई जानी चाहिए कि गंगा में सालों भर पानी की निश्चित मात्रा रहे। अगर गंगा को यातायात का साधन बना दिया जाए तो सड़कों का बोझ कम हो सकता है और नदी में जल के साथ प्रवाह भी रहेगा।
हम गंगा के संकट की बात करते हैं तो सिर्फ गंगा ही नहीं, उन तमाम नदियों के संकट की बात करते हैं जो गंगा में आकर मिलती हैं। गंगा में प्रदूषण मूल रूप से कन्नौज से बनारस के बीच है। इसके चार कारक हैं- जल की कमी, सहायक नदियाँ, नगर और उद्योग तथा धार्मिक क्रिया-कलाप।
अगर गंगा में जल की निश्चित मात्रा रहे तो वह बहाव के कारण, मिट्टी और हवा के कारण अपने को खुद एक हद तक स्वच्छ कर सकती है। मगर जिस आपाधापी में गंगा के किनारे नगर बसाए गए, उद्योग लगाए गए, उसके जल के निकास के लिए आज भी हमारे पास कोई नीति नहीं है।
शहर और उद्योगों से प्राप्त गन्दे जल को प्रत्येक शहर में नगरपालिका को सुपुर्द कर दिया जाए। वहाँ ऐसी योजना बनाई जाए कि उसे उर्वरक के रूप में बदल कर आस-पास के खेतों में उसका इस्तेमाल किया जाए। सफाई का मानक तय कर ही पानी को गंगा या किसी नदी में गिराया जाए।
बनारस के बाद गंगा में प्रदूषण नहीं होता लेकिन जल का कचरा जमता जाता है। गंगा के पास इतना पानी नहीं रहता कि वह अपने जल से उस गाद को बहा सके। इसके फलस्वरूप नदी के बीच गाद जम जाती है। वह किनारे से होकर बहने लगती है। गंगा का पाट चौड़ा होता जाता है। वह कई धराओं में बंट जाती है और कटाव होने लगता है।
कटाव के कारण हजारों गाँव के लोग विस्थापित होते हैं। गाद पर दियारा क्षेत्र बनता है, जो अपराधियों का स्वर्ग बन जाता है। नदी के तट पर बोल्डर गिराने के बजाय उसके गर्भ को साफ कर दिया जाए तो नदी अपनी मूल धारा में रहेगी। गंगा गर्भ, गंगा तट और गंगा क्षेत्र का सीमांकन किया जाना चाहिए। यह सच्चाई है कि बाढ़ में भी नदी उसी जगह तक जाती है, जहाँ कभी उसकी धारा थी।
झारखंड के दो जिले साहेबगंज और राजमहल गंगा तट पर बसे हैं। यहाँ गंगा का प्रवाह प्रति कोस आठ इन्च है। इस इलाके में हजारों क्रशर मशीन लगे हैं। पत्थर तो बेच देते हैं मगर मिट्टी बारिश में बह कर गंगा में समा जाती है। इस भराव और फरक्का बाँध के कारण पानी नहीं निकल पाता और बाढ़ आती है तो बिहार को डूबा जाती है।
इस इलाके से क्रशर उद्योग को हटा देना चाहिए। अगर जरूरी हो तो मिट्टी का भी अलग उपयोग किया जाना चाहिए ताकि मिट्टी गंगा में न जा सके। फरक्का बाँध बनाने के बाद, वह इन्जीनियर जिसने बाँध बनाया था, आज यह बयान दे रहा है कि फरक्का में यह नहीं बनना चाहिए था। यह गलत हुआ, किन्तु उसे गलत कहने वाला इन्जीनियर गुमनाम जिन्दगी जीकर मर गया। हल्दिया की भी वही स्थिति हो गई है जो उसके पहले के बंदरगाह हुगली की थी।
गंगा मुक्त हो, समुद्र से इसका सीधा सम्बन्ध हो तो, नदी में जलीय जीवों की सम्भावना बढ़ेगी, इससे भी रोजगार सृजित होगा। समय के साथ रोजगार बढ़ सकते हैं। यह समस्या मेरी है और समाधन भी मेरा है। मेरे भीतर एक चाहत है कि गंगा इस तरह की होनी चाहिए और इसके कारण भी साफ हैं।
यही जानने के लिए मैं एक-एक कदम चल कर गया था। गंगा ने मुझे बताया कि यह नदी का संकट ही नहीं, बल्कि हमारा संकट है। हमारी सभ्यता का संकट है। जिसकी सभ्यता पराजित हो जाए, वे तो संकट में होंगे ही।
हमारी अर्थव्यवस्था में सिर्फ बिजली पैदा कर गंगा जितना योगदान कर रही है, उससे कई गुना ज्यादा योगदान कर सकती है। सवाल उस दृष्टिकोण का है कि गंगा को किस नजरिए से आप देख रहे हैं।
प्रश्न उठता है कि गंगा का असल संकट क्या है? आप फल खाना चाहते हैं कि पेड़ खाना चाहते हैं? जल पीना चाहते हैं या नदी पीना चाहते हैं? आप गंगा के बेटे हैं या सफाई के नाम पर कमाई करने वाले लुटेरों के? गंगा के बारे में सोचने का आपका दृष्टिकोण क्या है? वस्तुत: गंगा के लोकतन्त्र का नाम सहजीवन है। और आपके लोकतन्त्र का क्या नाम है?
प्रकृति के आंगन में अगर जनतन्त्र की बात होती है, तो मेरा उससे कोई वास्ता नहीं है। क्योंकि वह लोकतन्त्र नहीं है, लोक सिर्फ जन से नहीं बनता। मुझे चाहिए गंगा का एक-एक बूँद जल अविरल।
(लेखक हिन्दी के जाने माने कवि हैं। गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा की है।)
अंग्रेज आए तो आरम्भ हुई गंगा की बर्बादी की वह दास्तान जिसने उसे मौत के मुहाने तक पहुँचा दिया। अंग्रेजों की नजर हिमालय की सम्पदा पर थी। गंगोत्री के इलाके में पहाड़ी लोगों का राज था। अंग्रेजों ने टिहरी के राजा से कहा कि जितना कहो लड़ने के लिए सेना हम देते हैं, तुम जीत कर यहाँ का राजा बनो। जीत के बाद विल्सन नाम के अंग्रेज ने राजा से इस पूरे इलाके को मात्र छ: हजार रुपए में सलाना लीज पर ले लिया। जानवरों की खाल और माँस का व्यापार बड़े पैमाने पर किया। बहुत रक्तपात हुआ हिमालय में। हिमालय से लकड़ी काट कर गंगा की धारा में डाल दी जाती। गंगा उसे हरिद्वार पहुँचा देती। हिमालय खाली हो गया। हरिद्वार में गंगा को विभाजित कर उसका साठ प्रतिशत जल दिल्ली ले जाया गया। अंग्रेजों की सत्ता के साथ गंगा का यही रिश्ता था।
अब हम आजाद हैं। देश आजाद है। चुनी हुई है सरकार हमारी। मगर गंगा में पानी फिर भी नहीं रहता। ऐसा क्यों है? पहाड़ में भी बाँधों के ही दर्शन होते हैं। परिणाम क्या है, आप जाकर टिहरी के आस-पास के किसी गाँव को देख सकते हैं। विल्सन की तरह ही हमारी सरकार अब वहाँ के लोगों के खाल और माँस का व्यापार कर रही है। अब भी गंगा विल्सन की है और देश भी उसी विल्सन का है। राजा ने छह हजार की सालाना लीज पर दिया था। हमारे राजा साहब एक-एक मेगावाट बिजली के उत्पादन की मन्जूरी देने के लिए कम्पनियों से एक करोड़ लेते थे, यह जाने कब की बात है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनके आगमन से इस इलाके का चिराग ही बुझ गया।
सच कहें तो अभी हम उस स्थिति में हैं भी नहीं कि गंगा की अविरलता की बात भी कर सकें। हमारे महानगरों की बिजली की जरूरत और बहुत सारी जरूरतें ऐसी बन गई हैं कि जो सिस्टम चल रहा है, उसे आप रोक नहीं सकते। सभी ठान भी लें कि गंगा अविरल होगी, तब भी इस देश की सरकार को और शहरों को, गंगा के ऊपर अपनी निर्भरता कम करने और उन्हें खत्म करने में वर्षों लग जाएँगे।
चार महीनों तक गंगा के साथ रहा। गंगा के साथ-साथ चलने की साध मन में रही। यह देख हूक-सी उठी कि गंगा सागर जाते-जाते गंगा की ताकत इतनी कम हो जाती है कि वह अपने पाँव चल कर समुद्र तक पहुँच नहीं सकती। समुद्र पानी का धर्म निबाहता है, खुद आकर उसे ले जाता है।
स्वर्ग लोक की ऊँचाईयों से मृत्यु लोक तक यानी गंगोत्री से हरिद्वार तक, मृत्यु लोक से पाताल लोक तक यानी हरिद्वार से राजा बलि की नगरी बलिया तक, मंदराचल तक था पाताल लोक तक बलिया से समुद्र तक...
तीन लोकों की यात्रा करते हुए, गंगा के अनगिनत संकटों को प्रवृत्तियों की तरह देखने के बाद मुझे मूलत: पाँच संकट नजर आए। सफाई मूल संकट नहीं है। गंगा का पहला संकट है बंधन।
यह मैं बता चुका हूँ कि देश गुलाम था, यहाँ के लोग भी गुलाम थे। अंग्रेजों ने गंगा के साथ वही सलूक किया जो यहाँ के लोगों के साथ किया। दुख इस बात की है कि गंगा के साथ सरकार का अंग्रेजों वाला रिश्ता आज भी जस की तस है। हमने तो आगे बढ़कर बिजली परियोजना के लिए गंगा को बाँध दिया और देश की धरती से वह मिट्टी छीन ली जिसमें सोना उपजता था।
अब कोई लड़की गंगा होना नहीं चाहती। गंगोत्री से हरिद्वार तक की यात्रा में गंगा बस गंगनानी के ऊपर ही दिखती है। इसके बाद गंगा का दर्शन तो बस झील दर्शन है। केदारनाथ और बद्रीनाथ की राह पर भी बाँधों के ही दर्शन होते हैं। जो यात्री जाते हैं, वहाँ का अतीत सुनते हैं और बस लौट कर आते हैं। मन ही मन कोसते हैं कि हमारी गंगा को झील में बदल दिया गया। इस बंधन के घाटे का आँकलन नहीं हो सकता। बस एक मात्र लाभ है कि हमें बिजली मिलती है। वहीं एक लाभ के बदले कई घाटे हैं-
1. गंगा की मिट्टी जो हिमालय से चलती है, बाँध में जाकर रुक जाती है और यू.पी.-बिहार के किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता।
2. टनल से गुजरते समय गंगा के जल को पानी और धूप नहीं मिलती।
3. झील में जाकर पानी रुक जाता है और बाहर निकलने के लिए कम्पनी के मालिक की ओर एक टक देखता रहता है। और गंगा का पानी प्रदूषित होता रहता है।
4. प्रोटेक्सन वॉल न होने के कारण पानी पहाड़ में रिस कर जाता है। कई गाँव इसमें समा चुके हैं। इससे भी खतरनाक खबर है कि हिमालय की कापर प्लेट गल चुकी है।
इससे हिमालय का इलाका भी खतरे में है। गाँव लगभग खाली हो चुके हैं। अकेले टिहरी में इतना पानी जमा है कि अगर पानी निकला तो ऐतिहासिक हादसे का कारक होगा। हरिद्वार तिनके की तरह बह जाएगा। दिल्ली भी नहीं बचेगी। यह भूकम्प क्षेत्र है, यह जानते हुए भी ये बाँध बनाए गए। इसे बनाने वालों को दाद देनी पड़ेगी, जिन्होंने विस्थापितों की सूची में पाईलट बाबा का नाम डाल दिया।
बहरहाल क्या हुआ, कैसे हुआ, यह सोचने के बजाय, जो हो चुका उसे भूल कर, अब नए बाँधों की मन्जूरी नहीं देनी चाहिए। पुराने बाँधों को धीरे-धीरे चरणबद्ध ढँग से खाली कर देना चाहिए।
वहीं हिमालय की इन वादियों में हवाएँ बहुत तेज चलती हैं, इसके अलावे बिजली का वैकल्पिक साधन सौर उर्जा हो सकती है। पिछले साल के हादसे से अगर यह सबक नहीं लिया गया, तो इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं।
विभाजन या जल की लूट
गंगा के पास इतना पानी नहीं रहता कि वह अपने जल से उस गाद को बहा सके। इसके फलस्वरूप नदी के बीच गाद जम जाती है। वह किनारे से होकर बहने लगती है। गंगा का पाट चौड़ा होता जाता है।
हरिद्वार में जमीन पर उतरते ही गंगा के जल की लूट मच जाती है। लूट सरकार भी मचाती है और आश्रम वाले भी। सरकार दिल्ली नहर से दिल्ली के निवासियों के पीने के लिए साठ प्रतिशत जल ले जाती है। आश्रमों के दरवाजों पर चक्कर लगाने के बाद गंगा में महज तीस प्रतिशत जल बचता है। वही आगे जाता है। पूरे उत्तर प्रदेश में नहरों का जाल बिछा है, उसके बाद गंगा में पानी ही नहीं बचता। नरोरा एटॉमिक प्लांट से निकलने वाली गंगा का हाल यह है कि बकरी भी वहाँ इसे पैदल पार कर जाती है।इसलिए गंगा के पथ और प्रवाह को समझना जरूरी है। हरिद्वार से वाराणसी तक गंगा प्रति कोस बारह इन्च ढ़लान के साथ बहती है। वाराणसी से भागलपुर तक 10 इन्च और 8 इन्च, 6 इन्च घटती चली जाती है। गंगा के जल को समुद्र में गिरा देना चालाकी नहीं है, इसलिए पानी का एक मानक तल बनाया जाना चाहिए और उसके तल के अनुसार इस तरह पानी निकालने की योजना बनाई जानी चाहिए कि गंगा में सालों भर पानी की निश्चित मात्रा रहे। अगर गंगा को यातायात का साधन बना दिया जाए तो सड़कों का बोझ कम हो सकता है और नदी में जल के साथ प्रवाह भी रहेगा।
प्रदूषण
हम गंगा के संकट की बात करते हैं तो सिर्फ गंगा ही नहीं, उन तमाम नदियों के संकट की बात करते हैं जो गंगा में आकर मिलती हैं। गंगा में प्रदूषण मूल रूप से कन्नौज से बनारस के बीच है। इसके चार कारक हैं- जल की कमी, सहायक नदियाँ, नगर और उद्योग तथा धार्मिक क्रिया-कलाप।
अगर गंगा में जल की निश्चित मात्रा रहे तो वह बहाव के कारण, मिट्टी और हवा के कारण अपने को खुद एक हद तक स्वच्छ कर सकती है। मगर जिस आपाधापी में गंगा के किनारे नगर बसाए गए, उद्योग लगाए गए, उसके जल के निकास के लिए आज भी हमारे पास कोई नीति नहीं है।
शहर और उद्योगों से प्राप्त गन्दे जल को प्रत्येक शहर में नगरपालिका को सुपुर्द कर दिया जाए। वहाँ ऐसी योजना बनाई जाए कि उसे उर्वरक के रूप में बदल कर आस-पास के खेतों में उसका इस्तेमाल किया जाए। सफाई का मानक तय कर ही पानी को गंगा या किसी नदी में गिराया जाए।
गाद
बनारस के बाद गंगा में प्रदूषण नहीं होता लेकिन जल का कचरा जमता जाता है। गंगा के पास इतना पानी नहीं रहता कि वह अपने जल से उस गाद को बहा सके। इसके फलस्वरूप नदी के बीच गाद जम जाती है। वह किनारे से होकर बहने लगती है। गंगा का पाट चौड़ा होता जाता है। वह कई धराओं में बंट जाती है और कटाव होने लगता है।
कटाव के कारण हजारों गाँव के लोग विस्थापित होते हैं। गाद पर दियारा क्षेत्र बनता है, जो अपराधियों का स्वर्ग बन जाता है। नदी के तट पर बोल्डर गिराने के बजाय उसके गर्भ को साफ कर दिया जाए तो नदी अपनी मूल धारा में रहेगी। गंगा गर्भ, गंगा तट और गंगा क्षेत्र का सीमांकन किया जाना चाहिए। यह सच्चाई है कि बाढ़ में भी नदी उसी जगह तक जाती है, जहाँ कभी उसकी धारा थी।
भराव
झारखंड के दो जिले साहेबगंज और राजमहल गंगा तट पर बसे हैं। यहाँ गंगा का प्रवाह प्रति कोस आठ इन्च है। इस इलाके में हजारों क्रशर मशीन लगे हैं। पत्थर तो बेच देते हैं मगर मिट्टी बारिश में बह कर गंगा में समा जाती है। इस भराव और फरक्का बाँध के कारण पानी नहीं निकल पाता और बाढ़ आती है तो बिहार को डूबा जाती है।
इस इलाके से क्रशर उद्योग को हटा देना चाहिए। अगर जरूरी हो तो मिट्टी का भी अलग उपयोग किया जाना चाहिए ताकि मिट्टी गंगा में न जा सके। फरक्का बाँध बनाने के बाद, वह इन्जीनियर जिसने बाँध बनाया था, आज यह बयान दे रहा है कि फरक्का में यह नहीं बनना चाहिए था। यह गलत हुआ, किन्तु उसे गलत कहने वाला इन्जीनियर गुमनाम जिन्दगी जीकर मर गया। हल्दिया की भी वही स्थिति हो गई है जो उसके पहले के बंदरगाह हुगली की थी।
गंगा मुक्त हो, समुद्र से इसका सीधा सम्बन्ध हो तो, नदी में जलीय जीवों की सम्भावना बढ़ेगी, इससे भी रोजगार सृजित होगा। समय के साथ रोजगार बढ़ सकते हैं। यह समस्या मेरी है और समाधन भी मेरा है। मेरे भीतर एक चाहत है कि गंगा इस तरह की होनी चाहिए और इसके कारण भी साफ हैं।
यही जानने के लिए मैं एक-एक कदम चल कर गया था। गंगा ने मुझे बताया कि यह नदी का संकट ही नहीं, बल्कि हमारा संकट है। हमारी सभ्यता का संकट है। जिसकी सभ्यता पराजित हो जाए, वे तो संकट में होंगे ही।
हमारी अर्थव्यवस्था में सिर्फ बिजली पैदा कर गंगा जितना योगदान कर रही है, उससे कई गुना ज्यादा योगदान कर सकती है। सवाल उस दृष्टिकोण का है कि गंगा को किस नजरिए से आप देख रहे हैं।
प्रश्न उठता है कि गंगा का असल संकट क्या है? आप फल खाना चाहते हैं कि पेड़ खाना चाहते हैं? जल पीना चाहते हैं या नदी पीना चाहते हैं? आप गंगा के बेटे हैं या सफाई के नाम पर कमाई करने वाले लुटेरों के? गंगा के बारे में सोचने का आपका दृष्टिकोण क्या है? वस्तुत: गंगा के लोकतन्त्र का नाम सहजीवन है। और आपके लोकतन्त्र का क्या नाम है?
प्रकृति के आंगन में अगर जनतन्त्र की बात होती है, तो मेरा उससे कोई वास्ता नहीं है। क्योंकि वह लोकतन्त्र नहीं है, लोक सिर्फ जन से नहीं बनता। मुझे चाहिए गंगा का एक-एक बूँद जल अविरल।
(लेखक हिन्दी के जाने माने कवि हैं। गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा की है।)
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