माँ गंगा का जन्म भगवान विष्णु के श्री चरणों से हुआ और विष्णुपदी नाम पाया। जिस गंगा जी को श्री ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल में रखकर अपने को धन्य माना हो, जिस गंगा जी को शंकर जी ने अपने मस्तक पर शोभायमान कर अपने को गर्वित किया हो, जिस गंगा की पवित्रता को हमारे धर्मशास्त्रों ने गाया हो और विश्व कल्याण की बात की हो, जिस गंगा के तट पर हमारे ऋषि-मुनि तपस्या करके परम गति को प्राप्त हुये हों और जिस गंगा तट पर हमारी हिंदू संस्कृति फली-फूली हो उस पापनाशिनी, कलिमलि हरणी, सर्वहितकारी निर्मला गंगा का अस्तित्व आज खतरे में है। जिस गंगा पर भारतवासियों की जन्मजन्मांतरों से अगाध्य श्रद्धा हो, उस पतित पावनी गंगा जी का अस्तित्व हाल ही के हमारे कुछ छुद्र स्वार्थों ने ही खतरे में डाल दिया है। इसी संदर्भ में इस लेख में दो बातों पर ही मैं बात करूँगा, हालाँकि कई और विषय भी गंगा से संबंधित हैं। गंगा से संबंधित दो मुख्य बातें हैं- पहली गंगा का प्रदूषण व दूसरी बाँधों का गंगा के भविष्य पर प्रभाव।
गंगा का प्रदूषण : गंगा के तट पर स्थित नगरों-कस्बों का मल-मूत्र मिश्रित गंदा जल प्रतिदिन गंगा जी में छोड़ा जाता है (चित्र 1)। इस प्रक्रिया को नालों-खालों में अवैध रूप से बसे लोगों ने और भी बढ़ा दिया है। गंगाजी में छोड़ी गंदगी, गंगा के किनारे स्थित चमड़े, चीनी, सन व अन्य कारखानों का दुर्गंध युक्त जल, गंगा जल के विशिष्ट गुणों को नष्ट कर गंगा जी को प्रदूषित कर रहा है। एक समय की निर्मल, पथ्या व औषधीय गुणों वाली गंगा हरिद्वार के बाद अन्य स्थानों पर अब स्नान व पान के योग्य भी नहीं रह गई है। क्या यही हमारी पतित पावनी गंगा का भविष्य है? आज गंगा विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है जिसमें विषाक्त व भारी धातुओं की अधिकता औसत से कहीं ज्यादा है (Pb, Ni, Cu, Zn, Co, Cr, Hg तथा As)। इसका जल कहीं-कहीं पर खेती को नुकसान भी पहुँचा रहा है। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बात केवल कागजों में ही सीमित रह गई है। एक नारा बनकर रह गई है व कुछ लोगों को प्रसिद्धि दिलाने व अन्य को रोजी-रोटी गंगा के नाम पर दिलाने का जरिया मात्र रह गया है। आज के भौतिक युग में :
‘‘नमामी गंगे तव पाद पंकजं सुरासुरैर्वदित दिव्यरूपम्
भुक्ति चमुक्ति च ददासि नित्यं भावनसारेण सदानराणाय्’’
को हम भूल गये हैं। हम भूल गये हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था कि नदियों में मैं गंगा ही हूँ। गंगा के प्रति धार्मिक आस्था के पुरातन भाव को हमें पुन: भारतीय समाज में प्रस्थापित करना होगा। जिससे गंगा प्रदूषण की योजनायें विलुप्त न हो। जन-जन को स्वामी रामदेव महाराज व गोपालमणी महाराज के गंगा संरक्षण व संवर्धन की योजनाओं को आत्मसात कर भागीदारी करनी होगी। केवल गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा सरकार द्वारा देने से ही गंगा का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा।
दूसरी बात है कि गंगा की निर्मल धाराओं को रोक कर उन पर अंकुश लगाकर हमारी अपनी सरकारें जनमानस की जन्मजन्मातर की भावनाओं की अनदेखी कर रही है। क्या बाँधों द्वारा गंगा का प्रदूषण नहीं हो रहा है? गंगा भारत की पहचान है। गंगा राष्ट्र के जीवन की धड़कन है। गीता व गंगा ही भारत की आत्मा हैं। गंगा के अभाव में समृद्ध, सांस्कृतिक परिपक्व भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। उस पर सबका समान अधिकार है। परंतु सर्वसौभाग्यदायनी माँ गंगा को कुछ मुनाफाखोर विदेशी संस्कृति के पुजारी व औद्योगिक संस्कृति की मानसिकता के व्यक्ति गंगा पर बाँधों का जाल बिछाकर गंगा के अविरल प्रवाह को रोकना चाहते हैं। यह स्वार्थी लोग भौतिक विकास के नाम पर भारत की आत्मा का स्पन्दन बलात खण्डित करना चाहते हैं। क्या यह उचित है? महाराजा भागीरथ गंगा को गंगोत्री से बहाकर ले गये पर आधुनिक भागीरथ उसे लुप्त करने में सफल हो रहे हैं- लगता है जैसे कि गंगा की धारा को उल्टी बहाना चाहते हों।
जल विद्युत के नाम पर माँ भागीरथी, अलकनंदा एवं गंगा पर ‘‘रन ऑफ रिवर’’ बाँधों की एक बड़ी श्रृंखला बनाने का पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा व जनमानस का क्या होगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। टिहरी बाँध इसका ज्वलंत उदाहरण आज हमारे सामने मुँह खोले खड़े है। अति प्राचीन गणेश प्रयाग-भिलंगना व भागीरथी का पुरानी टिहरी में संगम स्थल, अब टिहरी झील में विलुप्त हो गया है (चित्र 2)।
इस झील की वजह से प्रतापनगर-लम्बगाँव की जनता को आने जाने में कितनी परेशानी उठानी पड़ रही है वह भुक्त भोगी ही जानते हैं। साथ ही साथ भूमि का क्षरण भी झील की वजह से हो रहा है व मिट्टी व गाद झील में जमा पानी को दूषित कर रहे हैं (चित्र 3)।
यह तो एक ही बाँध का प्रभाव है जोकि जनता को इतनी त्रासदी दे रहा है। पर अब गंगोत्री से देव प्रयाग की 225 किमी दूरी में भागीरथी-भिलंगना का स्वतंत्र एवं खुला बहाव बाँधों द्वारा पूर्णत: बंद करने की योजना चल रही है। ऐसा ही बद्रीनाथ धाम से देव प्रयाग की 250 किमी दूरी में अलकनंदा के साथ देव प्रयाग से लक्ष्मणझूला-ऋषिकेश की 70 किमी की दूरी में भी गंगा के साथ होगा। गंगा व इसकी सहायक नदियाँ जो उत्तराखंड में हैं, सब पर कई बाँध बनाने से इसकी अविरल धारा रुक जायेगी। इससे गणेश प्रयाग की तरह, कई धार्मिक प्रयाग झीलों में डूब जायेंगे और सबसे पहला प्रयाग- देव प्रयाग इसकी भेंट चढ़ेगा। इसी स्थल से भागीरथी व अलकनंदा मिलकर गंगा कहलाती है।
भविष्य में 25 से ज्यादा बाँध बनाकर गंगा की अविरल धारा को रोकने से इन क्षेत्रों में माँ गंगा झीलों में, सुरंगों में व नहरों में ही बहेगी। हाय माँ गंगा। क्या इसलिये महाराजा भागीरथ आपको स्वर्ग से पृथ्वी पर लाये थे? वह तो गंगा को सबके उद्धार के लिये पृथ्वी पर लाये थे। पर कुछ स्वार्थी लोग जो जनमानस का उद्धार नहीं चाहते हैं उन्हें जनमानस की भावनाओं को ठेस पहुँचाने में असुरों की तरह आनंद आता है- वह तो केवल अपना उद्धार चाहते हैं- भौतिक उद्धार। गंगा पर 25 से ज्यादा बड़े बाँधों के निर्माण से उत्तराखंड बनाम उत्तरांचल का झगड़ा हमेशा के लिये खत्म हो जोयगा। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी और यह समृद्ध, देश भक्त उत्तराखंड प्रदेश टापू प्रदेश के नाम से भविष्य में जाना जायेगा। न कि स्कन्दपुराण के केदारखंड व कूर्मांचल के नाम से। बाँधों के द्वारा स्थानीय जनता का शोषण भ्रष्ट शासन व्यवस्था से होता ही है साथ ही नैतिक प्रदूषण भी होता है। एक भौतिकवादी संस्कृति का फल जनता को मिलता ही है।
इन बाँधों से गंगा का अमृत जल भी अवश्य प्रदूषित होता है। उदाहरण के लिये देखें कैसे गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का हाल हो गया जो यहाँ श्रीनगर-कोटेश्वर बाँध के कारण हो रहा है (चित्र 4)। इससे अलकनंदा की जल धारा दूषित होकर बह रही है या प्रदूषित झील में परिवर्तित हो गई है जिसमें बाँध का गाद बाँध बनाने वाली कंपनी डाल रही है। क्या यही गंगा का भविष्य है? दैत्याकार जल विद्युत परियोजनाओं को पूर्णत: बंद करने की आवश्यकता है। यदि समय रहते हमने इस देव नदी (विष्णुपदी) के संरक्षण के लिये कठोर निर्णय नहीं लिये तो इसका हश्र भी विलुप्त सरस्वती की तरह होगा व भविष्य का समाज कभी भी हमको क्षमा नहीं करेगा। हम पर ही गंगा को रसातल में ले जाने की जिम्मेदारी होगी। क्या आप ऐसा चाहेंगे?
इस प्रकार बाँधों द्वारा उत्तराखंड, उत्तरांचल या केदारखंड को टापू प्रदेश बनाने में हम ही जिम्मेदार होंगे। उत्तराखंड वासियों का प्रथम कर्तव्य है कि वह गंगाजी को प्रदूषण मुक्त रखने की जी जान से कोशिश करें। हालाँकि आज के भौतिकवादी व नास्तिक लोग गौ मुख से लेकर गंगा सागर तक इसकी पवित्रता व स्वच्छता को खत्म करने पर तुले हुये हैं। वह चाहे यह कार्य उसमें बाँधों द्वारा या गंदगी के द्वारा कर रहे हों, पर उत्तराखंडवासी अगर गंगाजी को पथ्या बना देखना चाहते हैं तो उन सबका पावन कर्तव्य है कि वह गंगा को प्रदूषण मुक्त व भविष्य के बाँधों से मुक्त रखने का कृत संकल्प लें।
हिंदूओं की धार्मिक जन भावनाओं का आदर करते हुए अंग्रेजों ने महामना मदनमोहन मालवीय जी, देशी राजाओं, चारों शंकराचार्यों व जनता की आवाज पर 20.04.1917 (संयुक्त प्रांत सरकार शासनादेश संख्या 1002 ता. 20.04.17) को गंगाजी के प्रवाह को मुक्त बनाये रखने के लिये एक शासकीय आदेश पारित किया था। इस आशय का शासनादेश पत्र सं. 2708 ता. 26.09.1917 में फिर दोहराया गया था और इसकी धारा 32 व हमारे संविधान का अनुच्छेद 372 भी यही कहता है। आज इसी संविधान के अनुच्छेद 372 की अवमानना हो रही है। जिन आध्यात्मिक परंपराओं का एक विदेशी शासक ने आदर किया, आज वही परंपरा स्वतंत्र भारत में मटियामेट हो रही है। वाह री गंगा तेरी विडंबना। गीता व गंगा ही इस देश की आत्मा है।
गंगा जल की एक बूँद का एक हिंदू के जीवन में जन्म से मृत्यु तक अपना एक धार्मिक महत्व है। वह चंद गंगा जल की बूँदों का आदर करता है व इस पर श्रद्धा रखता है। पर जब प्रदूषण व बाँधों द्वारा गंगा का भविष्य ही अंधकारमय हो तो हमारा भविष्य कहाँ उज्जवल व सुरक्षित है। यह एक चिंतन का विषय है। अगर यह इसी तरह चलता रहा तो हमारे समस्त प्रयाग जो हरिद्वार से हिमालय की ओर हैं- सबका गणेश प्रयाग की तरह ही हश्र हो जायेगा और वह सभी बड़ी-बड़ी झीलों का रूप ले लेंगे। गंगा के पानी में फिर वही अमरत्व नहीं होगा जिससे यह सड़ता नहीं है और जिसमें कीड़े नहीं पड़ते हैं। लेकिन अब भविष्य में यह एक गला-सड़ा झीलों का गंदा पानी होगा- क्योंकि इन झीलों को आगे चलकर कुछ व्यक्ति विशेष पर्यटन के लिये भी प्रयोग करना चाहेंगे अपने और अपनों के खजानों को भरना चाहेंगे।
अत: भगवान ही गंगा की रक्षा करेंगे। क्योंकि मंदबुद्धि मनुष्य तो तुरंत अपना फायदा चाहता है। न कि सर्वजन सुखाय व सर्वजन हिताय को समझ सकता है। मैं इस देश का नागरिक होने के नाते माँग करता हूँ कि गंगा के अविरल प्रवाह को गंगोत्री से गंगासागर तक मुक्त व छेड़-छाड़ रहित रखा जाय। गंगा की धारा अविरल बहनी चाहिये। यही हमारी सांस्कृतिक विरासत है व यही हमारी आत्मा है। हमारे राजनितीज्ञ व अधिकारी कब समझेंगे कि मुकुटधारी सम्राट से बड़ा कोपिनधारी तपस्वी है- जो हमेशा लोग कल्याण की ही सोचता है। भागीरथ शिला गंगोत्री में हमको यही संदेश देती है और गंगा के संरक्षण व संवर्धन के लिये हमें यह बात आत्मसात करनी ही होगी तभी हमारा और हमारे देश का कोई भविष्य है। क्या हम अपनी आत्मा के बिना रह सकेंगे? क्या हमें एक और भागीरथ की प्रतीक्षा है जो गंगा का भविष्य सुरक्षित रख सके? क्या तभी हम कहेंगे?
‘‘गंग सकल मुद मलय मूला, सब सुख करनि हरीने सब सूला’’
जय माँ गंगे।
सम्पर्क
आर. एस. रावत
वा.हि.भू.सं., देहरादून।
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