देहरादून। गंगा की सेहत की एक और भयावह तस्वीर सामने आई है। राष्ट्रीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों की ओर से किये गए हालिया शोध में सामने आया है कि गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा में इस कदर प्रदूषण हो गया है कि इसका 51 फीसदी क्षेत्र जलीय जीवजन्तुओं के लिये प्रजनन के लायक ही नहीं है। इस समय केवल 49 फीसद क्षेत्र में जलीय जीवजन्तु ब्रीडिंग कर सकते हैं।
सोमवार को राष्ट्रीय वन अनुसन्धान संस्थान में आयोजित 14वें वार्षिक रिसर्च सेमिनार में वैज्ञानिकों की ओर से पेश की रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की ओर से गंगा का पानी डैम बनाकर जगह-जगह बिजली उत्पादन और सिंचाई के लिये रोका गया है।
हरिद्वार के गंगा बैराज में ही 90 फीसदी जल रोका जा रहा है। सेमिनार में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण के चलते कानपुर से इलाहाबाद तक स्थिति बेहद खराब है। जबकि इलाहाबाद में गंगा में यमुना मिलने से इससे आगे की जल की स्थिति थोड़ी बेहतर है।
विज्ञानियों के मुताबिक गंगा में जलीय जीवजन्तु ब्रीडिंग कर सके इसके लिये नदी में 40 फीसदी जल प्रवाह होना जरूरी है, लेकिन राज्य सरकारों की ओर से इसका अधिकतम पानी सिंचाई के लिये उपयोग किये जाने से जलीय जीवजन्तुओं के अस्तित्व पर खतरा मँडरा रहा है। विज्ञानियों के मुताबिक यदि यही स्थिति रही तो आने वाले समय में स्थिति और खराब होगी।
गंगा में तेजी से बढ़ रहे खतरनाक रसायन
गंगा के संरक्षण के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से तमाम योजनाएँ संचालित की जा रही हैं। बावजूद इसकी सेहत साल-दर-साल गिरती जा रही है। भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के हालिया शोध में सामना आया है कि राष्ट्रीय नदी में आर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफास्फेट जैसे खतरनाक तत्व तेजी से बढ़ रहे हैं। इससे मछलियाँ समेत अन्य जलीय जीवजन्तु लगातार मर रहे हैं। इसके अलावा इन मछलियों को खाने में इस्तेमाल किया जाता है तो कैंसर जैसी बीमारी होना तय है।
भारतीय वन्य जीव संस्थान में आयोजित 14वें वार्षिक रिसर्च सेमिनार में वैज्ञानिकों ने यह रिपोर्ट पेश की है। इसके मुताबिक वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एसए हुसैन और डॉ. अंजू बरोठ की अगुवाई में टीम ने गंगोत्री से गंगा सागर तक चुनिंदा 35 जगहों पर गंगाजल के नमूनों की जाँच की। इनमें इन्होंने पाया की गंगाजल में आर्गेनोक्लोरीन पेस्टीसाइड (ओसीपी), न्यूरोटॉक्सिक, आर्गेनोफास्फेट पेस्टीसाइड (ओपीपी) जैसे कई खतरनाक पेस्टीसाइड पाये गए हैं।
वैज्ञानिक रुचिका शाह के मुताबिक गंगाजल में सबसे अधिक पेस्टीसाइड पश्चिम बंगाल के हासिमपुर और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में पाया गया है। उन्होंने बताया कि गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों की ओर से खेती में अन्धाधुन्ध इस्तेमाल किये जा रहे पेस्टीसाइड की वजह से भी स्थिति खराब हो रही है। चार प्रजातियों की मछलियों के ऊतकों की जाँच की गई तो उनके शरीर में भी यह खतरनाक पेस्टीसाइड पाये गए।
शोध से पता चला है कि गंगा में महज 49 फीसदी जलीय इलाका जलीय जीवजन्तुओं के ब्रीडिंग लायक है। जबकि 51 फीसदी इलाके का जल इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि अब वहाँ ब्रीडिंग की सम्भावना बहुत कम है। यदि गंगा के जलीय जीव जन्तुओं के अस्तित्व को बचाना है तो नदी में 40 फीसदी जलप्रवाह रखना ही होगा... डॉ. एसए हुसैन, वरिष्ठ वैज्ञानिक, राष्ट्रीय वन्यजीव संस्थान
सोमवार को राष्ट्रीय वन अनुसन्धान संस्थान में आयोजित 14वें वार्षिक रिसर्च सेमिनार में वैज्ञानिकों की ओर से पेश की रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की ओर से गंगा का पानी डैम बनाकर जगह-जगह बिजली उत्पादन और सिंचाई के लिये रोका गया है।
हरिद्वार के गंगा बैराज में ही 90 फीसदी जल रोका जा रहा है। सेमिनार में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण के चलते कानपुर से इलाहाबाद तक स्थिति बेहद खराब है। जबकि इलाहाबाद में गंगा में यमुना मिलने से इससे आगे की जल की स्थिति थोड़ी बेहतर है।
विज्ञानियों के मुताबिक गंगा में जलीय जीवजन्तु ब्रीडिंग कर सके इसके लिये नदी में 40 फीसदी जल प्रवाह होना जरूरी है, लेकिन राज्य सरकारों की ओर से इसका अधिकतम पानी सिंचाई के लिये उपयोग किये जाने से जलीय जीवजन्तुओं के अस्तित्व पर खतरा मँडरा रहा है। विज्ञानियों के मुताबिक यदि यही स्थिति रही तो आने वाले समय में स्थिति और खराब होगी।
गंगा में तेजी से बढ़ रहे खतरनाक रसायन
गंगा के संरक्षण के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से तमाम योजनाएँ संचालित की जा रही हैं। बावजूद इसकी सेहत साल-दर-साल गिरती जा रही है। भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के हालिया शोध में सामना आया है कि राष्ट्रीय नदी में आर्गेनोक्लोरीन, आर्गेनोफास्फेट जैसे खतरनाक तत्व तेजी से बढ़ रहे हैं। इससे मछलियाँ समेत अन्य जलीय जीवजन्तु लगातार मर रहे हैं। इसके अलावा इन मछलियों को खाने में इस्तेमाल किया जाता है तो कैंसर जैसी बीमारी होना तय है।
भारतीय वन्य जीव संस्थान में आयोजित 14वें वार्षिक रिसर्च सेमिनार में वैज्ञानिकों ने यह रिपोर्ट पेश की है। इसके मुताबिक वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एसए हुसैन और डॉ. अंजू बरोठ की अगुवाई में टीम ने गंगोत्री से गंगा सागर तक चुनिंदा 35 जगहों पर गंगाजल के नमूनों की जाँच की। इनमें इन्होंने पाया की गंगाजल में आर्गेनोक्लोरीन पेस्टीसाइड (ओसीपी), न्यूरोटॉक्सिक, आर्गेनोफास्फेट पेस्टीसाइड (ओपीपी) जैसे कई खतरनाक पेस्टीसाइड पाये गए हैं।
वैज्ञानिक रुचिका शाह के मुताबिक गंगाजल में सबसे अधिक पेस्टीसाइड पश्चिम बंगाल के हासिमपुर और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में पाया गया है। उन्होंने बताया कि गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों की ओर से खेती में अन्धाधुन्ध इस्तेमाल किये जा रहे पेस्टीसाइड की वजह से भी स्थिति खराब हो रही है। चार प्रजातियों की मछलियों के ऊतकों की जाँच की गई तो उनके शरीर में भी यह खतरनाक पेस्टीसाइड पाये गए।
शोध से पता चला है कि गंगा में महज 49 फीसदी जलीय इलाका जलीय जीवजन्तुओं के ब्रीडिंग लायक है। जबकि 51 फीसदी इलाके का जल इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि अब वहाँ ब्रीडिंग की सम्भावना बहुत कम है। यदि गंगा के जलीय जीव जन्तुओं के अस्तित्व को बचाना है तो नदी में 40 फीसदी जलप्रवाह रखना ही होगा... डॉ. एसए हुसैन, वरिष्ठ वैज्ञानिक, राष्ट्रीय वन्यजीव संस्थान
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