गंगा गान

हिमगिरी के उत्तुंग शिखर से
जलधि तट की ओर
दौड़ चलीं तुम पतित पावनी
करतीं कलकल शोर
हे 'जाह्नवी' क्यों उदास हो
बहतीं रुक रुक कर
क्षोभित क्यों 'पुण्या' जन जन को
मोक्ष दान देकर
युग युग के संताप हरे हैं
क्षुधा हरी मन की
इस युग के भी पाप साथ ले
बह लो 'दुःखहन्त्री'
इस धरती पर पर्व भी तुम
संगीत भी तुम 'रम्ये'
भारत भू की गरिमा हो तुम
सत्य भी 'शरण्ये'
संस्कार का दीप जलाए
शाश्वत ही रहना
भरत वंश का श्रृंगार हो
सुर सरि 'पुरातना'
उंच नीच या जाति धर्म से
भेद नहीं करती
सब के पापों को हर लेती
'पूर्णा' 'भागीरथी'
हो अकम्प संकल्प मनुज का
पुण्य सलिल गंगे
'सर्वदेवस्वरूपिणी' धारा
हर हर हर गंगे
हे 'गिरिमण्डल गामिनी' 'गंगा'
सदा सजल रहना
हे 'विष्णुपदा' निर्मल अविरल
बहती ही रहना !

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