गंगा बनेगी साबरमती

Ganga
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बनारस आते-आते गंगा में दूसरी बड़ी दूषित नदी यमुना भी विलीन हो जाती है। तय है, बनारस में गंगा गंदगी की चरम स्थिति को प्राप्त हो जाती है। यदि गंगा से जुड़ा मोदी का विकास प्राकृतिक संपदा के निचोड़ पर ही अवलंबित रहता है, तो गंगा का कायाकल्प कालांतर में दिवास्वप्न से आगे नहीं बढ़ पाएगा। लिहाजा तकनीक आधारित दोहन पर पुनर्विचार करने की जरूरत हैं।नरेंद्र मोदी की विकास और सुधार संबंधी उत्साहजनक चिंताओं की अनुगूंज दसों दिशाओं में है। इनमें से एक चिंता पुण्य-सलिला गंगा उद्धार से जुड़ी है। गंगा अपने उद्गम गंगोत्री से आकर गंगासागर में समाती है। इस बीच करीब एक हजार छोटी-बड़ी नदियां गंगा में विलय हो जाती हैं। गोया,बनारस आते-आते गंगा इतनी मैली और प्रदूषित हो जाती है कि इसमें विचित्र तत्वों के घालमेल से ऐसे सूक्ष्मजीव पनप जाते हैं, जो मनुष्य के लिए जानलेवा हैं। ऐसे में उत्तराखंड में पहाड़ का सीना चीरकर आकार ले रहीं जल विद्युत परियोजनाओं ने इसकी अविरल धारा खंडित कर दी है,जिससे गंगा और प्रदूषित हो रही है। इस लिहाज से गंगा को केवल वाराणसी में साबरमती या टेम्स बना देने से काम चलने वाला नहीं है, विद्युत जल संरचनाओं पर भी पुनर्विचार करना होगा।

गंगा शुद्धिकरण की अनेक कोशिशें हो चुकी हैं। इसी साल जनवरी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पूर्वाचल के जन-समुदाय से जुड़ने के लिए गंगा सफाई की बड़ी योजना बनाई थी, जिसका नेतृत्व भाजपा की उमा भारती को सौंपा गया था। हो सकता है, हिंदू जन मानस से जुड़ने की यह मुहिम मोदी को बनारस से प्रत्याशी बनाने की पूर्व योजना रही हो ? वैसे भी देश के ऐतिहासिक मंदिर और प्रमुख तीर्थस्थल नदियों के किनारें हैं और वे मतदाता के मानस को उद्वेलित करने का काम भी करते हैं। लिहाजा मतदाताओं को रिझने और जोड़े रखने का काम गंगा उद्धार से विरल क्या हो सकता था ? खैर,यदि संघ और मोदी का यही मूल उद्देश्य रहा है,तो उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिल गई है और अब उन्हें जनता को दिए वचन का पालन गंगा को साबरमती बनाकर करना है।

अहमदाबाद आते-आते एक समय साबरमती दम तोड़ देती थी। इसे विलुप्त हो चुकी नदी कहा जाने लगा था, लेकिन अब इसके परिवर्तित रूप की तुलना लंदन की टेम्स नदी से की जा रही है। इस नदी के सफाई अभियान में 1152 करोड़ रुपये की लागत आई। आज नदी पानी से लबालब तो है ही, इसका जल स्वच्छ व निर्मल भी है। यह कायापलट कोई एकाएक नहीं हो गया। इसे पूरा करने में नौ साल लगे। सबसे पहले नदी के किनारों पर बसी बस्तियों का संतोषजनक पुनर्वास कराया गया। नदी में मल-मूत्र का प्रवाह स्थायी रूप से रोकने के लिए इसके दोनों किनारों पर पाइप लाइनें बिछाई गईं। साथ ही उच्च गुणवत्ता के मल शोधन संयंत्र लगाए गए। सबसे बड़ी चुनौती साबरमती में जल भरने की थी। इस लक्ष्य की पूर्ति नर्मदा नहर और वासणा बांध से की गई। जिससे हर वक्त नदी में उज्जवल जल का प्रवाह बना रहे।

साबरमती की तुलना में गंगा एक बड़ी नदी है। उसमें एक हजार छोटी-बड़ी नदियां आकर मिलती हैं। जाहिर उनकी गंदगी भी गंगा में समाती है। गंगा के किनारे दस लाख से अधिक की आबादी वाले 29 शहर बसे हुए हैं। कानपुर के आसपास 400 ऐसे चमड़ा उद्योग हैं, जिनके चर्म शोधक संयंत्रों से करोड़ों लीटर दूषित जल गंगा को मैला करने का काम करता है। बनारस आते-आते गंगा में दूसरी बड़ी दूषित नदी यमुना भी विलीन हो जाती है। तय है,बनारस में गंगा गंदगी की चरम स्थिति को प्राप्त हो जाती है। यदि गंगा से जुड़ा मोदी का विकास प्राकृतिक संपदा के निचोड़ पर ही अवलंबित रहता है, तो गंगा का कायाकल्प कालांतर में दिवास्वप्न से आगे नहीं बढ़ पाएगा। लिहाजा तकनीक आधारित दोहन पर पुनर्विचार करने की जरूरत हैं।

अमेरिका की एक राष्ट्रीय खुफिया रिपोर्ट पर गौर करें तो गंगा, सिंधु एवं ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों को अगले एक दशक में जल टकरावों के संदर्भ में, वैश्विक स्तर पर उभरने वाले दस सबसे बड़े क्षेत्रों में गिना जाएगा।

एक समय बृहद बनारस क्षेत्र में बारहमासी वरणा, असी, किरणा और धूतपापा नदियां गंगा में मिलकर इसके जल को प्राकृतिक रूप से प्रांजल बनाए रखने का काम भी करती थीं। किंतु अब ये नदियां नालों परनालों में तब्दील हो चुकी हैं। देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी बनारस में गंगा का कायापलट करने पर आमादा हैं,लेकिन गंगा का अवरिल प्रवाह बना रहे इस दृष्टि से मोदी को देहरादून में दिए उस बयान पर पुनर्विचार करना होगा,जिसमें उन्होंने ऊर्जा के लिए पहाड़ी नदियों और पहाड़ों के पानी के दोहन की बात कही थी ? अन्यथा गंगा तो दूषित रहेगी ही,पहाड़ भी वृक्षों से निमरूल हो जाएंगे।

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