गंगा बचाओ

सवाल सिर्फ एक नदी का नहीं है, सारी ही नदियां सड़ती जा रही हैं। औद्योगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे इतना साफ करते हैं कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रह सकें। दूसरी ओर उदाहरण के रूप में हमारे यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के ताजा अध्ययन के बाद गंगा के प्रदूषण के बारे में तमाम लोगों और विशेषकर उन राज्यों की सरकारों की आंखें खुल जानी चाहिए जिन राज्यों से होकर गंगा गुजरती है। इस अध्ययन के अनुसार गंगा के किनारे रहने वाले लोग देश के अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग से ज्यादा ग्रसित हो सकते हैं। तमाम सरकारी प्रयत्नों के बावजूद देश की इस सबसे लंबी नदी में, जो हिंदुओं के लिए एक पवित्र और धार्मिक आस्था की प्रतीक नदी रही है और जिसके किनारे हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी जैसे तीर्थस्थल और कानपुर तथा पटना सहित 1 लाख से ज्यादा की आबादी वाले कम से कम 30 नगर स्थित हैं, प्रदूषण का स्तर कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इस पवित्र नदी में प्रतिदिन तमाम शहरों की अरबों लीटर गंदगी तो बहकर आती ही आती है, औद्योगिक अवशिष्ट और कचरा भी दिन-रात गिरता है।

इस औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य हैवी मेटल्स जैसे जहरीले तत्व भी शामिल हैं। इन्हीं के कारण नदी के किनारे रहने वाले लोगों में गॉल ब्लैडर (पित्ताशय) के कैंसर के मामले देखने में आए हैं जो कि पूरे विश्व में भारत को दूसरे स्थान पर खड़ा कर देते हैं। इस अध्ययन में बताया गया है कि गंगा नदी में खतरनाक रसायनों और जहरीली धातुओं की उपस्थिति बेहद अधिक है। भारत की लगभग 40 प्रतिशत आबादी गंगा के पानी पर निर्भर करती है। इसलिए अब समय आ गया है जब गंगा में बढ़ते प्रदूषण को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाए। उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यंत्री अखिलेश यादव ने इस अध्ययन का नोटिस लिया है और ठीक ही कहा है कि गंगा में प्रदूषण का स्तर इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि इसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

दूसरी ओर नदी में ऑक्सीजन का स्तर भी इनता कम है कि जलीय जीवन के लिए भी गंभीर खतरा है। बार-बार ऐसी रिपोर्टें आती रही हैं जिनमें कहा जाता है कि गंगा में स्नान तो किया जा सकता है, लेकिन उसका जल अब आचमन करने योग्य नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद कहा जा सकता है कि अब पवित्र गंगा स्नान करने लायक भी नहीं रही है क्योंकि गंगा के किनारे बसे लोगों में त्वचा का कैंसर भी पाया जा रहा है। इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि इन बातों से हिंदू तीर्थयात्रियों के मन पर क्या गुजर रही होगी जो गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अनेक वानस्पतिक औषधियों को स्पर्श करता हुआ गंगा का निर्मल जल जब हरिद्वार, प्रयाग और काशी पहुंचता था तो लोग इसे अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कैनों और शीशियों में भरकर अपने घर लाते थे लेकिन आज यह जल इस योग्य नहीं रह गया है।

अनेक हिंदू संगठन गंगा बचाओ अभियान चला रहे हैं जबकि कई गैर सरकारी संगठन गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए काम कर रहे हैं। केंद्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग 2000 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो। गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे हैं इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए। यह सही है कि उद्योगिकरण और शहरीकरण के कारण नदियां नष्ट होती जा रही हैं और इस प्रक्रिया को रोकना मुश्किल है लेकिन इतना तो हम कर ही सकते हैं कि शहरों के कचरे और औद्योगिक अवशिष्ट को शोधित करके हम अपनी नदियों में छोड़ें। वैसे भी सवाल सिर्फ एक नदी का नहीं है, सारी ही नदियां सड़ती जा रही हैं।

औद्योगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे इतना साफ करते हैं कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रह सकें। दूसरी ओर उदाहरण के रूप में हमारे यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है। क्या देश की इतना बड़ी आबादी को, जो गंगा पर हर तरह से निर्भर करती है, राम भरोसे छोड़ा जा सकता है? सभी राज्य सरकारों का यह फर्ज है कि वे एकजुट होकर गंगा के हर पल होते क्षय को रोकें। उनके सारे खर्च और प्रयासों को इस तरह से समन्वित किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ हो। अखिलेश यादव के इस सुझाव में दम है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सरकारें आपस में मिल-बैठकर रणनीति बनाएं कि इस काम को युद्ध स्तर पर कैसे पूरा किया जाए। इन चारों ही राज्यों में पित्ताशय के कैंसर के साथ-साथ गुर्दे, फूड पाइप (आहार नली), प्रोस्टेट (पौरुष ग्रंथि), लिवर (यकृत) और त्वचा के कैंसर के मामले देश के अन्य भागों के औसत से कहीं ज्यादा है। यानी जिस गंगा के बारे में कहा जाता था कि गंगा तेरा पानी अमृत, वही गंगा इन चारों राज्यों में बीमारियां बांट रही है देश की अन्य नदियों की भी कमोबेश यही स्थिति है। इसलिए अगर जीवन बचाना है तो गंगा सहित सभी नदियों को बचाया जाना चाहिए। ऐसा न हो कि कहीं बहुत देर हो जाए और स्थिति हाथ से निकल जाए।

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