गंगा को बचाने के लिए उसके हिमनदों, सहायक नदियों और जलागम क्षेत्र का वैज्ञानिक प्रबंधन बहुत जरूरी है। एक वैज्ञानिक जल प्रबंधन के लिए जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों की प्रबंधन में वैज्ञानिक प्रबंधन की शुरूआत करें। गंगा के लिए वैज्ञानिक प्रबंधन के जरूरत को दर्शा रहे हैं धीरेंद्र शर्मा।
कुछ संतों ने गंगोत्री ग्लेशियर के सिकुड़ने को लेकर चिंता जताते हुए कहा है कि एक दिन मां गंगा भी प्राचीन सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हो जाएगी। लेकिन सरस्वती नदी के हड़प्पा काल (4000 ई.पू.) में भूवैज्ञानिक दोषों का पता नहीं लगाया जा सकता था। आज वैज्ञानिक उन्नति के दौर में हम इस स्थिति में हैं कि सुदूर भविष्य में होने वाले प्राकृतिक बदलावों को जान सकते हैं। आज भौगोलिक एवं जल विज्ञान संबंधी ज्ञान ने प्राकृतिक संसाधनों के सतत प्रबंधन को संभव बनाया है।
बेशक हम प्रकृति की ताकत को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की योजना एवं तैयारी तो कर ही सकते हैं। निर्माणाधीन परियोजनाओं से हम अगले पांच वर्षों में 50,000 मेगावाट पनबिजली प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी भविष्योन्मुखी विकास नीतियां निश्चित रूप से हजारों बेरोजगार युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराएंगी और उद्योगों को बढ़ावा देंगी। इतना ही नहीं, नागरिक सुविधाएं उपलब्ध होने की स्थिति में इंजीनियर, डॉक्टर एवं शिक्षक ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से भी नहीं हिचकेंगे। निर्माणाधीन बांधों एवं अन्य विकास परियोजनाओं के पूरा होने के लिए सामूहिक इच्छाशक्ति और सभी राजनीतिक दलों एवं संबंधित नागरिकों के सहयोग की जरूरत है।
नदियों का 'प्रदूषण' आज वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तथ्य है। केवल वैज्ञानिक पद्धति ही गंगा की पवित्रता को बहाल कर पाएगी। पानी से अपने पापों को धोना एक तर्कहीन विश्वास है। वेदों, उपनिषदों और भारतीय दर्शन में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि कोई नदी बुरे कर्मों के फल से बचा सकती है। इसीलिए मनुस्मृति में मनु ने कहा है कि अंधविश्वास से नहीं, बल्कि केवल तर्क के जरिये ही धर्म को जाना जा सकता है। गंगा की प्रतिष्ठा के लिए आंदोलनरत धर्माचार्यों से अनुरोध है कि वे भावी पीढ़ी के लाभ के लिए हिमालयी जल और पनबिजली की संभावनाओं के उपयोग की अनिवार्यता पर विचार करें।
एक अनुमान के मुताबिक, हिमालय के बर्फीले पानी में दो लाख मेगावाट बिजली संग्रहित है। ग्लेशियरों के भूवैज्ञानिक, जलवैज्ञानिक एवं भूकंपीय अध्ययनों ने गंगा की देखभाल की हमारी क्षमता को बढ़ाया है और बढ़ती आबादी को जीवनदायी पेयजल उपलब्ध करवाने के साथ-साथ जरूरी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की सीमा के अलावा हिमालय इस धरती पर बर्फीले पानी का सबसे बड़ा भंडार है। उदाहरण के लिए, कैलाश-मानसरोवर समुद्री तल से हजारों मीटर की सुरक्षित ऊंचाई पर सबसे बड़ा बर्फीले जल का सागर है।
ब्रिटेन के एक्सेटर यूनिवर्सिटी के प्रो स्टीफन हैरीशन के नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, 1999 से 2008 के दौरान हिमालयी ग्लेशियर प्रति वर्ष करीब 0.11 से 0.22 मीटर बढ़े हैं। इस अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि बर्फ में थोड़ी-सी बढ़त इस बात का संकेत है कि हिमालयी ग्लेशियर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की तरह ग्लोबल वार्मिंग से उतने प्रभावित नहीं हैं।
उन्नत नदी जल प्रबंधन के जरिये हम ग्रामीण एवं शहरी जीवन के अंतर को पाट सकते हैं। वैज्ञानिक ज्ञान हमें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना जल संग्रहण सुविधाओं के निर्माण एवं सुधार तथा पनबिजली उत्पादन का आत्मविश्वास देता है। दुनिया की तमाम बड़ी नदियों पर ऊंचे बांध बने हैं। हिमालयी ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को लेकर गंभीर चिंता है। रूस, कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के सुदूर उत्तरी इलाके के पर्वतीय क्षेत्रों में बांध निर्माण एवं नदी जल प्रबंधन से वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान हासिल करके हम हिमालयी क्षेत्र में सुरक्षित बांध बनाने की स्थिति में हैं। दुनिया भर में करीब 200 ऊंचे बांध बने हैं, जिनमें नील, वोल्गा एवं मिसौरी नदियों पर बने बांध शामिल हैं। चीन तो पहले ही सिंचाई एवं पेयजल आपूर्ति के साथ सौ से ज्यादा छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाएं पूरी कर चुका है।
उत्तराखंड विकास के चौराहे पर खड़ा है। और यह गंगा में पाप धोने से नहीं होगा। धर्मगुरुओं एवं आचार्यों को वैज्ञानिक विकास परियोजनाओं के खिलाफ भावनाएं भड़काने वालों का विरोध करना चाहिए। राज्य से युवाओं के पलायन पर रोक लगाने के लिए हमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के अंतर को पाटना ही होगा। जब सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में योग्य एवं प्रशिक्षित पेशेवरों की भारी कमी है, जब हजारों युवा बेरोजगार हैं, तो ऐसे में उपवास का क्या मतलब है?
पर्वतीय इलाकों में ग्रामीण बिना भोजन एवं आवास के प्राकृतिक प्रकोप झेल रहे हैं। आज हम चांद, मंगल ग्रह, ब्रह्मांड एवं आकाश गंगा की खोज से आगे ज्ञान युग में जी रहे हैं। यदि न्यूयॉर्क एवं शिकागो में 200 मंजिल की ऊंची इमारतों में रहने वाले निर्बाध बिजली और पानी की सुविधा पा रहे हैं, तो हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते? सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, शैक्षणिक एवं पेशेवर गतिविधियां पानी एवं बिजली की निर्बाध आपूर्ति पर ही निर्भर हैं।
(जाने माने वैज्ञानिक)
वैज्ञानिक ज्ञान हमें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना जल संग्रहण सुविधाओं के निर्माण एवं सुधार तथा पनबिजली उत्पादन का आत्मविश्वास देता है। दुनिया की तमाम बड़ी नदियों पर ऊंचे बांध बने हैं। हिमालयी ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को लेकर गंभीर चिंता है।
भावी पीढ़ी को नागरिक सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए हिमालय के हिमनदों, नदियों और झीलों के वैज्ञानिक प्रबंधन के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई पारंपरिक या आध्यात्मिक पद्धति नहीं है, जो 21वीं सदी की बिजली-पानी की जरूरतों को पूरी कर सके। दूध डालने और शवों को प्रवाहित करने से कोई नदी साफ नहीं हो सकती।कुछ संतों ने गंगोत्री ग्लेशियर के सिकुड़ने को लेकर चिंता जताते हुए कहा है कि एक दिन मां गंगा भी प्राचीन सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हो जाएगी। लेकिन सरस्वती नदी के हड़प्पा काल (4000 ई.पू.) में भूवैज्ञानिक दोषों का पता नहीं लगाया जा सकता था। आज वैज्ञानिक उन्नति के दौर में हम इस स्थिति में हैं कि सुदूर भविष्य में होने वाले प्राकृतिक बदलावों को जान सकते हैं। आज भौगोलिक एवं जल विज्ञान संबंधी ज्ञान ने प्राकृतिक संसाधनों के सतत प्रबंधन को संभव बनाया है।
बेशक हम प्रकृति की ताकत को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की योजना एवं तैयारी तो कर ही सकते हैं। निर्माणाधीन परियोजनाओं से हम अगले पांच वर्षों में 50,000 मेगावाट पनबिजली प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी भविष्योन्मुखी विकास नीतियां निश्चित रूप से हजारों बेरोजगार युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराएंगी और उद्योगों को बढ़ावा देंगी। इतना ही नहीं, नागरिक सुविधाएं उपलब्ध होने की स्थिति में इंजीनियर, डॉक्टर एवं शिक्षक ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से भी नहीं हिचकेंगे। निर्माणाधीन बांधों एवं अन्य विकास परियोजनाओं के पूरा होने के लिए सामूहिक इच्छाशक्ति और सभी राजनीतिक दलों एवं संबंधित नागरिकों के सहयोग की जरूरत है।
नदियों का 'प्रदूषण' आज वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तथ्य है। केवल वैज्ञानिक पद्धति ही गंगा की पवित्रता को बहाल कर पाएगी। पानी से अपने पापों को धोना एक तर्कहीन विश्वास है। वेदों, उपनिषदों और भारतीय दर्शन में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि कोई नदी बुरे कर्मों के फल से बचा सकती है। इसीलिए मनुस्मृति में मनु ने कहा है कि अंधविश्वास से नहीं, बल्कि केवल तर्क के जरिये ही धर्म को जाना जा सकता है। गंगा की प्रतिष्ठा के लिए आंदोलनरत धर्माचार्यों से अनुरोध है कि वे भावी पीढ़ी के लाभ के लिए हिमालयी जल और पनबिजली की संभावनाओं के उपयोग की अनिवार्यता पर विचार करें।
एक अनुमान के मुताबिक, हिमालय के बर्फीले पानी में दो लाख मेगावाट बिजली संग्रहित है। ग्लेशियरों के भूवैज्ञानिक, जलवैज्ञानिक एवं भूकंपीय अध्ययनों ने गंगा की देखभाल की हमारी क्षमता को बढ़ाया है और बढ़ती आबादी को जीवनदायी पेयजल उपलब्ध करवाने के साथ-साथ जरूरी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की सीमा के अलावा हिमालय इस धरती पर बर्फीले पानी का सबसे बड़ा भंडार है। उदाहरण के लिए, कैलाश-मानसरोवर समुद्री तल से हजारों मीटर की सुरक्षित ऊंचाई पर सबसे बड़ा बर्फीले जल का सागर है।
ब्रिटेन के एक्सेटर यूनिवर्सिटी के प्रो स्टीफन हैरीशन के नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, 1999 से 2008 के दौरान हिमालयी ग्लेशियर प्रति वर्ष करीब 0.11 से 0.22 मीटर बढ़े हैं। इस अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि बर्फ में थोड़ी-सी बढ़त इस बात का संकेत है कि हिमालयी ग्लेशियर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की तरह ग्लोबल वार्मिंग से उतने प्रभावित नहीं हैं।
उन्नत नदी जल प्रबंधन के जरिये हम ग्रामीण एवं शहरी जीवन के अंतर को पाट सकते हैं। वैज्ञानिक ज्ञान हमें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना जल संग्रहण सुविधाओं के निर्माण एवं सुधार तथा पनबिजली उत्पादन का आत्मविश्वास देता है। दुनिया की तमाम बड़ी नदियों पर ऊंचे बांध बने हैं। हिमालयी ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को लेकर गंभीर चिंता है। रूस, कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के सुदूर उत्तरी इलाके के पर्वतीय क्षेत्रों में बांध निर्माण एवं नदी जल प्रबंधन से वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान हासिल करके हम हिमालयी क्षेत्र में सुरक्षित बांध बनाने की स्थिति में हैं। दुनिया भर में करीब 200 ऊंचे बांध बने हैं, जिनमें नील, वोल्गा एवं मिसौरी नदियों पर बने बांध शामिल हैं। चीन तो पहले ही सिंचाई एवं पेयजल आपूर्ति के साथ सौ से ज्यादा छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाएं पूरी कर चुका है।
उत्तराखंड विकास के चौराहे पर खड़ा है। और यह गंगा में पाप धोने से नहीं होगा। धर्मगुरुओं एवं आचार्यों को वैज्ञानिक विकास परियोजनाओं के खिलाफ भावनाएं भड़काने वालों का विरोध करना चाहिए। राज्य से युवाओं के पलायन पर रोक लगाने के लिए हमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के अंतर को पाटना ही होगा। जब सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में योग्य एवं प्रशिक्षित पेशेवरों की भारी कमी है, जब हजारों युवा बेरोजगार हैं, तो ऐसे में उपवास का क्या मतलब है?
पर्वतीय इलाकों में ग्रामीण बिना भोजन एवं आवास के प्राकृतिक प्रकोप झेल रहे हैं। आज हम चांद, मंगल ग्रह, ब्रह्मांड एवं आकाश गंगा की खोज से आगे ज्ञान युग में जी रहे हैं। यदि न्यूयॉर्क एवं शिकागो में 200 मंजिल की ऊंची इमारतों में रहने वाले निर्बाध बिजली और पानी की सुविधा पा रहे हैं, तो हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते? सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, शैक्षणिक एवं पेशेवर गतिविधियां पानी एवं बिजली की निर्बाध आपूर्ति पर ही निर्भर हैं।
(जाने माने वैज्ञानिक)
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