गंगा और नर्मदा : मां-बेटी दोनों ही संकट में है

दुनिया के पहाड़ों में हिमालय की उम्र सबसे कम है। दक्षिण की तरह ये पक्के पहाड़ नहीं है। जिस मैदान में मित्र-मिलन की बैठक चल रही थी उसी के सामने खड़े पहाड़ इस बात की साक्षी दे रहे थे। 839 फीट ऊंचे टिहरी बांध के फलस्वरूप बनने वाली झील में जब ये पहाड़ समा जाएंगे तो इतनी गाद पैदा होगी कि झीलें भर जाएंगी। साधारण आदमी भी इन पहाड़ों को देखकर यह बात समझ सकता है। भूकंपीय खतरे बांध तक ही सीमित नहीं होते वे आस-पास भी कहर बरसाते हैं। गंगा की मुख्य स्रोत भागीरथी करीब 200 किलोमीटर की यात्रा करके पौराणिक शहर त्रिहरी ‘टिहरी’ पहुंचती है। इस शहर से 15 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा-सा गांव है-सिराई। जो पहाड़ पर बसा हुआ है और उसकी तराई में जहां भागीरथी बहती है एक समतल मैदान है जिसे दोनों छोर के पहाड़ों, कलकल करती बहती भगीरथी तथा उसकी चमकीली रेत ने रमणीय और मनमोहक बना दिया है। हिमालय पर्वत की गोद में जाने कितने ऐसे रमणीय स्थल होंगे।

यह रमणीयता यहां के बाशिंदों के लिए केवल आत्मिक ही नहीं है, भौतिक भी है। हवा, पानी, मिट्टी, पेड़ जो प्राकृतिक छटा के अंग है, उनके जीवनाधार भी है। गंगोत्री से नीचे जाते हुए लोगों से पूछिए “कहां जा रहे हो?” वे कहते हैं - “गंगाघर” जा रहे हैं। गंगा उनकी मां है और उसके किनारे बने घर दूर गए बेटों की मां के घर है।

ऐसे अनगिनत घर डूब जाएंगे, करीब एक लाख लोग शरणार्थी बन जाएंगे चूंकि तत्कालीन उ.प्र. की सरकार का यह फैसला है कि टिहरी बांध बनकर रहेगा। केंद्र के ऊर्जा मंत्री श्री आरिफ मोहम्मद खान और पर्यावरण मंत्री श्रीमती मेनका गांधी टिहरी परियोजना के बारे में चाहे विपरीत मत रखते हों, वैज्ञानिकों की रिपोर्ट चाहे जो कहें, योजना आयोग ने चाहे टिहरी परियोजना पर रकम खर्च करने पर रोक लगा दी हो तथा पर्यावरण विभाग ने अभी स्वीकृति न दी हो लेकिन टिहरी में विकास निगम की गाड़ियां दौड़ रही है, मशीनें चल रही हैं, ब्लास्टिंग चालू है और बांध निर्माण का काम यथावत जारी है।

दूसरी ओर बांध विरोधी आंदलन भी चल रहा है। पर्यावरणविद् श्री सुंदरलाल बहुगुणा, ऊपर उल्लेखित गांव सिराई में, अपनी पत्नी विमला और पुत्र प्रदीप को लेकर बस गए हैं।

गांव-गांव में चर्चाएं चालू हैं। बांध के समर्थक और विरोधी दोनों ही चर्चाएं चला रहे हैं। ऐसे ही माहौल में भागीरथी तट पर बसे सिराई के उल्लेखित सुंदर मैदान पर पिछली मई की 30 व 31 को एक मित्र-मिलन हुआ।

पत्थरों का चबूतरा बनाकर उस पर रेत डाल दी गई थी ताकि आरामदायक मंच बन जाए और पंडाल के स्थान पर एक बड़ा वृक्ष था जिसकी छांव में लोग बैठ गए। कई लोगों को धूप में भी बैठना पड़ा लेकिन अधिकांश समय तक प्रकृति ने सहारा दिया-बादलों का छाता बनाए रही। आंधी भी आई और बौछार भी लेकिन उपस्थित लोगों की धीरज की परीक्षा लेकर चली गई।

मित्र-मिलन में करीब 75 पत्रकार, साहित्यकार, वैज्ञानिक, स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकर्ता, विश्वविद्यालयों के छात्र उपस्थित थे। इनके अलावा कुछ स्थानीय लोग भी उपस्थित थे, जिनमें महिलाएं अधिकांश संख्या में थी। उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी ओर से 12 राज्यों के लोग गोष्ठी में आए थे।

श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने गोष्ठी की भूमिका रखते हुए उपस्थित लोगों से कहा कि वे सतत् विकास की नीति पर विचार करें तथा इस दृष्टि से यह भी सोचें कि टिहरी बांध को कैसे रोका जा सकता है? गंगा बिक्री की वस्तु नहीं है जैसा कि आधुनिक कहे जाने वाले इंजीनियर और ठेकेदार समझते हैं।

गंगा लोगों की मां है। गंगोत्री से ऋषिकेश तक 8 बड़े-बड़े बांध बनाए जाने तथा हिमालय के एक बड़े भूभाग को नष्ट किए जाने की योजना है- इसका जिक्र करते हुए श्री बहुगुणा ने कहा कि गंगा और हिमालय तो मानवजाति की अमूल्य विरासत है।

एस.के. राय समिति ने सन् 86 के लगभग सरकार को समर्पित अपनी रिपोर्ट में यह निर्णय दिया था कि टिहरी बांध उचित नहीं है तथा खतरनाक है। आश्चर्य है कि शासन ने ऑफीशियल सीक्रेट एक्ट के अंतर्गत इसे प्रकाशित करने से मना कर दिया तथा यह रिपोर्ट सील बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट में पड़ी हुई है। उसके बाद “90 के प्रारंभ में जो भूमला-समिति की रिपोर्ट शासन को दी गई उसे भी प्रकाशित नहीं किया गया। यहां तक कि समिति के सदस्यों को भी रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई। एक सदस्य द्वारा तो अदालत में जाने की धमकी दिए जाने पर उन्हें रिपोर्ट की प्रति मिली।

अब तो रिपोर्ट का सार समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुका है तथा लोगों को यह पता चल गया है कि समिति ने एक राय से बांध बनाए जाने के खिलाफ अपना मत दिया है। शासन में प्रभावशील तबके इन रिपोर्टों के कारण बहुत संकट में फंस गए इसलिए समीक्षा के नाम पर फिर एक समिति ढोढियाल के नेतृत्व में बनाई गई।

गोष्ठी में बतलाया गया कि पांच सदस्यीय इस समिति में अधिकांश लोग वे ही लिए गए जिनके हित टिहरी बांध से जुड़े हुए थे। श्री ढोढियाल के बारे में कहा गया कि उन्हें पुरस्कार स्वरूप गढ़वाल विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनाया जा रहा है।

स्वाभाविक था कि इसकी रिपोर्ट बांध के पक्ष में जाती। लेकिन इस समिति के भी एक सदस्य श्री गौड़ ने यह आरोप लगाया कि उनके हस्ताक्षर का दुरुपयोग किया गया है तथा उन्होंने बांध के विरोध में अपना मत दिया था।

उपरोक्त तथ्यों की जब चर्चा हुई तो यह स्वाभाविक ही था कि गोष्ठी इस बात पर भी विचार करती कि तथ्यों को क्यों छिपाया जा रहा है, क्यों अलोकतांत्रिक कदम उठाए गए हैं तथा किन प्रभावशाली वर्गों के दबाव में विकास की नीतियां चलाई जाती है? इसी दौरान यह भी प्रश्न उठा कि जब टिहरी बांध के खिलाफ चल रही लड़ाई का तार्किक आधार इतना मजबूत है तो एक मजबूत जन-आंदोलन क्यों नहीं दिखाई देता?

श्री बहुगुणा के अतिरिक्त टिहरी बांध संघर्ष समिति के अध्यक्ष तथा प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री वीरेंद्र सकलानी तथा अन्य स्थानीय कार्यकर्ताओं ने विस्तार से इस बात की चर्चा की कि 78-80 में आंदोलन बहुत तीव्र हो गया था। जेलों में गिरफ्तार लोगों को रखने की जगह भी नहीं बची थी।

गांवों में कई रिटायर्ड वृद्ध फौजी हैं जिनके सामने आ जाने तथा अहिंसक सत्याग्रह में भाग लेने से एस.ए.एफ. के जवानों का मनोबल टूट गया था। लेकिन जब भय का हथियार कामयाब नहीं हुआ तो ठेकेदारों से मिलकर लोभ और लालच के हथियार का उपयोग शुरू कर दिया है।

झूठे वायदों तथा दलालों के बल पर लोगों को पुनर्वासन के मायाजाल में फंसाया जा रहा है। ठेकेदार, इंजीनियर और राजनीतिज्ञ का गठबंधन है। ये लोग प्रभावशाली हैं कि जन-विकास नीतियों के खिलाफ कुछ लोगों के फायदे वाली विकास नीतियों को मनवा लेने में कामयाब हो जाते हैं। विकासखंड से लेकर दिल्ली तक यह गठबंधन प्रभावशाली है।

गोविंदवल्लभ पंत एवं गढ़वाल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. वीर सिंह एवं प्रेमप्रकाश ने संगोष्ठी में भूकंपीय खतरों एवं भौगोलिक अवस्थाओं का जिक्र किया। दुनिया के पहाड़ों में हिमालय की उम्र सबसे कम है। दक्षिण की तरह ये पक्के पहाड़ नहीं है।

टिहरी बांधजिस मैदान में मित्र-मिलन की बैठक चल रही थी उसी के सामने खड़े पहाड़ इस बात की साक्षी दे रहे थे। 839 फीट ऊंचे टिहरी बांध के फलस्वरूप बनने वाली झील में जब ये पहाड़ समा जाएंगे तो इतनी गाद पैदा होगी कि झीलें भर जाएंगी। साधारण आदमी भी इन पहाड़ों को देखकर यह बात समझ सकता है।

भूकंपीय खतरे बांध तक ही सीमित नहीं होते वे आस-पास भी कहर बरसाते हैं। इस बात को और आगे बढ़ाते हुए वायुसेना के अवकाश प्राप्त एक अफ़सर श्री विश्नोई ने बतलाया कि जब रक्षा समिति की रपट यह कहती है कि कोई विशिष्ट खतरा नहीं है तब इसका अर्थ यही है कि खतरा तो है। यद्यपि वायुसेना बहुत सक्षम है लेकिन फिर भी इसका अर्थ यही है कि खतरा तो है। यद्यपि वायुसेना बहुत सक्षम है लेकिन फिर भी युद्ध युद्ध है। बांध के टूट जाने पर जो तबाही होगी उसकी कल्पना ही भयावह है।

साहित्यकार श्री विद्यासागर तथा श्री जयाल आदि ने पहाड़ी संस्कृति तथा उसके प्रकृति के साथ अटूट रिश्ते का जिक्र करते हुए बतलाया कि जो विनाश होगा उसे भौतिक आंकड़ों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। स्वामीकमलानंद ने कहा कि टिहरी त्रिहरी का अपभ्रंश है। पुराणों में कहा गया है कि घोर संकट के समय ब्रह्मा, विष्णु और महेश इसी स्थान पर आकर सलाह मशविरा करते थे इसीलिए इसे त्रिहरि कहा गया है।

समाजशास्त्री श्री नागेंद्रदत्त, डेविड, रमेश बिल्लौर, प्रदीप , करुणा आदि ने बतलाया कि इस अलाभकारी योजना पर एक रुपया खर्च करने पर कुल 56 पैसे प्राप्त होंगे अर्थात् 44 पैसे का घाटा होगा। उत्तरकाशी में बने मनेरी बांध, जिसमें नगण्य विस्थापन हुआ, का जिक्र करते हुए वैकल्पिक योजनाओं को चलाने का आग्रह हुआ।

रोजगार का हल यही है पुनवर्सन के नाम पर जो रकम बांटी गई है वह रकम शराब और जुए में खर्च हो रही है तथा नैतिक मूल्यों का घोर पतन हो रहा है इसकी चर्चा हुई तथा स्थानीय लोगों ने गांव-गांव जाकर लोगों को संगठित करने का संकल्प व्यक्त किया।

गोष्ठी में लक्ष्मी आश्रम की लड़कियों के गीत, कवियों की जोशीली कविताएं, चमनलाल चमन का संगीत दो दिन की लंबी बहस को न केवल सरसता प्रदान करता रहा बल्कि उसने नया जोश भी पैदा किया। लड़कियों द्वारा गाए गए सामूहिक गीत “भगीरथी की घाटी में अब लड़ाई जारी है, बढ़े चलो, बढ़ चलो रोकना विनाश है” इन शब्दों की गूंज दूर-दूर तक फैली होगी ऐसा लगता है।

इस अवसर पर रुड़की विश्वविद्यालय एवं जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कुछ युवक-युवतियां, पत्रकार लपालीकर, अन्य पत्रकार एवं स्थानीय लोग गंगोत्री से एक पैदल यात्रा के जरिए ऋषिकेश पहुंचे। विकास की विनाशकारी योजनाओं के प्रति जागरुकता फैलाना इस यात्रा का उद्देश्य था।

गोष्ठी ने एक वक्तव्य अंगीकृत कर यह घोषणा की कि वह प्रकृति के विनाश एवं लोभ लालच पर आधारित तथाकथित आधुनिक विकास के खिलाफ है तथा इसे बदलने पर दृढ़ है। इसके लिए टिहरी, नर्मदा या अन्य बड़े बांधों और आणविक केंद्रों को रोकना जरूरी है। गोष्ठी में चर्चा के दौरान बार-बार नर्मदाघाटी में चल रहे आंदोलन का जिक्र हुआ तथा यह विख्यात किया गया कि दोनों आंदोलन एक दूसरे से जुड़कर चलें। एक वक्ता ने कहा कि गंगा मां है और नर्मदा उसकी बेटी है । आज मां-बेटी दोनों ही संकट में है।

साभार-सप्रेस, प्रस्तुत लेख 03 फरवरी 1995 में छपी स्व. ओमप्रकाश रावल स्मृति निधि पुस्तक से

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