आज लाखों लोग गंगा के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। वे गंगा-जल की निर्मलता चाहते हैं, गंगा में नालों, सीवरों और उद्योगों के केमिकल युक्त कचरों के मिला देने से गंगा मैली हो गई है। गंगा भारत की नदियों में प्रमुख पवित्र नदी है। गंगा किसी के लिए आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, तो किसी के लिए मोक्षदायनी। गंगा अपने अविरल प्रवाह से पर्यावरण को हरा भरा बनाती है, खेतों को सींचती है, अन्न और औषधियां उगाती है, तो तटवर्ती हजारों हाथों को अनेक प्रकार से रोजगार देती है, गंगा हर प्रकार से जीवनदायनी नदी है।
आज ही नहीं सैकड़ों वर्षों से विश्व के सभी जागरूक प्रकृति वैज्ञानिकों, अन्वेषणकर्ताओं ने गंगा के महत्व को स्वीकार किया है। जनकल्याणी विचारक, वैज्ञानिक, गंगावतरण के काल शिल्पी राजा भगीरथ ने अनेक वर्षों तक तपस्या के पश्चात हिमालय से गंगा को धरती पर उतारा था, जिसे उनके पूर्वज राजा सागर बहुत प्रयत्नों के पश्चात भी सफलता पूर्वक नहीं ला पाए थे और उनके सैकड़ों परिवार-जन, काल शिल्पी और नागरिक इस प्रयास में हादसों का शिकार हुए थे।
राजा भगीरथ के इस वन्दनीय प्रयास से जहां अन्न, पेयजल, वनस्पतियां ही नहीं उपलब्ध हुईं, बल्कि मानव से लेकर जलचर, नभचर और जीव जंतुओं तक के लिए गंगा जीवनदायनी नदी बन गई। ‘गंगा’ की पवित्रता का ध्यान भी समाज जीवन को निर्देशित करने वाले ऋषि तुल्य नागरिकों ने उसी समय से रखना आरम्भ कर दिया था। गंगा स्नान के लिए एक संहिता का निर्माण भी मनु आदि ऋषियों ने किया, जिसमें उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि गंगा-जल की पवित्रता व शुद्धता बनाए रखने के लिए नागरिकों को इन नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा। दीर्घकाल तक गंगा-जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए जन-सामान्य को धार्मिक क्रियाओं, उद्बोधनों आदि के माध्यम से सचेष्ट किया जाता रहा।
इसी कारण सैकड़ों वर्षों तक गंगा-जल अपनी अद्भुत क्षमताओं को बनाए रखकर लोगों को लाभान्वित करता रहा। गंगा के महत्व को प्रत्येक युग में प्रतिपादित किया गया है। चक्रपाणिदत्त ने 1060 में कहा कि हिमालय से निकलने के कारण ‘गंगा-जल’ पथ्य है तो अठारहवीं शताब्दी के एक ग्रंथ ‘भोजन कौतूहल’ में गंगा-जल को श्वेत, स्वादु, स्वच्छ, अत्यंत रुचिकर, पथ्य, पाचनाक्ति बढ़ाने वाला, सब पापों को हरने वाला, प्यास को शांत तथा मोह को नष्ट करने वाला, क्षुदा और बुद्धि को बढ़ाने वाला बताया है।
‘गंगा-जल’ के महत्व को प्रतिपादित करने वाले अनेक ग्रंथ और लोक कथाएं हैं जो हिन्दू जीवन में गंगा जल के महत्व को रेखांकित करती हैं, किंतु उसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि ‘गंगा’ का महत्व केवल ‘हिन्दू’ धर्मावलम्बियों में ही था, बल्कि अन्य देशी-विदेशी लोग भी गंगा के महत्व को उतना ही समझते और मानते थे। ‘इब्नबतूता’ अपनी भारत-यात्रा के वर्णन में लिखते हैं कि ‘सुल्तान मुहम्मद तुगलक’ के लिए गंगा-जल दौलताबाद जाया करता था। ‘आईने अकबरी’ में ‘अबुलफजल’ कहते हैं कि ‘बादशाह गंगा-जल को अमृत समझते हैं और जब बादशाह अकबर का प्रवास आगरा होता है, तब गंगा-जल सोरों से आता है और जब पंजाब जाते हैं, तो गंगा-जल हरिद्वार से आता है, इसके लिए उनके विश्वास पात्र लोग गंगातटों पर तैनात थे।’
फ्रांसीसी यात्री बर्नियर जो 1459-67 तक भारत में रहे अपने यात्रा विवरण में उल्लेख करते हैं कि ‘‘दिल्ली और आगरा में औरंगजेब के लिए खाने-पीने की सामग्री के साथ गंगा-जल भी रहता था, स्वयं बादशाह ही नहीं, दरबार के अन्य लोग भी गंगा-जल पान करते थे।’’ फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर ने अपने भारत-भ्रमण उल्लेख में कहा है कि बहुत से मुसलमान नबाव गंगा-जल पीते थे। ब्रिटिश सेना कप्तान एडवर्ड मूर ने भी नबावों के गंगा-जल पान का उल्लेख किया है। ‘रियाजु-स-सलातीन’ में गुलाम हुसैन ने लिखा है कि - मधुरता, स्वाद और हल्केपन में गंगा-जल के बराबर कोई दूसरा जल नहीं है। सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें गंगा-जल के महत्व को सभी ने स्वीकार किया है। रोगों से मुक्ति ही नहीं, कर्जे से मुक्ति, पापों से मुक्ति और जीवन से मुक्ति के लिए भी गंगाजी को आस्थावान लोगों ने माध्यम बनाया है।
जन्म, विवाह, सामूहिक भोज से लेकर मृत्युभोज तक में गंगा-जल की अनिवार्यता सर्वमान्य है। सैकड़ों सन्तों, ऋषियों, चिन्तकों ने गंगा किनारे रहकर मानव कल्याण के हजारों सूत्र ढूंढे हैं। गंगा-जल से ही पण्डितराज जगन्नाथ का कुष्ट रोग दूर हुआ और गंगा-जल को ही कविवर रैदास ने अपनी गंगा भक्ति की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए अपनी कठौती में प्रकट कर दिया था। तुलसीदास ने भी स्थान-स्थान पर देवनदी की स्तुति की है। गंगा ने भारत के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय, जाति-पंथ को जीवन देकर प्रभावित किया है।
भारत के हिन्दी साहित्य में जहां गंगाजी की वन्दना और स्तुतियों का भंडार मिलता है, वहीं मुस्लिम कवियों और साहित्यकारों ने भी गंगा के महत्व को अपनी रचनाओं में खूब प्रतिपादित किया है। कविवर दीन मुहम्मद ‘दीन’ ने कहा है कि - ‘नदियों का पानी अमृत है, पावन गंगा-जल है’ वहीं राही मासूम रजा ने कहा कि -
“मुझे ले जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना,
वो मेरी मां है, वह मेरे वदन का जहर पी लेगी’’
सैयद गुलाम नबी ‘रसलीन’ लिखते हैं कि -
“पतितन तारिबे की रीति तेरी ऐसी गंग
पायी ‘रसलीन’ आन्ह तेरेई प्रमाण पै’’
आगरा के कवि वहीद बेग ‘शाद’ ने कहा कि ‘इस मां ने बेटों को इतना प्यार दिया है, पाप विनाशिनी गंगा जैसा दरिया बहा दिया है।’ वाहिद अली ‘वाहिद’ ने गंगा के महात्म्य पर कहा है कि - ‘राजा भागीरथ के तप से इस भारत भूमि पर छा गई गंगा’। देश के अन्य भाषा-भाषी सैकड़ों कवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने आदिकाल से आज तक गंगा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसकी उपयोगिता सिद्ध की है।
भारत की इतनी एतिहासिक और पवित्र नदी अपने अस्तित्व के लिए भी संघर्ष करेगी, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। हिमालय से निकलकर गंगा लगभग 2500 किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए बंग्लादेश तक पहुंचती है। उसने अपने तट पर अनेक पावन तीर्थ स्थलों को बसाया है, लेकिन आज वह जहां-जहां से होकर निकल रही है, वहीं-वहीं उसे लोग मैला कर रहे हैं। धार्मिक-रीति रिवाजों के नाम पर उसमें यज्ञ की राख, पूजा की सामग्री, अस्थियां और लाशों, पॉलीथिन, कूड़ा-करकट बहाया जा रहा है, तो लगभग 140 से अधिक गंदे नाले गंगा में गंदगी उड़ेले जा रहे हैं, यदि आकड़ों की बात करें तो प्रतिदिन लगभग 6,000 मिलियन गंदा पानी गंगा में उड़ेला जा रहा है, तथा लगभग 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा गंगा में प्रतिदिन मिल रहा है, यह सब तो केवल आंकड़े हैं, यथार्थ तो यह है कि गंगा अपने उद्गम स्थान से थोड़ी दूर चलने पर ही उत्तराखंड के पार्श्व में ही गंदी होने लगती है। गंगा के किनारों पर बसने वाली बस्तियों की गंदगी से लेकर नाली-नालों और मेले-त्योहारों का सभी मैल गंगा में घुल मिल जाता है।
गंगा को निर्मल बनाने के लिए देश में अनेक प्रदर्शन, सभाएं और आन्दोलन भी हुए हैं, उन्हीं के दबाव में विभिन्न कानून बने, जिनमें गंगा की सफाई के बड़े-बड़े दावे किए गये थे। 1988 में गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत भी इसी दबाव का हिस्सा थी, लेकिन करोड़ों रुपये बह जाने के बाद भी गंगा निर्मल नहीं हो सकी, हां कुछ लोग माला-माल जरूर हो गए। 1994 में एक्शन प्लान फेस-2 आरम्भ हुआ परन्तु परिणाम शून्य ही रहे। 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया और 2009 में गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी का गठन हुआ। परन्तु गंगा पहले से भी अधिक मैली होती गई।
गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के लिए ‘गंगा-समग्र’ नामक संगठन के माध्यम से ‘उमा भारती’ ने अराजनीतिक एजेंडे के तहत अभियान चलाया। गंगा के किनारे अपनी गंगा यात्रा के माध्यम से जन-जागरण किया। नरेन्द्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनने से पूर्व ही अपने चुनाव अभियान के दौरान गंगा को निर्मल और अविरल बनाने का वायदा किया। जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने सरकार के पहले बजट में ही बड़ी धनराशि की व्यवस्था कर दी है। गंगा के लिए अलग मंत्रालय का गठन, सुश्री उमा भारती को उसका मंत्री बनाया जाना, यह सब गंगा अभियान की ओर बढ़ते कदम हैं।
07 जुलाई 2014 को विज्ञान-भवन दिल्ली में गंगा की स्वच्छता को लेकर देश-भर के पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक, शंकराचार्य, साधु-संतों, अधिकारियों की सेमिनार सरकार द्वारा आयोजित की गई। इस सेमिनार में भी पहली बार गंगा की स्वच्छता को लेकर जहां बड़ी संख्या में उपस्थित लोग उत्साहित और आवस्त थे, वहीं सरकार के चार मंत्री उमा भारती, नितिन गड़करी, प्रकाश जावडेकर, और संतोष गंगवार की पूरे समय उपस्थिति ने सरकार की गंभीरता को रेखांकित किया, सेमिनार में प्रस्तावों पर चर्चा हुई तथा उन्हें सरकार की योजना में शामिल करने का आश्वासन भी मिला।
गंगा की अविरलता में तो सरकार की बड़ी भूमिका हो सकती है, परन्तु उसकी निर्मलता के लिए सरकार की भूमिका के साथ-साथ समाज की जागरुकता भी बहुत आवश्यक है। गंगा और उसकी सहयोगी नदियों को स्वच्छ, सुन्दर, स्वस्थ्य और सुचारु रखने में हमारी भी बड़ी जिम्मेदारी है। जिससे बचा नहीं जा सकता। लगता है अब गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने का समय आ गया है।
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