गंगा

विष्णु पदी धवला विमला शिव शीश जटा बिच शोभित गंगा।
पांव धरे जिस राह भगीरथ दौड़ पड़ी उस ओरही गंगा।
पाप हरे सब जीवन के दुख दूर करे यह पावन गंगा।
दूषित नित्य किया हमने यह सोचत ही नित रोवत गंगा।।

गोमुख से निकसी विकसी हिम शीतल निर्मल पावन गंगा।
तोड़ शिला करती नित नर्तन पर्वत-पर्वत अल्हड़ गंगा।
खेत धरा पर नेह बहा करती निधि वैभव पूरित गंगा।
तीरथ धाम बना तट कूलन उत्सव रोज मनावत गंगा।।

राह चले दिनरात करे श्रम कर्म सुपंथ दिखावत गंगा।
कंटक कानन सुष्मित कूलन गीत सुमंगल गावत गंगा।
संत असंत गरीब अमीर सभी मन राचत भावत गंगा।
पापिन के सब पाप हरे अरू जीवन कष्ट मिटावत गंगा।।

आदि अनादि सनातन नूतन संस्कृति की परिचायक गंगा।
दर्शन अर्चन अर्पण तर्पण भाव सभी मन पूजित गंगा।
प्राण समान बसी सबके हिय जीवन का अनुगूंजन गंगा।
मात समान दुलार करे भव सागर पार लगावत गंगा।।

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Post By: RuralWater
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