ग्लोबल वार्मिंग, समय रहते उठाने होंगे कदम

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव (फोटो साभार - द हिन्दू)ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये तेज और व्यापक बदलाव की आवश्यकता है।

कुछ लोगों के लिये किसी प्रश्न का हाँ में उत्तर देना मुश्किल भरा काम है। यदि यह पूछा जाये कि मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन क्या वास्तविक है? तो जलवायु वैज्ञानिकों के बीच लगभग आम सहमति है क्योंकि 97 प्रतिशत का जवाब हाँ है। वहीं नहीं में उत्तर देने वाले कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके बारे में यह निश्चित नहीं है कि वे नकारात्मकता से बाहर क्यों नहीं आना चाहते। इन लोगों में दुनिया के शक्तिशाली लोग भी शामिल हैं जैसे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प।

ये मौसम वैज्ञानिकों की वैश्विक तापमान में वृद्धि को रोकने के लिये तेज गति से ठोस कदम लिये जाने के सुझाव के सख्त विरोधी हैं क्योंकि ये मानते हैं कि वैज्ञानिक राजनीतिक एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं। पिछले रविवार को प्रसारित हुए एक इंटरव्यू के दौरान डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा था “लेकिन मैं नहीं जानता कि यह मानव निर्मित है।” वैज्ञानिक तथ्यों के प्रति नकारात्मक नजरिया रखने वाले अकेले ट्रम्प ही नहीं हैं। राजनीति से जुड़े ऐसे बहुत से शक्तिशाली लोग हैं जो ट्रम्प के सामान ही नजरिया रखते हैं। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से निपटने में इस तरह की लचर राजनीतिक इच्छाशक्ति सभी को प्रभावित कर सकती है।

भविष्य में पूरी पृथ्वी को प्रभावित करने वाली में सक्षम इस वैश्विक संकट को इस सप्ताह हमने फिर याद किया जब शोधकर्ताओं के समूह ने इसकी चर्चा की। उनके अनुसार ग्लोबल वार्मिंग सम्पूर्ण पृथ्वी के लिये भयानक साबित हो सकता है।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (Intergovernmental Panel on Climate Change) ने 8 अक्टूबर को जारी किये गए रिपोर्ट में कहा है कि मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों ने औद्योगीकरण के पूर्व की तुलना में वैश्विक तापमान को 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। उसने रिपोर्ट में यह भी कहा है कि यदि वृद्धि की दर यही रही तो 2030 से 2050 तक में विश्व के तापमान 0.5 डिग्री की अतिरिक्त वृद्धि हो जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि तापमान में यदि 1.5 प्रतिशत की वृद्धि होती है तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे। पूरे विश्व में समुद्र स्तर में वृद्धि होगी, वर्षा की मात्रा में अनिश्चितता रहेगी, वर्षा बहुत तेज गति से होगी, बाढ़ और सूखे की समस्या बढ़ेगी, हीट वेव और जंगल में आग लगने की घटनाओं में कमी होगी और चक्रवात का प्रभाव बढ़ेगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर समय रहते समुचित कदम नहीं उठाया गया तो तापमान में वृद्धि का स्तर 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच सकता है और इस स्थिति में परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं।

महज आधे डिग्री का अन्तर सुनने बहुत छोटा लगता है लेकिन इसके प्रभाव से पानी की कमी, बाढ़ के प्रभाव में और भी वृद्धि के साथ ही जीवन को खतरे में डालने वाली गर्म हवाएँ ज्यादा घातक हो सकती हैं। 1.5 डिग्री और 2 डिग्री सेल्सियस के फर्क को इस उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो विश्व की 14 प्रतिशत आबादी को अत्यधिक गर्मी सहनी होगी और यह 2 डिग्री पहुँच जाता है तो 37 आबादी गर्मी की चपेट में होगी।

भारत के लिये तापमान में वृद्धि विश्व के अन्य देशों से ज्यादा खतरनाक साबित होगा। लोगों को प्रभावित करने के साथ ही इसके आर्थिक प्रभाव भी होंगे। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसी महीने जारी एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न हुई आपदाओं के कारण देश को पिछले 20 वर्षों में 79.5 बिलियन अमरीकी डॉलर से हाथ धोना पड़ा है। अतः यह जाहिर है कि इन खतरों से निपटने के लिये तेजी से कदम उठाने की जरूरत है।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के अनुसार कुछ वर्षों में विश्व की पूरी अर्थव्यवस्था में बदलाव की जरुरत होगी। इस ओर ज्यादा जोर दिये जाने की जरुरत है। हमारा राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व आज भी आर्थिक विकास के प्रति आशक्त है।

यह स्थिति खासकर भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में ज्यादा प्रभावी है। इन देशों के नेतृत्वकर्ता इस बात से कोई खास सरोकार नहीं रखते कि विकास सम्बन्धी इन गतिविधियों के क्या परिणाम होंगे। हमें एक कठोर अर्थशास्त्र की जरुरत है जिसे बिना कठोर राजनीतिक कार्यवाई के हासिल नहीं किया जा सकता है।

बीच का रास्ता

ढेरों पर्यावरणविद इस बात से सहमत हैं कि हम आर्थिक विकास की ऊँचाई को छू चुके हैं और हमें अब और अनियोजित विकास की जरूरत नहीं है। उनके अनुसार रहन-सहन के मानक को लगातार बेहतर बनाने की होड़ में प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित रूप से दोहन हो रहा है जो सतत विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है।

निर्णयकर्ता इस बात को लेकर अभी भी उहापोह में हैं कि रुढ़िवादी अर्थशास्त्र और कट्टरपंथी पर्यावरणवाद के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया जाये। यह मात्र एक संयोग था या कुछ और कि जिस दिन इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी चिन्ताजनक रिपोर्ट जारी किया उसी दिन विलियम नॉरडॉस और पॉल रोमर को संयुक्त रूप से जलवायु के अनुसार आर्थिक विकास का एक मॉडल विकसित करने के लिये नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पॉल रोमर एक खोजपरक विचारक हैं।

नॉरडॉस का काम अवसरों को छोड़ देने और ज्ञान की अनदेखी करने वालों के लिये सबक है। वे 1970 के दशक से यह बताते रहे हैं कि किस तरह विकसित हो रही अर्थव्यवस्था विभिन्न ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि कर ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा दे रही हैं। लेकिन उनकी बातों पर इन गैसों के उत्पादनकर्ताओं ने कोई ध्यान नहीं दिया। विश्व के सभी हिस्सों में आर्थिक योजनाओं के निर्माणकर्ताओं ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1992 में नॉरडॉस ने एक मॉडल द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के स्राव को कम करने का मॉडल विकसित किया जो ग्रीनहाउस गैसों में सबसे कॉमन गैस है।

नॉरडॉस द्वारा सुझाए गए मॉडल के अनुरूप अब मुख्यधारा के अर्थशास्त्री इस पक्ष में हैं कि कार्बन टैक्स लगाया जाये। लेकिन नॉरडॉस के सुझाव को अमल में लाने में बहुत देर हो चुकी है। जब तक नीति-निर्माता एक जिम्मेदाराना विकास के विचार को गले नहीं लगाते इस तरह के टैक्स लगाने का भी कोई लाभ नहीं होगा। इस तरह के टैक्स के दायरे में बड़े औद्योगिक घरानों को भी लाना होगा जिसके लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है। बड़े उद्योग ही ग्रीनहाउस गैंसों के उत्सर्जन के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेवार हैं।

इस वास्तविकता को सबसे अच्छी तरह से शायद ट्रम्प ने व्यक्त किया है। “मैं अरबों-खरबों डॉलर नहीं देना चाहता। मैं लाखों-करोड़ों नौकरियाँ खोना नहीं चाहता। भले ही धरती कितनी ही गर्म हो जाये मैं किसी कीमत पर नुकसान नहीं उठाऊँगा।

लेखक IndiaClimateDialogue.net के मैनेजिंग एडिटर हैं।

स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिये लिंक देखें।

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