ग्लोबल वार्मिंग की जल सेक्टर को चेतावनी

नदी बेसिन
नदी बेसिन

नदी बेसिन (फोटो साभार - इण्डिया डब्ल्यूआरआईएस)8 अक्टूबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र के अन्तर सरकारी पैनल (आई.पी.सी.सी.) की जलवायु परिवर्तन पर जारी हालिया रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि वैश्विक तापमान, उम्मीद से अधिक, तेजी से बढ़ रहा है। यदि कार्बन उत्सर्जन में समय रहते कटौती नहीं हुई तो उसका विनाशकारी प्रभाव हो सकता है। उसका विनाशकारी प्रभाव भारत पर भी देखने को मिलेगा। भारत को भी जी.डी.पी. की गिरावट के अलावा बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं से दो-चार होना पड़ेगा।

पृथ्वी पर वैश्विक तापमान की वृद्धि का कारण औद्योगिक क्रान्ति है। उसके कारण पृथ्वी का तापमान 1.0 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। आई.पी.सी.सी की हालिया रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि इसी दर से धरती गरम होती रही तो सन 2030 और 2050 के बीच ग्लोबल वार्मिंग का स्तर 1.5 डिग्री तक बढ़ सकता है। यह बढ़ोत्तरी पिछली बढ़ोत्तरी की तुलना डेढ़ गुनी अधिक होगी।

इस संकट के बारे में पोलैंड में दिसम्बर 2018 में दुनिया भर के नेता एकत्रित होंगे और चर्चा करेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे आई.पी.सी.सी की हालिया रिपोर्ट का संज्ञान लेंगे। कुछ लोगों का मानना है कि सन 2100 तक वैश्विक तापमान की यह बढ़ोत्तरी 4 डिग्री तक हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो धरती पर से अनेक प्रजातियों का विनाश हो जाएगा और जल सेक्टर सहित कुदरती संसाधन बहुत बुरी तरह प्रभावित होंगे।

आई.पी.सी.सी की हालिया रिपोर्ट में एक डिग्री तापमान के बढ़ने के कारण मौसमी घटनाओं, आर्कटिक की बर्फ के पिघलने और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के उल्लेख के साथ-साथ संकेत है कि यदि धरती का तापमान इसी प्रकार बढ़ता रहा तो समाज को कुछ ऐसे पर्यावरणी बदलाव देखने को मिल सकते हैं जिनमें सुधार कर पाना सम्भव नहीं होगा।

विदित हो कि पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान के वैज्ञानिक डॉ. आर. एम. कौल, जो आई.पी.सी.सी की इस रिपोर्ट के समीक्षकों में एक थे, के अनुसार दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत, चीन और पाकिस्तान, तेजी से बढ़ते वैश्विक ताप बढ़ोत्तरी के केन्द्र हैं।

इस कारण इन देशों को भयावह सूखा, पानी की गम्भीर कमी, लू (ग्रीष्म लहर), पर्यावरणी आवासों का क्षरण और कृषि उत्पादन में होने वाली कमी को झेलना पड़ेगा। डॉ आर.एम.कौल ने तापमान की 2 डिग्री बढ़ोत्तरी की सम्भावना की स्थिति में होने वाले सम्भावित खतरों पर भी अपनी राय रखी है। यह कहना सामयिक है कि जलवायु बदलाव के पुख्ता संकेत दिखने भी लगे हैं। उनसे होने वाली हानि का असर समाज, अर्थव्यवस्था, खेती इत्यादि पर अनुभव भी हो रहा है।

आईपीसीसी के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के लिये 6 गैसें जिम्मेदार हैं। इनमें से 3 गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड) का स्रोत बड़े बाँध हैं। ब्राजील की इवान लिमा के अनुमान के अनुसार भारत के बड़े बाँधों से हर साल लगभग 33.5 मिलियन टन ग्रीन हाउस गैसें पैदा होती हैं। इसके अलावा जब मीथेन गैस जलाशय की तली से ऊपर उठती है तो उसका कुछ भाग ऑक्सीकृत होकर कार्बन डाइऑक्साइड में बदल जाता है।

अनुमान है कि पूरी दुनिया के बड़े बाँधों से हर साल लगभग 120 मिलियन टन मीथेन पैदा होती है। इस कारण ग्लोबल वार्मिंग के पक्षधर जल सेक्टर पर ग्रीन हाउस गैसों की गहराती इस गम्भीर चुनौती को लक्ष्मण रेखा के भीतर लाने की आवश्यकता पर जोर देते हैं।

जलवायु परिवर्तन के असर से भारत के समुद्र तटीय पूर्वी मैदानों, पूर्वी घाट, उत्तर की पहाड़ियों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों में बरसात का औसत सुधरा है। इन इलाकों में अति वर्षा की स्थितियाँ बन रही हैं।

आँख खोलने वाला हालिया उदाहरण केरल का है जहाँ अतिवर्षा और बाँधों से पानी छोड़ने के कारण अकल्पनीय बाढ़ आई और तीन सप्ताह के बाद ही नदियों में प्रवाह की कमी और जलस्रोतों के असमय सूखने की घटना परिलक्षित हुई। केरल के अलावा, देश के अनेक भागों से नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह के कम होने तथा सूखे के संकट के संकेत मिल रहे हैं। ये उदाहरण बाढ़ और सूखे के द्योतक हैं। उनकी पुनरावृत्ति कहीं भी हो सकती है। वे, इस मायने में जल सेक्टर की सम्भावित चुनौती के वास्तविक संकेतक के रूप में उभर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन और बरसात की प्रकृति में हो रहे बदलावों की पृष्ठभूमि में बाढ़ तथा सूखे की ऐसी घटनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति, बाँधों की साइज, उनमें संचित पानी की मात्रा और उनके ठिकाने तय करने तथा भूजल संवर्धन पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

सम्भवतः भविष्य में सूखे से निपटने के लिये जल संग्रहण की फिलासफी को नए तरीके से परिभाषित भी करना पड़ सकता है। मौजूदा नजरिया भी बदलना पड़ सकता है। यह जल सेक्टर पर गहरा रहे संकट की अद्यतन चेतावनी है।

जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के 68 प्रतिशत भूभाग, जहाँ से बरसात घटने के संकेत मिल रहे हैं, में जल उपलब्धता कम होगी। जल उपलब्धता कम होने से नदियों के सूखने की गति बढ़ेगी, रीचार्ज प्रभावित होगा, भूजल का प्रदूषण बढ़ेगा, प्रदूषित जल की मात्रा बढ़ेगी, खाद्यान्नों में हानिकारक एवं विषैले पदार्थों की मात्रा बढ़ेगी, अनुपचारित सीवेज की समस्या गम्भीर होगी और बीमारियाँ बढ़ेंगी।

इन इलाकों में पहले से बने बड़े और मध्यम बाँध कम भरेंगे, भूजल की उपलब्धता घटेगी और सिंचाई का रकबा कम होगा। कुछ इलाकों में पेयजल की पूर्ति अत्यन्त कठिन हो जाएगी और पानी के कारण आबादी का कुछ भाग जल-शरणार्थी बनेगा। बंजर जमीन का रकबा बढ़ेगा और जंगलों का घनत्व कम होगा। थार मरुस्थल के रकबे का विस्तार होगा और अनेक प्रजातियाँ हमेशा-हमेशा के लिये विलुप्त हो जाएँगी।

जल सेक्टर पर गहराता संकट मानव निर्मित संकट है। उसके कारण नदियाँ मर रही हैं। कछार बीमार हो रहे हैं। कछारों की पानी देने की क्षमता कम हो रही है। उसके कारण अनेक इलाकों में सामान्य बरसात होने के बावजूद बाँध आधे-अधूरे भर रहे हैं। नदियों में पनपने वाली बायोडायवर्सिटी खतरे में है।

कहीं-कहीं वह खत्म भी हो चुकी हैं। पानी की कमी से कैचमेंट सूख रहे हैं। जंगल बीमार हो रहे हैं। उनकी भूमिका को ग्रहण लग गया है। तापमान बढ़ने के कारण वृक्षों की कार्बन डाइऑक्साइड को संग्रहित करने की क्षमता कम हो रही है। कोलोराडो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जान मिलर के अनुसार वनस्पतियों की सही क्षमता आँकने के लिये और अधिक अनुसन्धान करने की आवश्यकता है।

जल सेक्टर को बचाने के लिये तत्काल प्रयास प्रारम्भ करने की आवश्यकता है। इस प्रयास में सम्भावित खतरों को पहचान कर जल सेक्टर सहित पर्यावरण की रक्षा के लिये सार्थक कदम उठाने की आवश्यकता है। जल सेक्टर पर गहराती सभी समस्याओं को पर्यावरण की लक्ष्मण रेखा के भीतर लाने और निरापद विकास को वरीयता देने तथा लालच पर नियंत्रण लागू कर सुलझाया जा सकता है। वही सुरक्षित मार्ग है। वही जल सेक्टर के सुरक्षित भविष्य का बीमा है।

 

 

 

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