ग्लोबल वार्मिंग समूची दुनिया के लिये एक गंभीर समस्या है। इसमें दोराय नहीं कि दुनिया के देशों और उनके नेतृत्व द्वारा इस समस्या से निपटने की दिशा में अनेकानेक प्रयास किए गए, वैश्विक स्तर पर सभा-सम्मेलन आयोजित किए गए, उनमें प्रस्ताव भी पारित किए गए, लेकिन उनका कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ सका। पेरिस सम्मेलन इसका जीता-जागता प्रमाण है। दावे भले कुछ भी किए जायें, यह एक कड़वी सच्चाई है कि पेरिस सम्मेलन भी कुछ कारगर कदम उठा पाने में नाकाम ही रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का रवैया इसका सबूत है। अमेरिका पेरिस सम्मेलन के प्रस्तावों के अमलीजामे की दिशा की ओर कितना गंभीर है, अब यह किसी से छिपा नहीं है। बहरहाल मौजूदा हालात समस्या की भयावहता की ओर इशारा कर रहे हैं। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की लाख कोशिशों के बावजूद धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है।
यदि तापमान में बढ़ोत्तरी की रफ्तार इसी गति से आगे भी जारी रही तो इस सदी के अंत तक जानलेवा गर्मी की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि उस हालत में इंसानों के लिये बाहर निकलना भी संभव नहीं होगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पर्यावरण में कार्बन के स्तर में लगातार हो रहा इजाफा है जिसके चलते धरती का तापमान दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। आने वाले दशकों में इसके और घातक नतीजे सामने आयेंगे। इसकी आशंका से ही दिल दहल उठता है।
धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी का सबसे अधिक दुष्प्रभाव दक्षिण एशिया के देशों खासकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश पर पड़ेगा। जाहिर है जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा खामियाजा भी इन्हीं देशों को उठाना पड़ेगा। यहाँ लू के थपेड़ों में समय-समय पर विस्तार होगा और यहाँ रहने-बसने वाले लोगों के लिये सामान्य परिस्थितियों में रह पाना असंभव हो जायेगा। देखा जाये तो इन्हीं तीन देशों में दुनिया के 20 फीसदी से अधिक गरीब रहते हैं जो सीधे तौर पर इस आपदा का मुकाबला कर पाने में अक्षम होंगे। सच तो यह है कि इन देशों की तकरीब 1.5 अरब आबादी उस स्थिति में जलवायु परिवर्तन की आपदा से सीधे-सीधे प्रभावित होगी। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
‘मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के वैज्ञानिकों की मानें तो धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी की यह अवस्था भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिये अधिक चिंताजनक है। कारण इन देशों में अधिकांश आबादी के हिस्से का कृषि कार्यों से जुड़ा होना है। क्योंकि यह सीधे-सीधे सूर्य से प्रभावित होते हैं। इस वजह से उन देशों जहाँ के लोग कृषि कार्यों से दूर कृत्रिम वातावरण में रहते हैं, के बनिस्बत भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कृषि उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इस संकट से पार पाना इन देशों के लिये बहुत मुश्किल हो जायेगा।
यही नहीं मानवीय गतिविधियों के चलते होने वाले कार्बन उत्सर्जन से चावल, गेहूँ और अन्य मुख्य अनाजों की पोषकता में कमी आने का खतरा मँडरा रहा है जिसके आने वाले वर्षों में भयावह रूप लेने की संभावना बनी हुई है। ऐसी स्थिति में दुनिया की बहुत बड़ी आबादी प्रोटीन की कमी से जूझेगी। जहाँ तक हमारे देश भारत का सवाल है, यहाँ वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी के चलते सन 2050 तक देश के तकरीब 5.30 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी का सामना कर रहे होंगे। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का स्तर आने वाले सालों में इसी तरह बढ़ता रहा तो आज से 33 साल बाद यानी साल 2050 तक दुनिया के 18 देशों की आबादी के भोजन में मौजूद प्रोटीन में 5 फीसदी की कमी हो सकती है। अमेरिका के ‘हार्वर्ड टी एच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हैल्थ’ के अध्ययन के अनुसार वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के लगातार बढ़ते स्तर के कारण दुनिया में 15 करोड़ अतिरिक्त लोगों में प्रोटीन की कमी के खतरे की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।
इसमें दोराय नहीं कि वैश्विक स्तर पर दुनिया की तकरीब 76 फीसदी आबादी प्रोटीन की जरूरतों को फसलों से ही पूरा करती है। फिर जब फसलों पर ही खतरा मँडरा रहा हो, उस स्थिति में आबादी के लिये प्रोटीन की उम्मीद बेमानी ही प्रतीत होती है। सच तो यह है कि गेहूॅं, चावल और आलू की पोषकता लगातार घटती जा रही है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन में आहार में प्रोटीन की कमी के मौजूदा और भावी खतरे का आकलन करने के लिये ऐसी फसलों और उनसे मिलने वाले खाद्य पदार्थ की वैश्विक आबादी में खपत के आंकड़ों को जुटाया और देखा कि कौन सी फसल मानवीय आबादी की गतिविधियों के कारण उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड के संपर्क में किस सीमा तक आ रही है। विश्लेषण में यह खुलासा हुआ कि चावल, गैहूँ जौ और आलू में प्रोटीन की मात्रा में क्रमशः 7.6, 7.8, 14.1 और 6.4 फीसदी की कमी आई है।, यह अध्ययन ‘इनवायरनमेंट हैल्थ पर्सपैक्टिव जर्नल’ में प्रकाशित हुआ है।
इस अध्ययन के वरिष्ठ शोधकर्ता सैमुअल मार्क्स की मानें तो ऐसी हालत में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि देश अपनी आबादी के पोषण की पर्याप्तता की निगरानी की उचित और कारगर व्यवस्था करें। साथ ही वे मानवीय गतिविधियों से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के तेजी से बढ़ रहे उत्सर्जन पर लगाम लगाएँ। यह समय की मांग है। इसकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि इससे मुॅंह मोड़ना हमारे लिये आत्मघाती होगा।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि बाढ़ और सूखा के साथ तापमान में बढ़ोतरी को भी जलवायु परिवर्तन से अलग करके नहीं देखा जा सकता। असल में ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कैलीफ़ोर्निया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि भारत में किसानों की आत्महत्याओं के पीछे जलवायु परिवर्तन एक अहम वजह है। उनका मानना है कि देश में वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के साथ ही किसानों की खुदकुशी के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है। उनकी मानें तो फसल तैयार होने के दौरान यदि तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होती है तो देश में 65 किसान आत्महत्या करते हैं। और यदि तापमान पाँच डिग्री बढ़ जाता है तो यह आंकड़ा पाँच गुणा और बढ़ जाता है। ऐसी परिस्थितियाँ ही किसानों को आत्महत्या के लिये विवश करती हैं। समूची दुनिया में 75 फीसदी आत्महत्या की घटनाएँ विकासशील देशों में होती हैं। इनमें 20 फीसदी भारत में ही होती हैं।
हमारे देश में हर साल एक लाख 30 हजार से अधिक आत्महत्याएँ होती हैं। बीते 30 सालों में 59 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। वर्ष 1980 के मुकाबले देश में खुदकुशी की दर दोगुणी से भी ज्यादा हो गई है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अगर 2050 तक तापमान में तीन डिग्री की बढ़ोत्तरी हुई जिसकी आशंका ज्यादा है तो आत्महत्या के मामले बढ़ेंगे, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। इसलिये अब हाथ पर हाथ रख कर बैठने की नहीं, सचेत होने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन की समस्या ने आज के दौर में भयावह रूप अख्तियार कर लिया है। इसका मुकाबला आसान नहीं है। इसके लिये हरेक को कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास करने होंगे। अकेले सरकार से इसकी उम्मीद करना बेमानी होगा। यह जीवन-मरण का सवाल है। अतः सबको अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी तभी कुछ बात बनेगी। निष्कर्ष यह कि यदि अब भी नहीं संभले तो बहुत देर हो जायेगी और तब स्थिति का मुकाबला कर पाना टेड़ी खीर साबित होगा। उस दशा में मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
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