अपने देश में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर ‘जल’ को देवतुल्य ना मानते हों। नदी हो या झरने, ताल हो या बावड़ी, यहाँ तक कि कोई भी छोटा-झरना क्यों ना हो उसकी भी एक धार्मिक कहानी उस क्षेत्र में विद्यमान होती है। हमें यह याद करना होगा कि ‘जल संरक्षण’ की यह कारगर पद्धति हमारे पूर्वजों ने इजाद की हुई थी, जो अब मौजूदा समय में हमारे विकास की योजनाओं में भी सम्मिलित नहीं हो पा रही है। सवाल इस बात का है कि ‘जल संकट’ पर लम्बी-लम्बी बहसें होती है मगर ‘जल संरक्षण’ पर कोई भी योजना जमीनी रूप नहीं ले पा रही है। आज भी ऐसी कई जगह हैं जहाँ पर लोग ‘जल संरक्षण’ का काम देवताओं के नाम से करते हैं।
सीमान्त जनपद उत्तरकाशी के सुदूर क्षेत्र बनाल पट्टी के अन्तर्गत कोटी गाँव में एक जलधारा है। जिसको लोग ‘वनदेवियों’ के नाम से पूजते हैं, इसका संरक्षण करते हैं, इस पर सुबह-शाम पूजन होता है। ग्रामीणों की मान्यता है यहाँ पर सूरज उगने से पहले वनदेवियों का आगमन होता है, इसलिए लोग प्रातःकाल ही इस जलधारे पर धूप जलाकर जलधारे की साफ-सफाई करते हैं। ऐसा भी नहीं कि लोग अपने मनमाफिक इस जलधारे की सफाई करते हों। इस जलधारे की सफाई कौन करेगा उसकी प्रतिदिन के हिसाब से बकायदा एक रोस्टर बनवाया गया है। इस गाँव में जल संरक्षण के लिये गाँव की एक विशेष संवैधानिक प्रक्रिया है, जिस प्रक्रिया से सभी ग्रामीणों का गुजरना होता है। जैसे प्रतिदिन इस जलधारे की कौन सफाई करेगा, कौन पूजा करेगा इत्यादि। और यदि कोई जलधारे पर गंदगी फैलाते हुए पकड़ा गया तो उसे दण्डित किया जाता है।
यही नहीं इस जल धारे पर ही पेयजल आपूर्ति के लिये अलग स्थान है, पशुओं के लिये अलग स्थान है, कपड़े धुलने के लिये अलग स्थान है तथा जो पानी बहकर आगे जाता है उसे निकासी करके सिंचाई के लिये इस्तेमाल किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस जलधारे पर कहीं कोई सीमेन्ट का प्रयोग नहीं किया गया है। गाँव के दिनेश रावत, सुखदेव रावत, मीना देवी कहते हैं कि इसीलिए तो इस जलधारे का नाम ही बस्टाड़ी जलधारा है। कहते हैं कि बस्टाड़ी का मतलब सामान्य तौर पर कुदरत से मिला एक उपहार है।
यानि कालातीत में प्रकृति ने यह जलधारा गाँव को उपहार में दिया है। बस्ट का तात्पर्य स्वस्फूर्त और आड़ी का तात्पर्य एक जगह पर अडिग। कहते हैं कि कभी हजारों वर्ष पूर्व जब इसक्षेत्र में अतिवृष्टी हुई थी तो यह जलधारा कुदरती ही उत्पन्न हुआ था। तब से ग्रामीणों ने इस जलधारे का नाम ही अतिवृष्टी से उत्पन्न जलधारे का नाम ‘बस्टाड़ी जलधारा’ रख दिया।
ज्ञात हो कि कोटी गाँव में बस्टाड़ी नाम जलधारे को नकासीदार पत्थरों से बनाया गया है। वर्तमान में इसका भी सौन्दर्यीकरण किया गया, किन्तु गाय के मुखनाम यह बस्टाड़ी नाम का जलधारा (नौला) आज भी बचा हुआ है। जनश्रुती है कि इस धारे के पास वनदेवियां आती थीं जो नृत्य व स्नान करती थी। यह भी एक कहानी है कि सौ वर्ष पूर्व इसी गाँव में एक रावत विरादरी का व्यक्ति था, जो बड़ा बलशाली एंव सुन्दर था, उस व्यक्ति ने इस जलधारे को जन साधारण के लिये खोल दिया। परन्तु वन देवियों ने भी इस रावत नाम के व्यक्ति को हर लिया अर्थात मृत्युदण्ड प्राप्त हुआ। वर्तमान में उक्त रावत व्यक्ति का पाँच मंजिला भवन आज भी गाँव में अवस्थित है। जिसे लोग एक मंदिर के रूप में पूजा करते हैं।
बता दें कि आज भी इस क्षेत्र में जब वनदेवियों की पूजा होती है तो पहले रावत देवता की पूजा होती है तत्पश्चात अन्य पूजा। बस्टाड़ी जलधारे पर पूजा पाठ प्रत्येक वर्ष वसन्तऋतु के आगमन पर होती है। उसके बाद आस-पास के ग्रामीण एकत्रित होकर एक उत्सव का आयोजन करते हैं। कुल मिलाकर ‘जल संरक्षण’ की जो आध्यात्मिक प्रक्रिया गाँव-गाँव में दिखाई दे रही है वहीं-वहीं मौजूदा समय में पानी की मात्रा जिन्दा दिखाई देती है। मगर सर्वाधिक जगहों पर लोग जल संकट से जूझते हुए नजर आ रहे हैं। अच्छा हो कि जल योजनाओं में ‘जल संस्कृति’ को महत्त्व दिया जाना चाहिए। ताकि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से बचा जा सके।
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