ग्लेशियर पर मंडरा रहा अस्तित्व का संकट

ग्लेशियर पर मंडरा रहा अस्तित्व का संकट।
ग्लेशियर पर मंडरा रहा अस्तित्व का संकट।

ग्लेशियर पर मंडरा रहा अस्तित्व का संकट।

समूची दुनिया अब ग्लोबल वार्मिंग की गम्भीरता को समझ चुकी है। अब यह साफ हो गया है कि अब बहुत हो गया और यदि अब मामले में देर कर दी तो निकट भविष्य में मानव जीवन का अस्तित्व ही मिट जाएगा। वैज्ञानिक बरसों से चेता रहे हैं कि समूची दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। यही नहीं दुनिया की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला माउंट एवरेस्ट जिसे तिब्बत में माउंट कुमालांग्मा कहते हैं, बीते 5 दशकों से लगातार गर्म हो रही है। नतीजतन आस-पास के हिमखण्ड तेजी से पिघल रहे हैं। इस तथ्य को तो चीन की एकेडमी ऑफ साइंसेज, हुनान यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एण्ड माउंट कुमोलाग्मा स्रो लियोपार्ड कंजरवेशन सेंटर ने भी काफी पहले प्रमाणित कर दिया था। यह भी सच है कि वह चाहे हिमालय के ग्लेशियर हों या तिब्बत के या फिर आर्कटिक ही क्यों न हो, वहाँ बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है। एडवांसेज जर्नल में प्रकाशित हालिया अध्ययन इस बात का सबूत है कि बढ़ते तापमान के चलते हिमालय के तकरीब साढ़े छह सौ से अधिक ग्लेशियरों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। उनकी पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गई है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ अर्थ के शोधकर्ताओं ने उपग्रह के लिए बीते 40 सालों के चित्रों के आधार पर किए शोध में यह खुलासा किया है। उसके अनुसार भारत, नेपाल, भूटान और चीन में तकरीब दो हजार किलोमीटर के इलाके में फैले 650 से ज्यादा ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगातार पिघल रहे हैं। साल 1975 से 2000 और 2000 से 2016 के बीच हिमालयी क्षेत्रों के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई है। इसका दुष्परिणाम ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के रूप में सामने आया। इस बीच ग्लेशियर पिघलने की दर में पहले के मुकाबले और तेजी आई। शोध में हुए खुलासे के मुताबिक 1975 से 2000 के बीच जो ग्लेशियर हर साल दस इंच की दर से पिघल रहे थे, वह 2000 से 2016 के बीच हर साल बीस इंच की दर से पिघलने लगे। यह कम चिंतनीय नहीं है।

बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। यह सब हिमालय क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहे बदलाव का परिणाम है। नतीजतन ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में लगभग 300 छोटे-बड़े ग्लेशियरों से मिलकर बने गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई जहाँ 30 किलोमीटर है, वहीं यमुनोत्री की लगभग 5 किलोमीटर है। असल में हिमालय के बहुतेरे ग्लेशियर हर साल दस से बारह मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। जंगलों में लगी आग से निकला धुंआ और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन-सी काली परत पड़ रही है। 

गौरतलब है कि हिमालय के इन 650 ग्लेशियरों में तकरीब 60 करोड़ टन बर्फ जमी हुई है। हिमालय के इस ग्लेशियर क्षेत्र को तीसरे ध्रुव के नाम से भी जाना जाता है। कारण उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद यह तीसरा बड़ा इलाका है जहाँ इतनी बर्फ जमी है। इन ग्लेशियरों से निकली नदियों से भारत, चीन, नेपाल और भूटान की कुल मिलाकर तकरीब 80 करोड़ आबादी का जीवन निर्भर है। इन नदियों की पेयजलपूर्ति, सिंचाई और बिजली उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यदि इन ग्लेशियरों का अस्तित्व खत्म हो गया तो 80 करोड़ आबादी का जीना मुहाल हो जाएगा। चिन्ता की बात यह है कि यहाँ के कुछ ग्लेशियर पाँच मीटर सालाना की दर से पिघर रहे हैं, लेकिन कम ऊँचाई वाले ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार में तेजी आई है। इससे कृत्रिम झीलों के निर्माण में बढ़ोत्तरी हुई है। इन झीलों के टूटने से अक्सर बाढ़ की सम्भावना बनी रहती है। इससे जन-धन के भारी नुकसान की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। दुखदाई बात यह है कि बीते बरसों में डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में चिन्ता जाहिर करते हुए कहा था कि हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। उसमें सरकार को सिफारिश भी की कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के व्यापक अध्ययन के लिए पर्याप्त वित्तीय आवंटन और आधारभूत ढांचा मुहैया कराए जाने की बेहद जरूरत है। यही नही यहाँ पर्यटन की गतिविधियों को भी नियंत्रित किया जाना बेहद जरूरी है। यदि समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो इसके दुष्परिणाम बहुत भयावह होंगे।
 
अब यह स्पष्ट है कि हिमालय के कुल 9600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल कर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो बर्फ से ढकी यह पर्वत श्रृखला आने वाले कुछ सालों में बर्फविहीन हो जाएगी। इससे और सेटेलाइट चित्रों के आधार पर इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि हमेशा बर्फ से ढंका रहने वाला हिमालय अब बर्फविहीन होता जा रहा है। बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। यह सब हिमालय क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहे बदलाव का परिणाम है। नतीजतन ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में लगभग 300 छोटे-बड़े ग्लेशियरों से मिलकर बने गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई जहाँ 30 किलोमीटर है, वहीं यमुनोत्री की लगभग 5 किलोमीटर है। असल में हिमालय के बहुतेरे ग्लेशियर हर साल दस से बारह मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। जंगलों में लगी आग से निकला धुंआ और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन-सी काली परत पड़ रही है। यह कार्बन हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी के साथ बहकर लोगों तक पहुँच रहा है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। गर्म हवाओं के कारण इस क्षेत्र की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह बेचैन कर देने वाली स्थिति है। वैज्ञानिकों की मानें तो यहाँ सिर्फ आठ फीसदी ग्लेशियर स्थित है जो कभी गायब नहीं होंगे। आईपीसीसी ने भी आज से तकरीब दस साल पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2034 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर और आने वाले 200 सालों में आइसलैण्ड के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जाएँगे। वैज्ञानिकों के अनुसार आइसलैण्ड के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर यथा- होफ्जुकुल, लोगोंकुल और वैटनोजोकुल खतरे में है। यह ग्लेशियर समुद्रतल से 1400 मीटर की ऊँचाई पर है। इसके अलावा दक्षिण-पश्चिम चीन के किंवघई-तिब्बत पठार क्षेत्र के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। तिब्बत से इस क्षेत्र से कई नदियाँ चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में निकलती हैं।

TAGS

global warming effects, glaciers are melting, what is global warming, effects of global warming on glaciers, mount everest melting, effect of global warming on mount everest, geen land, effects of global warming on greenland.

 

 

 

Path Alias

/articles/galaesaiyara-para-mandaraa-rahaa-asataitava-kaa-sankata

Post By: Shivendra
×