गिरता जा रहा भू-जल स्तर

किसानों द्वारा पानी के अंधाधुंध प्रयोग पर रोक लगाने का एक उपाय यह है कि नए ट्यूबवेल लगाने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य बना दिया जाए…

उद्योगों द्वारा पानी की बर्बादी को लेकर जल संसाधन मंत्रालय एवं योजना आयोग चिंतित हैं। विचार किया जा रहा है कि उद्योगों द्वारा पानी की बचत करने पर उन्हें टैक्स में छूट दी जाएगी। सरकार का विचार सही दिशा में है, परंतु मूल समस्या पानी के अधिक उपयोग की है, विशेषकर किसानों द्वारा वर्ष 2000 में देश में पानी की 89 प्रतिशत खपत खेती के लिए हो रही थी। उद्योगों द्वारा मात्र छह प्रतिशत और घरेलू उपयोग के लिए पांच प्रतिशत पानी का उपयोग हो रहा था। अतः पानी की बचत करनी हो, तो सर्वप्रथम ध्यान कृषि में पानी के उपयोग पर देना चाहिए। पानी देश के लोगों का शामलाती संसाधन है। आपके घर अथवा खेत के नीचे-नीचे बह रही धारा को आपके द्वारा वहां नहीं डाला गया है। भूमि के नीचे पानी की नदियां बहती हैं। तालाब भी होते हैं, जिन्हें एक्वीफर कहते हैं।

आपके खेत के नीचे बह रहा पानी सैकड़ों किलोमीटर दूर से आ रहा हो सकता है। इंदिरा गांधी नहर से राजस्थान के सूखे क्षेत्र में सिंचाई होने लगी है। यह पानी जमीन में नीचे रिस कर पाकिस्तान के मुल्तान पहुंच रहा है। वहां ट्यूबवेलों से लबालब पानी मिल रहा है। भूमिगत पानी किसी की व्यक्तिगत जागीर नहीं है, फिर भी इसका मूल्य शून्य माना जाता है। यानी शामलाती संसाधनों को मुफ्त समझा जाता है। किसानों को केवल पानी निकालने के खर्च को वहन करना पड़ता है। जैसे अपने बाग के आम के पेड़ से किसान फल तोड़कर बेचता है, उसी तरह अपनी जमीन के नीचे बह रहे पानी को निकाल कर वह सिंचाई करता है। यह व्यवस्था सही नहीं है, चूंकि आम उसकी व्यक्तिगत संपत्ति है, जबकि पानी शामलाती संपत्ति है। किसी की बकरी आपके खेत में घुस जाए, वह आपकी संपत्ति नहीं हो जाती है। इसी तरह आपकी जमीन के नीचे बह रहा पानी आपका नहीं है, वह शामलाती है।

यही बात नदियों में बह रहे पानी पर भी लागू होती है, परंतु वर्तमान पालिसी में उद्यमी अथवा किसानों को पानी का मूल्य नहीं अदा करना होता है। फलस्वरूप पानी कृत्रिम रूप से सस्ता हो जाता है और पानी का अति उपयोग लाभदायक हो जाता है। कुछ वर्ष पूर्व मुझे जोधपुर के गांवों में भ्रमण करने का अवसर मिला था। किसानों द्वारा लाल मिर्च की खेती की जा रही थी। एक फसल को 15 से 20 बार सींचा जा रहा था। किसान के लिए यह लाभदायक था, क्योंकि उन्हें पानी का मूल्य अदा नहीं करना पड़ रहा था। इसी प्रकार कर्नाटक के गुलबर्ग जिला में अंगूर की खेती के लिए पानी का अति दोहन किया जा रहा है। परिणामस्वरूप देश के अधिकांश क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर गिरता जा रहा है। सूचना है कि गुजरात में भूमिगत पानी को 2000 फुट की गहराई से निकाला जा रहा है और संपूर्ण भूमिगत पानी खारा होता जा रहा है।आने वाले समय में यह सिंचाई के लिए भी उपयोगी नहीं रह जाएगा, ऐसी संभावना है। अतः जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा पानी के अधिक उपयोग पर अंकुश लगाया जाए। किसानों द्वारा पानी के अंधाधुंध प्रयोग पर रोक लगाने का एक उपाय यह है कि नए ट्यूबवेल लगाने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य बना दिया जाए। जिन क्षेत्रों में भूमि के पानी का स्तर गिर रहा है, उन क्षेत्रों में नए ट्यूबवेल खोदने पर रोक लगाई जा सकती है, परंतु इससे समस्या का हल नहीं होगा।

वर्तमान में चल रहे ट्यूबवेलों द्वारा पानी का अति दोहन करने के कारण ही भूमिगत जलस्तर गिरा है। नए ट्यूबवेल न लगाएं, तो भी यह गिरावट जारी रहेगी। कई क्षेत्रों में स्थिति भयंकर बन गई है। आपसी होड़ में किसान एक-दूसरे के साथ-साथ अपना स्वयं का नुकसान कर रहे हैं। एक किसान अपने ट्यूबवेल की गहराई 300 फुट से बढ़ाकर 400 फुट कर लेता है। वह संपूर्ण पानी को खींच लेता है। ऐसे में बगल के किसान का 300 फुट गहरा ट्यूबवेल सूख जाता है, तब दूसरा अपने ट्यूबवेल को 500 फुट गहरा कर लेता है। अब पहले किसान का ट्यूबवेल सूख जाता है। लाभ किसी को नहीं होता है। चूंकि भूमिगत पानी की मात्रा सीमित है। उतने ही पानी को चूसने से सब एक-दूसरे का और अपना अनायास ही नुकसान कर रहे हैं।

सही उपाय है कि पानी के मूल्य में वृद्धि की जाए। इससे किसानों, उद्यमियों एवं घरेलू उपभोक्ताओं सभी के लिए पानी का कम मात्रा में उपयोग करना लाभपद्र हो जाएगा। कुछ वर्ष पूर्व मैं गत्ता बनाने का कारखाना चलाता था। गत्ता बनाने के लिए गन्ने की खोई अथवा धान के पैरे को बड़ी हांडियों में स्टीम से पानी में पकाया जाता है। फिर पके हुए माल को चक्कियों में पानी मिलाकर पीसा जाता है। इसके बाद लुगदी को पानी में मिलाकर जालियों में फैलाकर गत्ता बनाया जाता है। इन सभी प्रक्रिया में साफ पानी का उपयोग किया जाता था, चूंकि वह सस्ता था। रद्दी पानी को छानकर पुनःउपयोग किया जा सकता था, जो नहीं किया जा रहा था।

किसानों द्वारा भी सस्ते पानी का अति उपयोग किया जाता है। पानी महंगा हो तो किसान मिर्च की 20 बार सिंचाई नहीं करेगा और कम पानी वाली अन्य फसल उगाएगा जैसे सरसों एवं बाजरा। फसल चक्र में इस परिवर्तन से देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित नहीं होगी। चूंकि लाल मिर्च और अंगूर विलासिता की फसलें हैं। वर्तमान में नहरों के कमांड क्षेत्र में नहर के हैड पर किसान पानी का अधिक उपयोग करते हैं तथा टेल एंड पर स्थित किसान सिंचाई से पूर्णतया वंचित रह जाते हैं। पानी का उचित मूल्य वसूल किया जाएगा, तो पानी सभी किसानों को मिलेगा और खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि होगी। किसानों को जल संग्रहण के लिए प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

अमरीका में टैनेसी वैली परियोजना के बांध में मिट्टी भर रही थी। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने कानून बनाया कि हर किसान को अमुक ऊंचाई की मेढ़ बनानी होगी। खेत की मिट्टी मेढ़ के पीछे रुक गई और बांध में मिट्टी भरना कम हो गया। इसी तरह हम भी किसानों को मेढ़बंदी करके पानी रोकने का प्रोत्साहन दे सकते हैं। खेत में रुके हुए पानी से भूमिगत जल का पुनर्भरण होगा। सिंचाई को जल की उपलब्धता बढ़ेगी। प्रश्न होगा कि ऋण भार से दबे हुए किसानों पर पानी का अतिरिक्त भार डालना उचित नहीं होगा। समस्या सच्ची है, किंतु इसका हल कृषि उत्पाद के मूल्य में वृद्धि से हासिल करना होगा। पानी पर लगने वाले अतिरिक्त खर्च को समर्थन मूल्य में जोड़ देना चाहिए। किसान द्वारा दिए गए अतिरिक्त मूल्य की भरपाई हो जाएगी। पानी की समस्या बहुत गहरी है। उद्योगों को पानी की बर्बादी न करने का इन्सेंटिव देना होगा, परंतु यह समस्या का समाधान नहीं होगा। एक मात्र हल है कि पानी का उपयोग कम किया जाए। यह तब ही संभव होगा, जब पानी के मूल्य में वृद्धि की जाएगी।

(डा. भरत झुनझुनवाला,लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं)
 

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