गीले पांक की दुनिया गई है छोड़

बढ़ी है इस बार गंगा खूब
दियारों पर गांव कितने ही गए हैं डूब
किंतु हम तो शहर के इस छोर पर हैं
देखते हैं रात-दिन जल-प्रलय का ही दृश्य
पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाला
किराये का घर हमारा रहे यह आबाद
पुराना ही सही पर मजबूत
रही जिसको अनवरत झकझोर
क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर
सामने ही पड़ोसी के-
नीम, सहजन, आंवला, अमरूद
हो रहे आकंठ जल में मग्न
रह न पाए स्तंभ पुल के नग्न
दूधिया पानी बना उनका रजत परिधान
रेलगाड़ी के पसिंजर खड़े होकर
खिड़कियों से झांकते हैं
देखते हैं बाढ़ का यह दृश्य
उधर झूंसी इधर दारागंज...
बीच का विस्तार
बन गया है आज पारावार!

भगवती भागीरथी-
ग्रीष्म में यह हो गई थी प्रतनु-सलिला
विरहिणी की पीठ लुंठित एकवेणी-सदृश
जिसको देखते ही व्यथा से अवसन्न होते रहे मेरे नेत्र
रिक्त ही था वरुण की कल-केलि का यह क्षेत्र
काकु करती रही पुल की प्रतिच्छाया, मगर यह थी मौन
उस प्रतनुता से अरे इस बाढ़ की तुलना करेगा कौन?

सो गए जल में बड़े हनुमान
तख्तपोश उठा लाए दूर गंगापुत्र
कृष्णद्वैपायनों का परिवार-
मलाहों के झोपड़ों का अति मुखर संसार
त्रिवेणी के बांध पर आकर हुआ आबाद
चिर उपेक्षित हमारी छोटी गली की
रुक्ष-दंतुर सीढ़ियां ही बन गई है घाट
भला हो इस बाढ़ का!

पांच दिन बीते कि हटने लग गई बस बाढ़
लौटकर आ जाएगा फिर क्या वही आषाढ़?
हटी गंगा
किंतु, गीले पांक की दुनिया गई है छोड़
और उस पर
मलाहों के छोकरों की क्रमांकित पद-पंक्ति
खूब सुंदर लग रही है...
मन यही करता कि मैं भी
उन्हीं में से एक होता
और-
नंगे पैर, नंगा सिर
समूचा बदन नंगा...
विचरता पंकिल पुलिन पर
नहीं मछली ना सही,
दस-पांच या दो-चार क्या कुछ घुंघचियां भी नहीं मिलती?

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