गहरे जख्म छोड़ गया देश का सबसे बड़ा विस्थापन


नर्मदा नदीएक साल पहले इन्दिरा सागर बाँध के इलाके में एक बार फिर जाने का मौका मिला। तब मुझे 2004 के मॉनसून के विकट दिन याद आ गए। इस परियोजना में करीब 250 गाँव डूबे। हरसूद नाम का छोटा सा शहर जून 2004 में डूब क्षेत्र में आया था। दुनिया भर के मीडिया ने तब दिखाया था कि एक हजार मेगावाट बिजली हजारों परिवारों के लिए किस कदर अंधेरा लेकर आई थी। ज्यादातर लोग मामूली मुआवजा लेकर निकले या निकाले गए। हरसूद वालों के लिए छनेरा नाम की जगह पर एक उजाड़ पथरीला मैदान दिया गया था, जहाँ बीच बारिश में विस्थापितों को अपने घर बनाने थे। सबकुछ बेहद अमानवीय ढंग से हुआ।

10 साल के कांग्रेस राज में बाँध एक तरफा ढंग से बनता गया। पुनर्वास के नाम पर कुछ हुआ नहीं था। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार मध्य प्रदेश में बनी। विकास का राग अलापने वाली सरकार के लिए हरसूद देश में विस्थापन और पुनर्वास का एक शानदार मॉडल बनाने का मौका था, जो बेलगाम और भ्रष्ट अफसरशाही के हाथों उसने गँवा दिया। खाने-कमाने वाली राजनीति के खेल में नेता बेगुनाह नहीं थे। पदों की अंधी होड़ में उन्हें ऐसी कोई ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती, जब उन्हें सिखाया जाए कि आम आदमी के हितों से जुड़े इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वे किस तरीके से पेश आएँ। ज्यादातर नेताओं के पास अपना कोई नजरिया ही नहीं है। वे इतने ईमानदार भी नहीं हैं कि अफसर डर से खुद बेईमानी न करें। यह विस्थापन इनके मकड़जाल में उलझी एक दर्दनाक कहानी है।

दिग्विजय सिंह ने दस साल एकछत्र राज किया था। पिछले 12 साल में भाजपा सरकार में तीन मुख्यमन्त्री हुए। शिवराज सिंह चौहान को दस साल से ज्यादा हो गए। उन्हें तीन बार लगातार अच्छे-खासे बहुमत से चुना गया। हालाँकि किसी के भी राज में इस तरह कोई खास कदम नहीं उठाए गए। आप आज भी हरसूद, छनेरा, काला पाठा, चैनपुर और सतवास के पुनर्वास स्थलों पर जाकर देख सकते हैं कि इस सरकार को मिली ताकत यहाँ किसी के कुछ काम नहीं आई। मुझे अफसोस के साथ यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि यह विस्थापन हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तन्त्र की नाकामी की एक घृणित मिसाल है।

भ्रष्ट अफसरों के लिए यह इलाका एक टकसाल बन गया था। जाँच एजेंसियों ने 13 अफसरों को रिश्वत लेते हुए पकड़ा था। वे उन चील-गिद्धों की तरह पेश आए जो अपने हिस्से का माँस नोचने के लिए जमीन पर पड़े मुर्दों के ऊपर मँडराते हैं। यहाँ डेढ़ लाख की बेदखल आबादी उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह उपलब्ध थी। ढाई हजार से ज्यादा भुक्तभोगी खण्डवा की अदालत में सालों तक चक्कर लगाते रहे। ऐसे कई परिवार हैं, जो बीते 11 सालों में तीन-तीन शहरों में बसने की नाकाम कोशिश में लगे रहे हैं। हरसूद के एक प्रतिष्ठित परिवार से आने वाले आरटीआई एक्टीविस्ट धर्मराज जैन ने आरटीआई के जरिए एक कामयाब लड़ाई लड़कर अपना हक हासिल तो कर लिया मगर इसमें एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई। दस साल में बाँध से 2500 करोड़ रुपये का बिजली बनी। छह साल का मुनाफा ही करीब 1800 करोड़ रुपये का था। यह आँकड़ा इसलिए ध्यान देने योग्य है, क्योंकि यहाँ से बेदखल हुए लोगों को उनकी सम्पत्तियों का कुल मुआवजा मिला था 1170 करोड़ रुपये। इसमें हरसूद शहर का मुआवजा था मात्र 68 करोड़ रुपये।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन के सुविधाहीन और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इस अमानवीय और लोगों के दिलों पर गहरे जख्म छोड़कर गए विस्थापन को गुमनाम नहीं रहने दिया। बाँध पूरा बनने के बावजूद 91 गाँवों में भूअर्जन ही शुरू नहीं हुआ था। नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने हाईकोर्ट की शरण ली। बाँध में पानी पूरा न भरने के लिए याचिका लगाई गई। विस्थापितों की बात सरकार ने नहीं, अदालत ने सुनी। चीफ जस्टिस रवीन्द्रन ने कहा कि सरकार को यह हक ही नहीं था कि वह इन गाँवों के लोगों को जाने के लिए कहें। पूरे इलाके में ऐसी अनगिनत उलझनें थीं, जिनमें हजारों लोग फँसे हुए थे। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लम्बित तीन याचिकाएँ नर्मदा बचाओ आन्दोलन की टीम को विस्थापन के दस साल बाद भी व्यस्त बनाए रहीं। जो कुछ भी ठीक हुआ वह आलोक अग्रवाल, शिल्वी, चितरूपा जैसे कार्यकर्ताओं के संघर्ष का नतीजा है, जिन्हें मध्य प्रदेश के व्यापमं ब्राण्ड सरकारी तन्त्र ने हमेशा हतोत्साहित किया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने हरसूद विस्थापन का कवरेज करते हुए इसे करीब से देखा और इसे अपनी किताब ‘हरसूद 30 जून’ में संकलित किया है।)

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