गेहूँ सघनीकरण विधि अपनाओ, उत्पादन बढ़ाओ

Wheat
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1980 के दशक में फ्रांसीसी पादरी हेनरी डे लाउलानी ने मेडागास्कर में धान के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया, जिसको धान सघनीकरण पद्धति (श्री विधि) नाम दिया गया। पिछले एक दशक में इस विधि का काफी प्रचार प्रसार हुआ है। इसके लाभदायक परिणामों की वजह से इस विधि का प्रयोग अन्य फसलों में भी होने लगा है, जैसे गेहूँ, मड़ुआ, राजमा, बैगन आदि सब्जी के फसलों में भी होने लगा है। अब इस पद्धति को ‘फसल सघनीकरण’ का नाम दिया गया है।

परम्परागत विधिगेहूँ की फसल में ‘गेहूँ सघनीकरण प्रणाली’ (System of Wheat Intensification) को अपनाया जाता है। गेहूँ सघनीकरण प्रणाली में बीज व पानी की उचित मात्रा, जैविक खाद का प्रयोग, खरपतवार एवं कीटों के नियन्त्रण के लिए जैविक व यान्त्रिक तरीकों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इन नई प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भूमि, जल, जैविक कृषि संसाधनों और सूर्य ऊर्जा का समुचित प्रयोग करते हुए अधिकतम उत्पादन लेना है।

प्रस्तुत आलेख में गेहूँ सघनीकरण पद्धति को सिलसिलेवार ढँग से समझाया गया है। उम्मीद की गई है कि न सिर्फ प्रशिक्षक या संस्थाओं के कार्यकर्ता समझ सकें बल्कि आम आदमी भी अच्छी तरह समझ सके।

प्रस्तावना


भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ 70 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका कृषि पर निर्भर है। हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता महसूस हुई। इसकी पूर्ति के लिए देश के वैज्ञानिकों ने कृषि के क्षेत्र में उन्नत किस्म के बीजों, रासायनिक खाद एवं यन्त्रों का अधिकाधिक उपयोग करके हरित क्रान्ति तो लाये, लेकिन भूमि, जल, जैविक खाद एवं अन्य कृषि संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन के अभाव में फसल की उत्पादकता की सार्थकता जाती रही है।

1980 के दशक में फ्रांसीसी पादरी हेनरी डे लाउलानी ने मेडागास्कर में धान के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया, जिसको धान सघनीकरण पद्धति (श्रीविधि) नाम दिया गया। पिछले एक दशक में भारत के कई राज्यों में किसानों ने इस विधि को अपना कर ज्यादा पैदावार प्राप्त किया है। लोक विज्ञान संस्थान (पी. एस.आई.) 2006 से श्रीविधि को हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड राज्यों में बढ़ावा दे रही है। इन सफल प्रयोगों से प्रेरित होकर इस पद्धति का प्रयोग अन्य फसलों जैसे गेहूँ, मंडुुवा, राजमा एवं मक्का इत्यादि में भी किया गया है जो बहुत सफल रहा है। अब इस पद्धति को फसल सघनीकरण पद्धति का नाम दिया गया है।

फसल सघनीकरण पद्धति में बीज व पानी की उचित मात्रा, जैविक खाद के प्रयोग, खरपतवार एवं कीट-रोग के नियन्त्रण के लिए जैविक व यान्त्रिक तरीकों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इस नई पद्धति का मुख्य उद्देश्य भूमि, जल, जैविक कृषि संसाधनों तथा सौर किरणों का समुचित उपयोग करते हुए अधिकतम उत्पादन लेना है।

2006 में लोक विज्ञान संस्थान (पी.एस.आई) ने सर्वप्रथम फसल सघनीकरण विधि का प्रयोग गेहूँ पर अपने कृषि फार्म निरंजनपुर, देहरादून में किया। सन 2009 तक सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट (एसडीटीटी), डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. - इक्रीसेट एवं नाबार्ड के आर्थिक सहयोग से हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड राज्यों के लगभग 4000 किसानों ने इस विधि को अपनाया जिसके परिणाम काफी उत्साहवर्द्धक रहे हैं।

गेहूँ सघनीकरण विधि के उत्साहजनक परिणामों से यह महसूस हुआ कि किसानों एवं प्रशिक्षकों के बीच इस विधि का प्रचार-प्रसार अधिक होना चाहिए। यह पुस्तिका गेहूँ सघनीकरण विधि के प्रचार-प्रसार के लिए उठाया गया पहला कदम है। पुस्तिका में इस विधि को सरल तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है जिससे इसे न सिर्फ प्रशिक्षक या संस्थाओं के कार्यकर्ता समझ सकें बल्कि आम आदमी भी अच्छी तरह समझ सकें। हमें पूरी उम्मीद है कि पाठक इस विधि का भरपूर फायदा उठायेंगे और गेहूँ की पैदावार बढ़ायेंगे।

गेहूँ सघनीकरण विधि अपनाओ, उत्पादन बढ़ाओ

परिचय


गेहूँ विश्व की प्रमुख खाद्यान्न फसल है। क्षेत्रफल एवं उत्पादन दोनों ही दृष्टि से विश्व में धान के बाद गेहूँ दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण फसल है। भारत में गेहूँ रबी की मुख्य फसल है। हमारे देश में गेहूँ कुल 266.92 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है। इसका वर्तमान उत्पादन 721.40 लाख टन है। गेहूँ पोषण की दृष्टिकोण से अत्यन्त लाभकारी है। इसका मुख्य उपयोग रोटी बनाने के साथ-साथ दलिया, हलवा, मिठाई, पावरोटी, बिस्कुट आदि में होता है। इसके अतिरिक्त यह भूसा एवं चोकर के रूप में पशु आहार के लिए प्रमुख स्रोत है।

गेहूँ का मुख्य उत्पादन उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में होता है। गेहूँ की राष्ट्रीय उत्पादकता लगभग 2.7 टन/हेक्टेयर है। हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड में गेहूँ की उत्पादकता राष्ट्रीय उत्पादकता की तुलना में बहुत कम है। इन क्षेत्रों में गेहूँ का उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाये जाने की अपार सम्भावनायें हैं।

प्रायः यह देखा गया है कि गेहूँ की खेती के लिए किसान अपने खेतों में अधिक बीज, अधिक रासायनिक उर्वरक, रासायनिक कीटनाशक व खरपतवार नियन्त्रण को अपना रहे हैं जिससे उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति के कम होने के साथ-साथ मिट्टी की संरचना भी बिगड़ रही है और उत्पादन व उत्पादकता भी लगातार घटती जा रही है। परम्परागत खेती में प्रति वर्ग मीटर में अधिक बीज डालने के कारण पौधों के बीच में भोजन, पानी, प्रकाश के लिए संघर्ष होता है जिससे गुणवत्ता एवं उत्पादन में गिरावट होती है।

गेहूँ सघनीकरण विधि एक ऐसी पद्धति है जिसमें भूमि, जल, जैविक कृषि संसाधनों तथा सौर किरणों का समुचित उपयोग करते हुए अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इस विधि में खेत को समतल करने, निश्चित दूरी व उचित गहराई पर बीजों को बोने, जैविक खाद के प्रयोग और समय-समय पर गुड़ाई करने व उचित नमी रखने से मिट्टी में वायु (आॅक्सीजन) का संचार होता है। इससे पौधों की जड़ें गहरी व स्वस्थ रहती है और पौधों का विकास अच्छा होता है जिससे गेहूँ का उत्पादन अधिक होता है।

इस नई पद्धति में गेहूँ के एक पौधे से कम से कम 15-20 बालियाँ आती हैं। गेहूँ सघनीकरण पद्धति के सभी सिद्धान्तों एवं चरणों का समुचित रूप से पालन करने पर कई पौधों में 35 व उससे भी अधिक बालियाँ निकल सकती हैं। पौधों में अधिक कल्ले, अधिक व लम्बी बालियाँ व दानों की अधिक संख्या एवं बड़ा आकार होने के कारण उत्पादन अधिक होता है। उपरोक्त विशेषताओं के कारण इस पद्धति से गेहूँ की खेती करने से उपज बढ़ती है, भूमि की उर्वरता व संरचना सुधरती है तथा किसानों का आर्थिक व सामाजिक स्तर भी सुधरता है।

इस पुस्तिका मेें गेहूँ सघनीकरण विधि के सिद्धान्त एवं पद्धति के बारे में जानकारी दी गई है।

गेहूँ सघनीकरण विधि का विस्तृत विवरण


हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या, घटते कृषि क्षेत्रफल एवं घटती पानी की उपलब्धता के कारण गेहूँ की पैदावार बढ़ाने के लिए गेहूँ सघनीकरण विधि बहुत उपयुक्त है। इस विधि में किसान कम बीज व न्यूनतम उपलब्ध पानी से भी खेती कर सकता है। एक या दो बीजों को पंक्ति से पंक्ति व बीज से बीज की निश्चित दूरी पर बुवाई की जाती है। इसमें रासायनिक खाद, कीट एवं खरपतवार नाशकों की जगह जैविक खाद और जैविक तरीके से कीट एवं खरपतवार नियन्त्रण किया जाता है। इससे गेहूँ की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। जैविक तरीका अपनाने से भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति में बढ़ोत्तरी होती है। खेत समतलीकरण, जैविक खादों के प्रयोग एवं विशेष प्रबन्धन करने पर पानी की बचत भी होती है। इस विधि के द्वारा असिंचित एवं कम पानी वाले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक गेहूँ की खेती की जा सकती है। प्रचलित विधि की तुलना में गेहूँ सघनीकरण विधि से गेहूँ के उत्पादन में डेढ़ से दो गुना तक की वृद्धि होती है। पौधों में अधिक कल्ले व उनकी अधिक मोटाई व लम्बाई के कारण भूसा (सूखा चारा) का उत्पादन भी 25-30 फीसदी अधिक होता है।

गेहूँ सघनीकरण विधि से ज्यादा पैदावार के कारण


i. प्रति पौधा अधिक कल्लों की संख्या
ii. प्रति पौधा दाने वाली बालियों की अधिक संख्या
iii. बालियों की अधिक लम्बाई
iv. प्रति बाली दानों की अधिक संख्या
v. दानों का मोटा व बड़ा आकार
vi. पौधों की अधिक लम्बाई एवं अधिक मोटा तना
vii. अनाज एवं भूसा का अधिक उत्पादन

गेहूँ सघनीकरण विधि की विशेषतायें


कम बीज की आवश्यकता - बुवाई के समय पंक्ति से पंक्ति एवं बीज से बीज की दूरी अधिक होने पर बीज की खपत कम होती है एवं कल्ले अधिक निकलते हैं जिससे उत्पादन बढ़ता है। इस विधि से गेहूँ की खेती करने पर 60-70 प्रतिशत तक बीज की बचत होती है।

कम पानी की आवश्यकता - इस विधि में खेत को समतल करने पर पूरे खेत में एक समान पानी पहुँचता है तथा बुवाई पूर्व खेत में हरी खाद, गोबर की सड़ी-गली खाद या वर्मी/नाडेप आदि जैसी जैविक खादों का प्रयोग करने पर नमी अधिक समय तक सुरक्षित रहती है। इस विधि में मात्र तीन से चार सिंचाई द्वारा अधिक उत्पादन लिया जा सकता है। इससे न सिर्फ पानी की बचत होती है बल्कि उपलब्ध जल से अधिक क्षेत्रफल में खेती की जा सकती है।

अधिक दूरी पर बीज बुवाई - पंक्ति से पंक्ति व बीज से बीज की दूरी अधिक (6-8 इंच) होने पर सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पौधे तक आसानी से पहुँच जाता है। इससे पौधों में पानी एवं पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा भी कम होती है। पौधों की जड़ें ठीक ढंग से फैलती हैं एवं पौधे को ज्यादा पोषक तत्व प्राप्त होते हैं जिससे पौधे स्वस्थ रहते हैं एवं उत्पादन बढ़ता है। इससे पौधों के बीच गुड़ाई करने में भी आसानी रहती है। तथा हवा का आवागमन ठीक से होने से फसल गिरने का खतरा भी नहीं रहता ।

खरपतवार को मिट्टी में मिलाना - इस विधि में अगर गुड़ाई वीडर से की जाती है तो खरपतवार मिट्टी में मिल जाते हैं जो बाद में खाद में बदल कर पौधों के लिए पोषण एवं नमी संरक्षण का कार्य करते हैं।

जैविक खाद का प्रयोग - जैविक खादों के प्रयोग से मिट्टी भुरभुरी व मुलायम होती है जिससे उसमें आॅक्सीजन का आवागमन अधिक होता है और भरपूर पोषण एवं आॅक्सीजन के मिलने से सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या व सक्रियता में वृद्धि होती है। इससे कार्बनिक पदार्थों को पोषक तत्वों में बदलने में मदद मिलती हैं। जैविक खादों के प्रयोग से भूमि की संरचना व उर्वरता में भी सुधार होती है और मिट्टी की जलधारण क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है। अतः पौधों की जड़ों व पौधे का विकास अच्छे से होता है।

रोग व कीटों का जैविक व यान्त्रिक नियन्त्रण - गेहूँ सघनीकरण विधि में पौधों के बीच अधिक फासला होने के कारण सूर्य की किरणें व हवा उचित मात्रा में पौधों को मिलती हैं। इससे पौधे अधिक स्वस्थ होते हैं और उन पर कीट व रोगों का प्रभाव कम होता है।

गेहूँ सघनीकरण विधि व परम्परागत विधि की तुलना


परम्परागत विधि

गेहूँ सघनीकरण विधि

अधिक बीज की आवश्यकता (40-50 कि.ग्रा. प्रति एकड़) होती है।

कम बीज की आवश्यकता (4-10 कि.ग्रा. प्रति एकड़) होती है

बीज से बीज व पंक्ति से पंक्ति की दूरी निश्चित नही होती है।

बीज से बीज व पंक्ति से पंक्ति की दूरी 6-8 इंच रखते हैं।

एक स्थान पर बोये गए बीजों की संख्या निश्चित नहीं होती।

एक स्थान पर एक या दो बीज ही बोये जाते हैं।

अधिक पानी की आवश्यकता होती है।

कम पानी की आवश्यकता होती है।

खरपतवार नियन्त्रण हाथ से या नाशक (रासायनिक) दवाओं के द्वारा करते हैं।

खरपतवार नियंत्रण वीडर मशीन या अन्य यन्त्र से करते हैं।

 

गेहूँ सघनीकरण विधि के चरण


इस विधि के चरण शुरू करने से पहले यह समझना आवश्यक है, कि गेहूँ की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। गेहूँ मुख्य रूप से शीतोष्ण (ठण्डे) जलवायु की फसल है। गेहूँ के बीज 20-35 डिग्री सेल्सियस के ताप में अच्छी प्रकार से अंकुरित होते हैं। पकते समय अपेक्षाकृत उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। आमतौर पर फसल के पकते समय अधिक तापक्रम व तेज हवाओं के कारण दाने पतले पड़ जाते हैं और फसल शीघ्र पक जाती है तथा उत्पादन घट जाता है। इसे किसान आम बोलचाल की भाषा में हवा लगना कहते हैं। गेहूँ सघनीकरण विधि में इसका असर कम होता है। पकते समय वर्षा गेहूँ के लिए बहुत हानिकारक होती है। इससे उपज की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।

1. भूमि का चयन - लवणीय, अम्लीय और जलरूद्ध भूमि को छोड़कर गेहूँ की खेती अन्य सभी प्रकार की भूमि पर की जा सकती है। वैसे समुचित जल निकास वाली दोमट तथा मटियार दोमट भूमि अधिक अनुकूल होती है। गेहूँ के लिए 6.0-8.5 पी.एच. मान की भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है। गेहूँ की खेती जिस भूमि में की जाय व समुचित उर्वर होनी चाहिए। ऐसे खेत का चयन करें जहाँ पर जल भराव न हो और वहाँ से अनावश्यक जल की निकासी की सुविधा हो।

2. भूमि का समतलीकरण - गेहूँ की खेती के लिए खेत समतल होना आवश्यक है। इससे खेत में एक समान रूप से पानी व खाद सभी पौधों मिल जाते हैं। खेत समतल करने से खेत में कहीं भी जल जमाव नहीं हो पाता है तथा पौधों का विकास भी अवरूद्ध नहीं होता है। अगर खेत अधिक ढलान (विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में जैसे उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश) वाले हैं तो उनको छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित कर क्यारियाँ बनाकर समतल कर लें।

3. भूमि की गुणवत्ता में वृद्धि - गेहूँ सघनीकरण विधि में जैविक तरीके से खेती करने पर जोर दिया जाता है जिसका उद्देश्य गेहूँ की उत्पादकता व उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के साथ-साथ भूमि की गुणवत्ता भी बनाए रखना है। भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करने से पूर्व मृदा की जाँच कराना अति आवश्यक है। मृदा की जाँच कराने से उसकी वर्तमान उत्पादकता का पता चल जाता है जिसके आधार पर हम उसमें सुधारों के उपायों का चयन ठीक प्रकार से कर सकते हैं। गेहूँ की अच्छी पैदावार के लिए फसल में 32-48:16-24:12-16 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से क्रमशः नत्रजन, फाॅस्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। उपरोक्त पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खाद से किया जाए तो अच्छा रहता है।

भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करने के निम्न उपाय हैं।


कम्पोस्ट खाद(क) कम्पोस्ट खाद - 4-5 टन (3-4 ट्राली) अच्छी सड़ी गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिलानी चाहिए। अगर इसके साथ वर्मी कम्पोस्ट, नाडेप कम्पोस्ट उपलब्ध हो तो उनको भी गोबर की खाद के साथ भूमि में मिला देना चाहिए। इससे मृदा की संरचना एवं उत्पादकता बेहतर होती है।

(ख) हरी खाद - खेत में गेहूँ बुवाई से पूर्व जुताई करके दो दल वाली फसलें जैसे सनई, ढैंचा, बरसीम आदि फसलों की बुवाई करनी चाहिए जिनको 35 से 45 दिन पश्चात खेत में जुताई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए। इससे भूमि में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है और ये जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन लेकर जड़ों में संग्रहित करते हैं। अधिकांशतः पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूँ धान के तुरन्त बाद ही बोया जाता है। जिससे हरी खाद के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है। इसके लिए धान की खेती से पूर्व ही यह प्रक्रिया अपना लेनी चाहिए जिससे दोनों फसलों को लाभ मिल सके।

(ग) हरी खाद बनाने की दाभोलकर विधि - यह विधि काफी लोकप्रिय है। साधारणतः हरी खाद प्राप्त करने के लिए लेग्युमिनस फसलों को ही बोया जाता है। लेकिन दाभोलकर विधि में 5 (अनाज, दलहन, तिलहन, लेग्युमिनस एवं मसाले) तरह के बीजों का मिश्रण करके बोया जाता है। बाद में इन्हें जोत कर मिट्टी में दबा दिया जाता है।

इस विधि में दलहन, तिलहन, अनाज और हरी खाद - प्रत्येक के 6 कि.ग्रा. बीज और मसाले के 500 ग्राम बीज मिलाये जाते हैं। बोने के 40 से 45 दिन के बाद जुताई करके इनको मिट्टी में दबा दिया जाता है। इससे मिट्टी की ऊपरी परत में लाभदायक जीवाणुओं से ह्यूमस (कार्बनिक पदार्थ) बनता है। हरी खाद की फसल को बढ़ने एवं सड़ने के लिए उचित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है।

(घ) अन्य जैविक खाद - उपरोक्त खादों के अतिरिक्त भी दूसरे खाद जैसे नीम की खली, भेड़ व बकरी की खाद एवं मुर्गियों की खाद का उपयोग भी भूमि की उर्वरता सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा कुछ तरल खाद जैसे पंचगव्य, अमृत घोल और मटका खाद जो बुवाई पूर्व तथा फसल में गुड़ाई के साथ क्रमशः डालने से भी भूमि की उत्पादकता सुधरती है और पौधों का विकास भी अच्छी प्रकार से होता है।

4. बीज का चयन - बुवाई हेतु बीज की किस्म का चयन तात्कालिक परिस्थितियों (सिंचित/असिंचित) के अनुरूप किया जाना चाहिए। बीज प्रमाणित व उन्नत किस्म का होना चाहिए। बीज स्वस्थ हो तथा उसमें अन्य प्रजाति के बीज मिश्रित न हो। बीज चयन के लिए सर्वप्रथम सूप या छन्नी से अनावश्यक वस्तुओं को अलग कर लें। उसके बाद चौड़े मुँह के बर्तन में पानी भरकर बीज को डुबोयें। जो बीज ऊपर तैरने लगे उनको बाहर निकाल दें। इस प्रक्रिया को तब तक दोहरायें जब तक बीज ऊपर तैरने बंद ना हों। केवल उन्हीं बीजों का चयन करना चाहिए जो पानी में नीचे बैठ जायें।

5. बीज उपचार - बीज का उपचार करना आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम बीज को 8-10 घंटे तक पानी में डुबो कर रखें। उसके बाद प्रति एक किलो गेहूँ के बीज को 200-250 मि.ली. गौमूत्र एवं आवश्यकतानुसार पानी में मिलाकर उपचार करें। कुछ समय बाद बीज को निकाल दें तथा उसमें 250-500 ग्राम गुड़, 1 कि.ग्रा.वर्मी कम्पोस्ट खाद एवं 1 कि.ग्रा.राख मिलाकर बीज के ऊपर उसकी परत चढ़ायें और छायादार स्थान पर सुखायें। यह प्रक्रिया बुवाई के एक दिन पूर्व कर लेनी चाहिए। बीज उपचार करने से बीज के अंकुरण की क्षमता बढ़ती है तथा बीज से लगने वाले रोगों से फसल को बचाया जा सकता है।

6. बुवाई के समय खेत की तैयारी - मिट्टी को अच्छी भुरभुरी बनाने हेतु खेत की दो से तीन जुताई करके पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न रहें और खरपतवार कट कर मिट्टी में मिल जाए। जहाँ पानी की सुविधा हो वहाँ बीज बुवाई से 10-15 दिन पूर्व खेत में एक सिंचाई कर देनी चाहिए। इसको आम भाषा में किसान पलेवा करना कहते हैं।

इसके करने से खेत में खरपतवार शीघ्र उग आते हैं जिनको किसान बीज बुवाई से पूर्व जुताई के माध्यम से मिट्टी में मिला देता है।

7. बीज की मात्रा - गेहूँ की अच्छी पैदावार लेने के लिए जलवायु एवं भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार उचित किस्म के बीज का चयन एवं सही समय से बुवाई करना आवश्यक है। देर से बुवाई करने पर उत्पादन में कमी आती है। गेहूँ सघनीकरण विधि में बीज की मात्रा, अपनायी गयी बीज से बीज व पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर निर्भर करती है किसानों के यहाँ किये गए विभिन्न प्रयोगों के आधार पर पाया गया कि इस विधि में बीज की मात्रा, बीज से बीज एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी एवं एक स्थान पर बोये गए बीज की संख्या के अनुसार निम्न प्रकार हैं:

क्र. सं.

बीज से बीज व पंक्ति से पंक्ति की दूरी (इंच)

एक स्थान पर बोये जाने वाले बीज की संख्या

बीज की मात्रा  (कि.ग्रा/एकड़)

1.

6x6

एक बीज/दो बीज

5-6/8-10

2.

8x8

एक बीज/दो बीज

4-5/6-8

3.

10x10

एक बीज/दो बीज

2.5-3.5/3.5-4

 

टिप्पणीः मोटे दानों वाली किस्मों में यह मात्रा बढ़ सकती है।

बीज बुवाई8. बीज बुवाई - आमतौर पर किसान छिटकवां विधि या पंक्तियों में बीज बुवाई करके गेहूँ की खेती करते हैं। इससे बीज अधिक लगता है तथा पैदावार भी कम होती है। गेहूँ सघनीकरण विधि में पंक्ति से पंक्ति की निश्चित दूरी के साथ-साथ बीज से बीज की भी निश्चित दूरी रखी जाती है। एक स्थान पर एक या दो बीज की बुवाई करते हैं। बीज की बुवाई 2 इंच से अधिक गहराई पर नहीं करनी चाहिए। इसके लिए किसान गेहूँ सघनीकरण विधि के अनुकूल सीड ड्रिल का उपयोग कर सकते हैं। सीड ड्रिल उपलब्ध न होने की स्थिति में मार्किंग यन्त्रों (जैसे रस्सी, लकड़ी या अन्य मार्कर) के द्वारा खेत में निश्चित दूरी पर निशान लगाकर बुवाई की जा सकती है। सीड ड्रिल द्वारा बुवाई करने से समय व श्रम की बचत होती है। बीज बुवाई के समय वर्मी कम्पोस्ट खाद या अन्य जैविक खादों का उपयोग करना चाहिए जिससे बीज का जमाव पूर्ण व अच्छे प्रकार से होता है। जहाँ पर किसानों को बीज एवं पंक्तियों के बीच निश्चित दूरी रखने में कठिनाई होती है वहाँ पर गेहूँ सघनीकरण विधि के अन्तर्गत शुरूआती वर्षों में पक्तियों में निश्चित दूरी रखते हुए कम बीज डालकर बुवाई करने की सलाह दी जाती है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 8-10 इंच रखनी चाहिए। इसके लिए किसान हल व सीड ड्रिल का उपयोग कर सकते हैं। इससे किसानों को परम्परागत विधि की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत कम बीज की आवश्यकता होती है। पी.एस.आई. ने सिंचित क्षेत्रों में किसानों द्वार पौध रोपण से भी गेहूँ सघनीकरण विधि पर प्रयोग किये हैं जो काफी सफल रहे हैं। पौधरोपण द्वारा गेहूँ की खेती का विवरण आगे दिया गया है।

पौध रोपण द्वारा गेहूँ की खेती - इस विधि को सिंचित क्षेत्रों में ही अपनाया जा सकता है। गेहूँ की पौध तैयार करने के लिए नर्सरी जमीन से 6 इंच ऊँची, 3 फुट चौड़ी एवं लम्बाई आवश्यकतानुसार रखकर तैयार किया जाता है। नर्सरी में मिट्टी व कम्पोस्ट खाद का अनुपात 3:1 रखना होता है। नर्सरी में बीज बुवाई के उपरान्त मल्चिंग की जाती है जिसको 4 से 6 दिन के उपरान्त हटा दिया जाता है। तैयार खेत में नर्सरी से निकाले गये दो से तीन पत्ती (15-20 दिन) वाले पौधों (एक या दो पौधे) का रोपण जड़ों को बिना नुकसान पहुँचाये, उचित दूरी (6-8 इंच) पर करते हैं। रोपण के उपरान्त पौधों को मिट्टी में हल्के से दबा देना चाहिए। रोपण के समय वर्मी कम्पोस्ट या अन्य जैविक खादों का उपयोग बहुत लाभदायक रहता है। पौध रोपण के बाद हल्की सिंचाई आवश्यक है।

पौध रोपण करते समय सावधानियाँ -


i. जड़ों को नुकसान पहुँचाये बिना पौध का रोपण करें।
ii. रोपाई से पहले पौधों को अलग-अलग कर लें।
iii. नर्सरी से निकाले गए पौधों की जड़ों को बिना धोये रोपाई करें।
iv. पौधों को उचित गहराई पर ही रोपें।

पौध रोपण9. खरपतवार नियन्त्रण - गेहूँ का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि खेत में अन्य फसलों एवं खरपतवार के पौधे न हों। खरपतवार के पौधे न केवल गेहूँ की फसल को दिए गए खाद एवं पानी का उपयोग करते हैं बल्कि प्रकाश, वायु व स्थान हेतु फसल के साथ प्रतियोगिता करके मुख्य फसल यानी गेहूँ का उत्पादन (15-30 प्रतिशत तक) घटा देते हैं। पहली गुड़ाई, बुवाई के 20-25 दिन के पश्चात वीडर द्वारा कर लेनी चाहिए इसके बाद दूसरी व तीसरी गुड़ाई 10 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। इससे पौधों की जड़ों को प्रकाश, हवा एवं उचित मात्रा में पोषक तत्व मिल जाते हैं। जड़ें अधिक लम्बी व गहरी होने से पौधे मजबूत होते हैं तथा फसल गिरने की सम्भावना कम होती है। वीडर चलाते समय खेत में नमी अवश्य होनी चाहिए। वीडर न चलने की स्थिति में कुदाल या रैक से भी खरपतवार निकाले जा सकते हैं। निकाले गये खरपतवार को मिट्टी में दबा देना चाहिए जिससे वे सड़-गल कर खाद का काम कर सकें। निकाले गये खरपतवार के पौधों को गेहूँ की फसल की पंक्तियों के बीच में बिछा देने से खेत (विशेषकर असिंचित क्षेत्र) में नमी संरक्षित होने के साथ-साथ खरपतवार के पौधों के पुनः निकलने की सम्भावना कम हो जाती है।

टिप्पणी: पौधरोपण विधि में पौधरोपण के पश्चात 10-15 दिनों के अन्तराल पर 2 से 3 बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।

10. सिंचाई एवं जल प्रबन्धन - सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेहूँ का अच्छा उत्पादन लेने के लिए निम्न सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए।

उपलब्ध सिंचाईनोट: *उपलब्ध सिंचाई देनी है।

खेत को कभी नम व कभी सूखा रखना जरूरी है। प्रयोगों के आधार पर पाया गया है कि गेहूँ सघनीकरण विधि द्वारा की गई खेती में केवल 3 से 4 सिंचाई देने पर भी ज्यादा उत्पादन मिलता है।

11. कल्लों का निकलना - 30 से 60 दिन के बीच गेहूँ के पौधों में सबसे ज्यादा कल्ले निकलते हैं क्योंकि इस समय पौधों को धूप, हवा व पानी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। अनुभवों के आधार पर यह पाया गया है कि जहाँ एक बार वीडर द्वारा गुड़ाई की गई वहाँ 8-12 कल्ले निकले, जहाँ दो बार गुड़ाई हुई वहाँ अधिकतम 15-20 कल्ले निकले व तीसरी बार गुड़ाई करने में 25 से अधिक कल्ले निकले। अतः अच्छा उत्पादन लेने के लिए कम से कम 3 बार वीडर या अन्य यन्त्रों से गुड़ाई करना जरूरी है।

12. रोग व कीट प्रबन्धन - रोगों से बचाव हेतु बीज का उपचार अवश्य कर लेना चाहिए। बुआई के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का ही चयन करें। रोगग्रस्त पौधों को खेत से निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। रोग व कीट प्रबन्धन के लिए प्राकृतिक तरीकों व जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस विधि में रोग व कीटों का प्रकोप प्रायः कम होता है क्योंकि पौधे से पौधे की दूरी ज्यादा होने से प्रकाश व हवा पर्याप्त मिल जाती है और जैविक खाद के उपयोग से पौधों को प्राकृतिक पोषण मिलता है।

13. कटाई - गेहूँ सघनीकरण विधि द्वारा समय से बीज की बुवाई करने एवं इसके सभी सिद्धान्तों को ठीक से लागू करने पर फसल भी समय से पकती है। गेहूँ की फसल पकने के शीघ्र बाद ही कटाई कर लेनी चाहिए। जड़ों का विकास अच्छे से होने के कारण पकते समय पौधा हल्का सा हरा दिखाई देता है। कटाई का सर्वोत्तम समय वह है जब दानों में 20-25 प्रतिशत नमी विद्यमान हो।

उपज - परम्परागत विधि की अपेक्षा गेहूँ की सघनीकरण विधि द्वारा अनाज का उत्पादन लगभग डेढ़ से दो गुना तक अधिक होता है। लोक विज्ञान संस्थान (पी.एस.आई.) के तकनीकी सहयोग से गत वर्षों में हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड में किसानों द्वारा किये गये प्रयोगों के परिणामों का वर्षवार विवरण सारणी अ तथा ब में दिये गए हैं।

गेहूँ सघनीकरण विधि द्वारा खेती करने के लिए निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना अतिआवश्यक हैः


उपज1. उचित भूमि का चयन जरूरी है। अगर सम्भव हो तो मृदा परीक्षण कराना चाहिए। लवणीय, अम्लीय तथा जलरूद्ध भूमि को गेहूँ की खेती के लिए चयन नहीं करना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों में इस प्रकार की समस्याग्रस्त भूमि बहुत कम है।

2. अच्छा उत्पादन लेने के लिए क्षेत्र की पारिस्थितिकी के अनुसार ही गेहूँ की किस्म का चुनाव करना चाहिए।

3. खेत में अनावश्यक पानी जमा न हो इसके लिए खेत को समतल करना अति आवश्यक है। खेत से जल निकासी का उचति प्रबन्ध करें।

4. अच्छे जमाव हेतु उन्हीं बीजों का चयन करें जिनकी जमाव क्षमता प्रमाणित हो अर्थात स्वस्थ बीज की ही बुवाई करें। इस बात का ध्यान रखें कि बीज के साथ अनावश्यक पदार्थ और अन्य प्रजाति तथा अन्य फसलों के बीज खेत में न जायें।

5. फसल को रोगों से बचाव हेतु बीज का उपचार अवश्य करें क्योंकि अधिकांश रोग बीज से ही पनपते हैं।

6. बीज बुवाई के समय यह अवश्य सुनिश्चित करें कि बीज से बीज व पंक्ति से पंक्ति की दूरी एक समान अर्थात गेहूँ सघनीकरण विधि में बताई गई दूरी के अनुसार हो।

7. जहाँ पंक्तियों के साथ-साथ बीज की निश्चित दूरी रखने में कठिनाई हो वहाँ पर केवल पंक्तियों के बीच निश्चित दूरी रखते हुए कम बीज डालकर बुवाई करें।

8. खेत में कम पानी का उपयोग करते हुए गेहूँ सघनीकरण विधि के अनुसार समय से सिंचाई करें।

9. निराई-गुड़ाई समय से करनी चाहिए। इससे पौधों का पूर्ण विकास समय से होता है।

10. जैविक खाद का प्रयोग समय से व उचित मात्रा में करें।

सारणी - अ: उत्तराखण्ड में किये गए गेहूँ सघनीकरण विधि से प्रयोगों का विवरण (2007-2009)


उत्तराखण्ड में किये गए गेहूँ सघनीकरण

सारणी - ब: हिमाचल प्रदेश में किये गए गेहूँ सघनीकरण विधि के प्रयोगों का विवरण (2007-2009)


हिमाचल प्रदेश में किये गए गेहूँ सघनीकरण विधि

पंचगव्य


परिचय
प्राचीन काल से ही भारत जैविक आधारित कृषि प्रधान देश रहा है। हमारे ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख किया गया है। पंचगव्य का अर्थ है पंच+गव्य (गाय से प्राप्त पाँच पदार्थों का घोल) अर्थात गौमूत्र, गोबर, दूध, दही, और घी के मिश्रण से बनाये जाने वाले पदार्थ को पंचगव्य कहते हैं। प्राचीन समय में इसका उपयोग खेती की उर्वरक शक्ति को बढ़ाने के साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता था।

विशेषतायें


i. भूमि में जीवांशों (सूक्ष्म जीवाणुओं) की संख्या में वृद्धि
ii. भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि
iii. फसल उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि
iv. भूमि में हवा व नमी को बनाये रखना
v. फसल में रोग व कीट का प्रभाव कम करना
vi. स्थानीय संसाधनों पर आधारित
vii. सरल एवं सस्ती तकनीक पर आधारित

आवश्यक सामग्री


गौमूत्र

1.5 ली. (देशी गाय)

गोबर

2.5 कि.ग्रा.

दही

1 कि.ग्रा.

दूध

1 ली.

देशी घी

250 ग्राम

गुड़

500 ग्राम

सिरका

1 ली.

केला

6

कच्चा नारियल

2

पानी

10 लीटर

प्लास्टिक का पात्र/मटका

1

 

पंचगव्य बनाने की विधि


प्रथम दिन 2.5 कि.ग्रा. गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके में डाल दें व ढक्कन अच्छी तरह से बंद कर दें। अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलायें। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल दें व फिर से ढक्कन बंद कर दें। अगले दिन इसे लकड़ी से हिलाने की प्रक्रिया शुरू करें और सात दिन तक प्रतिदिन दोहराएँ। इसके बाद जब इसका खमीर बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लें कि पंचगव्य तैयार है। इसके विपरीत अगर खटास भरी बदबू आए तो हिलाने की प्रक्रिया एक सप्ताह और बढ़ा दें। इस तरह पंचगव्य तैयार होता है अब इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं। अब इसे खाद, बीमारियों से रोकथाम, कीटनाशक के रूप में व वृद्धिकारक उत्प्रेरक के रूप में उपयोग कर सकते हैं। इसे एक बार बना कर 6 माह तक उपयोग कर सकते हैं। इसको बनाने की लागत 70 रु. प्रति लीटर आती है।

उपयोग विधि


i. पंचगव्य का उपयोग अनाज व दालों (धान, गेहूँ, मंड़ुवा, राजमा आदि) तथा सब्जियों (शिमला मिर्च, टमाटर, गोभी वर्गीय व कन्द वाली) में किया जाता है।
ii. छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी आवश्यक है।
iii. बीज उपचार से लेकर फसल कटाई के 25 दिन पहले तक 25 से 30 दिन के अन्तराल में इसका उपयोग किया जा सकता है।
iv. प्रति बीघा 5 ली. पंचगव्य 200 ली. पानी में मिलाकर पौधों के तनों के पास छिड़काव करें।

बीज उपचार


i. 1 लीटर पंचगव्य के घोल में 500 ग्राम वर्मी कम्पोस्ट मिलाकर बीजों पर छिड़काव करें और उसकी हल्की परत बीज पर चढ़ायें व 30 मिनट पर छाया में सुखाकर बुआई करें।

पौध के लिए


i. पौधशाला से पौध निकाल कर घोल में डुबायें और रोपाई करें।
ii. पौधा रोपण या बुआई के पश्चात 15-25 दिन के अन्तराल पर 3 बार लगातार छिड़काव करें।

सावधानियाँ


i. पंचगव्य का उपयोग करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है।
ii. एक खेत का पानी दूसरे खेतों में नहीं जाना चाहिए।
iii. इसका छिड़काव सुबह 10 बजे से पहले तथा शाम 3 बजे के बाद करना चाहिए।
iv. पंचगव्य मिश्रण को हमेशा छायादार व ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए।
v. इसको बनाने के 6 माह तक इसका प्रयोग अधिक प्रभावशाली रहता है।
vi. टीन, स्टील व ताम्बा के बर्तन में इस मिश्रण को नहीं रखना चाहिए। इसके साथ रासायनिक कीटनाशक व खाद का उपयोग नहीं करना चाहिए।

अमृत घोल


विशेषतायें
i. मिट्टी में मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश) के जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करता है।
ii. शीघ्र तैयार होने वाली खाद है।
iii. मिट्टी को पोली करके जल रिसाव में वृद्धि करता है।
iv. मिट्टी को भुरभुरा बनाता है तथा भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करता है।
v. फसलों पर कीट व रोगों का प्रकोप कम करता है।
vi. स्थानीय संसाधनों से बनाया जा सकता है।
vii. इसको बनाने की विधि सरल व सस्ती है।

आवश्यक सामग्री


गौमूत्र

1 ली. (देशी गाय)

गोबर

1 कि. ग्रा.

मक्खन

250 ग्राम

गुड़

500 ग्राम

शहद

500 ग्राम

पानी

10 लीटर

प्लास्टिक का पात्र/मटका

1

 

बनाने की विधि


इन सभी को एक साथ अच्छी तरह मिलाकर किसी पात्र या मटके में 7 से 10 दिन तक छाया में रखें व प्रति दिन सुबह-शाम लकड़ी से हिलाते रहें। अब 10 लीटर पानी में 1 ली. अमृत घोल मिला कर बुआई से दो दिन पूर्व व दूसरी गुड़ाई के बाद खेत में छिड़काव करें। ध्यान रखें कि इसके साथ किसी प्रकार की रासायनिक खाद, कीटनाशक या खरपतवार निवारक दवा का उपयोग न किया जाय।

उपयोग


i. 1 बीघा भूमि के लिए 16 ली. अमृत घोल में 200 लीटर पानी मिला कर छिड़काव करें।
ii. बीज बुआई से दो दिन पूर्व व दूसरी गुड़ाई के बाद इसका छिड़काव करें।

मटका खाद


विशेषतायें
i. स्थानीय संसाधनों से तैयार किया जाता है।
ii. यह तकनीक सरल, सस्ती और प्रभावशाली है।
iii. पौधों में वानस्पतिक वृद्धि तेजी से करती है।
iv. भूमि में मित्र जीवाणुओं की संख्या बढ़ाता है।
v. भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करता है और उत्पादन बढ़ाता है।
vi. इसके उपयोग से रासायनिक खादों पर निर्भरता कम होगी।
vii. फसल की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

आवश्यक सामग्री


गौमूत्र

15 ली. (देशी गाय)

गाय का ताजा गोबर

15 कि.ग्रा.

गुड़

250 ग्राम

पानी

15 लीटर

प्लास्टिक का पात्र/मटका

1

 

बनाने की विधि


सर्वप्रथम 15 ली. पानी में 250 ग्राम गुड़ का घोल तैयार करें। इसके बाद पात्र में गौमूत्र डाल कर हिला दीजिये। मटके में 5 ली. गौमूत्र, 5 कि.ग्रा. गोबर व एक तिहाई गुड़ का घोल मिला दीजिये और एक लकड़ी की सहायता से दो मिनट तक सीधा व फिर उलटा घुमाइये। इसे क्रमवार दो बार करके सभी सामग्री अच्छी तरह मिला दीजिये। कुछ देर बाद 5 मिनट तक डण्डे से घुमाइये। इसके बाद घड़े का मुँह बंद कर दीजिये और ढक्कन को गोबर व मिट्टी से लीप दीजिये। 7-10 दिन तक छाया में रखें। तब खाद तैयार हो जायेगी। फिर 200 लीटर का ड्रम लेकर 150 ली, पानी भरकर यह मटका खाद उसमें मिला कर 30 मिनट तक घुमायें। इसके बादा 1 बीघा खेत में छिड़काव करें। (पहला छिड़काव बुआई से दो दिन पहले व दूसरा बुआई के 55-60 दिन बाद तथा तीसरा छिड़काव फूल आने से पहले करें।) मटका खाद बनाने के बाद दो तीन दिन में ही इसका उपयोग करना अनिवार्य है। 7 दिन से ज्यादा पुराना गौमूत्र उपयोग नहीं करना चाहिए।

उपयोग


i. 1 बीघा खेत में 30 ली. मटका खाद 200 लीटर पानी में मिला कर फसल में जड़ों के पास छिड़काव करें।
ii. अनाज वाली फसलों में - बुआई के 25 दिन, 50 दिन, व 70 दिन पर पानी में मिला कर छिड़काव करें।
iii. इसका छिड़काव करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है।

फसल में रोग व कीट नियन्त्रण


सामग्री

गौमूत्र

10 ली. (देशी गाय)

गाय का गोबर

5 कि. ग्रा.

हल्दी पाउडर

250 ग्राम

लहसुन का पेस्ट

250 ग्राम

पानी

5 लीटर

 

सभी सामग्री को आपस में मिला दें और 25-30 दिन तक प्लास्टिक पात्र में रखें। इसके बाद 150-200 ली. पानी तथा 1 ली. दूध मिला कर पौध रोपण के 20 दिन बाद व फूल आने से 15 दिन पहले फसल में छिड़काव करें।

1 कि.ग्राम तुलसी की पत्तियों में 1 ली. पानी मिलाकर उबालें। जब आधा पानी रह जाए तो उसमें से तुलसी की पत्तियाँ छान लें व दुबारा गर्म करें। जब पानी 100-150 ग्राम रह जाये तो उबालना बन्द कर दें। झुलसा व फफूँदी रोगों से ग्रस्त फसलों पर इसका छिड़काव करें।

लकड़ी की राख, रेत, धान की भूसी को नीम के तेल या मिट्टी तेल में 5:1 के अनुपात में मिला कर 12 घंटे रखें। इसके बाद खेत में छिड़काव कर दें। इसके छिड़काव से कीट खेतों से भाग जाते हैं।

1 कि.ग्रा. तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 कि.ग्रा. लकड़ी की राख के साथ मिला कर बीज बुआई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव करें।

1 कि.ग्रा. तम्बाकू की पत्तियों को 10 ली. पानी में गर्म करें। ठण्डा होने के बाद उसमें 250 ग्राम चूना और 500 मि.ली. मिट्टी का तेल मिलायें। इसको 20 ली. पानी में मिला दें तथा उसमें 100 ग्राम साबुन का घोल मिला कर दीमक से फसल के बचाव के लिये छिड़काव करें।

1 ली. दूध में 12 ली. पानी मिलायें। 50 ग्राम तुलसी या बेल का रस मिला कर 15-20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। यह फफूँदी वाले रोगों में काफी लाभदायक होता है।

धान की भूसी 5 कि.ग्रा., 2 ली. मट्ठा, 2 कि. ग्रा., तिल की पत्तियाँ, 6 ली.गोमूत्र को आपस में मिला कर एक प्लास्टिक पात्र में 7-10 दिन रखें। इसके बाद 40 ली. पानी मिला कर बीज बुआई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़क दें। यह मिर्च व बैंगन में बहुत उपयोगी है।

ज्यादा देर से बुवाई करने पर फसल पर रोग व कीट ज्यादा लगते हैं व उत्पादन कम होता है। खेत में ज्यादा समय तक पानी भरकर नहीं रखना चाहिए। इससे कई रोग व कीट लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। समय पर पानी खेत से बाहर निकालते रहना चाहिये जिससे भूमि में हवा का आवागमन सही ढँग से हो सके। इससे पौध अच्छी तरह बढ़ते हैं व उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।

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