गधेरों का संरक्षण भी जरूरी


लोहाघाट/चम्पावत/टनकपुर। गंगा बचाओ-नदी बचाओ, बहुत सुन लिये तुम्हारे ये नारे। क्या बिना गाड़-गधेरों के संरक्षण के ही ये नदियाँ अधिक दिनों तक बची रह सकेंगी? यह भी तब जब ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और हिमालय में हिम का अभाव हो रहा है। हाँ, यह नदी बचाओ की बात करने वाले लोगों से पूछा जाना चाहिये, जो यहाँ के गाड़-गधेरों के महत्त्व को समझे बिना ही नदी बचाओ का नारा देकर स्वयं को किसी पुरस्कार की श्रेणी में खड़ा कर धन्य कर देना चाहते हैं।

नालो द्वारा आता है घराट का पानीनालो द्वारा आता है घराट का पानी ऐसे लोग नदी के बहाने ही स्वयं को प्रचारित करने से पीछे नहीं रहने देना चाहते। नदी बचाओ जैसे नारों की यह उपज किसी महानगरी हवा की ही देन हो सकती है, जिन्हें हिमालयी क्षेत्र से आने वाली नदियों और उनके जलस्तर के इतिहास की सही जानकारी ही नहीं है। उत्तराखंड ही क्या, देशभर के पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा के बाद मैदानों की प्यास बुझाने के लिये पहुँचने वाली नदियों के जलस्तर में बड़ा योगदान गाड़-गधेरों का है।

विशाल पर्वतीय वन क्षेत्रों के चरण स्पर्श के बाद मैदानों की तरफ रुख करने वाली नदियाँ गाड़-गधेरों से आने वाले जल को साथ लेकर ही स्वयं को धन्य करने को आतुर लोगों को नहीं दिखाई देता। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और हिमालयी क्षेत्र में बर्फबारी भी आशाकूल नहीं हो रही है। दक्षिण पूर्वी एशिया की अधिकतर सभी नदियाँ हिमालय या तिब्बत के पठार के ग्लेशियरों से ही निकलती हैं। जापान से लेकर पाकिस्तान व अन्य देशों की नदियाँ भी इन्हीं बर्फीले क्षेत्रों से आगे बढ़ रही हैं।

बदलती पर्यावरण स्थितियों में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना शुरू हो गया है। एक तरफ जहाँ 2030 तक सभी ग्लेशियरों के पिघल जाने की चिंता सताए जा रही है, वहीं दूसरी तरफ खास तौर पर भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में इन हिमालयी क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों को बचाने के लिये गाड़-गधेरों के महत्त्व को पूरी तरह नजर अंदाज किया जा रहा है। पेयजल स्रोतों की सामूहिक भागीदारी का ही परिणाम है।

अपनी यात्रा में कई पेयजल स्रोतों के जल को शामिल कर तेजी से आगे बढ़ाने वाले कहीं गाड़-गधेरों का प्रवाह यदि तेजी से कम हो रहा है तो यह चिन्ता का सवाल होना ही चाहिये। यह सत्य है कि ग्लेशियरों से आने वाली नदियों की यात्रा में यदि सैकड़ों गाड़-गधेरे शामिल न हों तो उनका महत्त्व निश्चित रूप से समझ आने लगेगा। तमाम तरह के प्रदूषण की बात कर नदियों में नीर का संसार देख व समझ रहे लोगों को इन गाड़-गधेरों के महत्त्व को समझना चाहिये।

ग्लेशियरों के साथ ही गाड़-गधेरों को बचाए रखने के लिये वन क्षेत्र को समृद्ध बनाए रखने की कोशिश जरूरी है। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक पेयजल स्रोत हैं, वहाँ वन संपदा के संरक्षण को लेकर तत्कालीन रूप से सक्रिय और ठोस उपाय किये जाने जरूरी हैं अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि गंगा व नदी बचाओ की गूँज इन गाड़-गधेरों की कर्णप्रिय कल-कल करने की आवाज कहीं अतीत का हिस्सा न बन जाए। प्रदूषण, शहरीकरण जैसी समस्याओं से कई स्थानों में इन्हीं समृद्ध गाड़-गधेरों का अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है। पर्वतीय क्षेत्रों के उन शहरों अथवा गाँवों में बहने वाले गाड़-गधेरे भी तेजी से संकट के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं, जहाँ विकास के नाम पर मानव का हस्तक्षेप बढ़ा है।

यहाँ पर गौर करने वाली बात है कि इन गाड़-गधेरों का उद्गम किसी भी ग्लेशियर से नहीं बल्कि वनाच्छादित क्षेत्रों की गोद में स्थिति प्राकृतिक पेयजल स्रोतों से होता है। सीधे तौर पर जहाँ प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं की गई वहाँ के गाड़-गधेरों के जलस्तर में आज भी अत्यधिक परिवर्तन नहीं आया है। हालाँकि यह कहना गलत होगा कि वे पर्यावरणीय परिवर्तन की मार से अछूते हैं, लेकिन फिर भी जलस्तर में कहीं गाड़-गधेरों की स्थिति बेहतर है।

पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे ही गाड़-गधेरों उनके तीव्र जल प्रवाह के कारण आज भी पौराणिक ‘घराट’ पनचक्की चलते हुए देखी जा रही है।

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