‘टिहरी बाँध की वजह से टिहरी गढ़वाल की दशा में महत्त्वपूर्ण एवं भारी बदलाव आया है।’ जहाँ दिन में भी उल्लू बोलते थे। वहाँ अब आदमियों की भीड़ लगी रहती है। टिहरी देहरादून से आगे बढ़ गया है। कम से कम भीड़ के हिसाब से, सड़कें सभी जगह चौड़ी हो गई हैं। बुलडोजर पहाड़ी भैसों की तरह यत्र-तत्र खड़े हैं। हमारे यहाँ लक्ष्मी जी ने धनवर्षा की है। यह बात अलग है कि उस वर्षा का लाभ हम नहीं उठा पाए।
टिहरी की स्थापना से लेकर अब तक टिहरी पर काफी कुछ लिखा गया है। टिहरी तीन ओर से जल से घिरा है, इसलिए पण्डितों ने इसका नाम त्रिहरी रखा, जो अंग्रेजी नाम से टिहरी हुआ। श्री मालचन्द रमोला ने गंगा, भिलंगना और घृत नदी के संगम पर बसे होने के कारण इसका त्रिहरी-टिहरी नाम रखा जाना बताया। सत्यशरण असवाल का मत है कि ज्यादा उपयुक्त ‘तीरी’ शब्द जान पड़ता है। हिन्दी भाषा के इस ‘तीरी’ शब्द का अर्थ होता है तीर की तरह। यहाँ पर नदी की तेज धारा अर्थात तीर की तरह प्रवाह अथवा भूमि की तीर की शक्ल दोनों सम्भव है तथा सही भी है। वास्तव में यहाँ पर गंगा नदी की धारा बड़ी तेज थी तथा भूमि का एक छोर भी (गणेश प्रयाग में) तीर की तरह गंगा व भिलंगना नदियों के बीच दूर तक धँसा हुआ है। अस्तु इस नगर का वास्तविक नाम तीरी हो सकता है। आजादी से पूर्व टिहरी का साहित्यिक इतिहास गौरवशाली रहा है। यद्यपि आजादी के बाद भी साहित्य-सृजन होता रहा पर उसकी गति मन्द रही है।लेखकों और कवियों ने आम जनता की पीड़ा और दुःख दर्द को साहित्य में स्थान दिया। टिहरी के चार गैल्यों द्वारा रचित नाटक ‘पांखू’ में स्त्री को खरीद-बिक्री की वस्तु समझने की प्रवृत्ति पर चोट की गई। कन्या विक्रय, वृद्ध-विवाह, बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं की बुराइयों से जनमत जागृत किया गया। मोहन लाल नेगी के गढ़वाली कहानी संग्रह ‘जोनि पर छापु किलै’ में ग्रामीण जन-जीवन, रहन-सहन और आम आदमी की समस्याओं का खूब वर्णन मिलता है। कहानीकार और उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल ने ‘दूध का स्वाद’, ‘भैंस का कट्या’, ‘घर की इजजत’, ‘सोना’ जैसी कहानियाँ लिखकर सामन्तवादी प्रवृत्ति, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई है। ‘महाराजा कफ्फूशाह’ में सामन्ती युग की क्रूरता और रसिक मिजाजी का उल्लेख मिलता है। टिहरी नगर को अलंकृत करने में कोतवाल सुन्दरलाल, मुंशी करम खाँ, मियाँ हुसैन खाँ उर्फ खुरचन मियाँ के नाम प्रमुख हैं। श्री मेघाधर नौटियाल म्यूनिसपैलिटी टिहरी के प्रथम चेयरमेन मुंशी करम खाँ के विषय में लिखते हैं-
उन्होंने शहर की सफाई पर बड़ी रुचि दिखलाई और सफाई के अलावा शहर को इस तरह सजाया कि उनके लगवाए हुए पेड़ आज भी उनकी याद दिला रहे हैं। प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार श्रीराम शर्मा टिहरी में प्रताप हाईस्कूल में हेडमास्टर रहे थे। वे कुशल शिकारी भी थे। उन्होंने शिकार कथाओं में टिहरी का वर्णन किया है। ‘चील झपट्टा’ कहानी में उन्होंने लिखा है-
टिहरी नगर का वन विभाग कार्यालय दयारा नामक स्थान में है। दयारा सुरसरि चुम्बित तथा भिलंगना आलंगित टिहरी नगर से दक्षिण की ओर भिलंगना पार है। कौआ उड़ान में तो वह टिहरी से दो फर्लांग की दूरी पर होगा। पैदल मार्ग से नगर वाली सड़क से होकर और भिलंगना पुल पार करके उसकी दूरी एक मील के लगभग बैठेगी। ‘कुफ्र टूटा’ शिकार कथा में पण्डित जी लिखते हैं-
‘हम तीनों (ड्रिल मास्टर भूपाल सिंह, ड्रॉइंग मास्टर लक्ष्मीदत्त थपलियाल और लेखक) सिमलासू की लाट साहब वाली कोठी के अहाते में उस स्थान पर जा कर खड़े हुए। जहाँ से ठीक नीचे भिलंगना में स्वामी रामतीर्थ डूबे थे। जब-जब मैं सिमलासू के पास भिलंगना की ओर जाया करता था तभी मुझे युवा सन्यासी का वह पदस्मरण हो आता-
चिर सहचरी रियाजी छोड़ी, रम्यतटी रावी छोड़ी
शिखा-सूत्र के साथ हाय, उन बोली पंजाबी छोड़ी।।
पर उस दिन उसी स्थान पर विचारधारा बाघ की ओर थी। टिहरी शहर के आम आदमी की दरिद्रता और अतिथि सत्कार की भावना का वर्णन श्री राम शर्मा जी ने ‘मौत के मुँह में’ कहानी में इस प्रकार किया है-
बूढा एक छोटी सी भग्नावशेष कुटिया में रहता था। बर्तनों में तवा, करछी, पतीली, थाली, तीन गिलास और दो लोटे हैं। कपड़ों में बुढ़िया जो कुछ पहने है एक जीर्ण-शीर्ण कुर्ता, एक पैबन्ददार पहाड़ी धोती है और गहनों में नाक में सौभाग्य का चिह्न पीतल की नथ है। बूढ़ा एक लंगोट पहने और हाथ में हुक्का लिये- जिसको उसके दादा ने देहरादून से खरीदा था, हमारी खातिर में लगा था। सत्कार से सात्विक भाव से बूढ़े की आँखें चमक रही थीं और बाघ के मारने पर उसे जो प्रसन्नता हुई थी, वह कदाचित कैंसर के पतन से लायड जार्ज को भी न हुई। बूढ़े के सामने यदि प्रसिद्ध शिकारी सर सेम्युएल भी आ जाते तो वह उनका भी इतना कायल न होता, जितना कि वह हमारा था।
आचार-विचार से दार्शनिक और टिहरीवासियों की नजर में ‘सनकी’ डॉ. महावीर प्रसाद गेरोला ने टिहरी से ‘नैतिकी’ पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन किया। पत्रिका में उन्होंने अपने द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक साम्यवाद के सिद्धान्त का वर्णन किया है। उनका मानना है कि साम्यवाद एक सीमा के बाद समाप्त हो जाएगा। वहीं से आध्यात्मिक साम्यवाद प्रारम्भ होगा। श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने ‘बागी टिहरी की एक झाँकी’ लेख में टिहरी की जन क्रान्ति का वर्णन किया-
टिहरी में पहले ही फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया था। श्री विरेन्द्र दत्त सकलानी के नेतृत्व में आजाद पंचायत बनी, चारों ओर से बड़े-बड़े जुलूस बनाकर लोक कवि गुणानन्द पथिक के आजादी का जोश उभाड़ने वाले गीतों को गाते हुए लोग आ रहे थे। टिहरी शहर ने एक अद्भुत जनक्रान्ति का दर्शन किया। खजाना, थाना सब जगह आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का पहरा था। पन्द्रह जनवरी सन 1948 को भिलंगना और भागीरथी के संगम पर जहाँ पहले राजाओं की चिताएँ जलती थीं, जनता के दो प्यारे सपूतों नागेन्द्र सकलानी और मालू सिंह की चिताएँ जलीं। हजारों लोगों ने किसान नेता दादा दौलतराम के साथ भागीरथी का पवित्र जल हाथ में लेकर संकल्प लिया-
हम सब जीते जी गुलाम नहीं रहेंगे और शहीदों के खून की मोहर संकल्प पर लग गयी। सदियों पुरानी सामन्तशाही समाप्त हुई। एक अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल का उत्तर प्रदेश में विलीनीकरण हो गया। स्वर्गीय गोविन्द बल्लभ पन्त ने घोषणा की- ‘आज से तुम्हारे सब कष्ट दूर हुए। तुम्हें प्रदेश के साथ तरक्की करने का अवसर मिला है।’
कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के उल्लेख के बिना टिहरी के साहित्य का वर्णन अधूरा ही रहेगा। उन्होंने स्वयं तो बहुत कम लिखा है पर नवयुवकों को लिखने के लिये प्रोत्साहित किया है। उनके पास दुर्लभ पुस्तकों और ऐतिहासिक महत्व की दुर्लभ वस्तुओं का संग्रहालय था। वे स्वयं भी एक जीवन्त संग्रहालय थे। बीसवीं शताब्दी के चौथे चरण में टिहरी में बाँध निर्माण का कार्य प्रगति पर रहा। टिहरी की बदलती हुई तस्वीर का वर्णन डॉ. महावीर प्रसाद गैरोला के एक पत्र लेख में मिलता है। पत्र का अंश इस प्रकार है-
‘टिहरी बाँध की वजह से टिहरी गढ़वाल की दशा में महत्त्वपूर्ण एवं भारी बदलाव आया है।’ जहाँ दिन में भी उल्लू बोलते थे। वहाँ अब आदमियों की भीड़ लगी रहती है। टिहरी देहरादून से आगे बढ़ गया है। कम से कम भीड़ के हिसाब से, सड़कें सभी जगह चौड़ी हो गई हैं। बुलडोजर पहाड़ी भैसों की तरह यत्र-तत्र खड़े हैं। हमारे यहाँ लक्ष्मी जी ने धनवर्षा की है। यह बात अलग है कि उस वर्षा का लाभ हम नहीं उठा पाए। उससे हमारे खेत बह गए हैं और मकान ढह गए हैं। इक्कीसवीं सदी की तरफ दौड़ती दुनिया को गर्त में गिरने से पहले कोई नहीं बचा सकता है परन्तु टिहरी गढ़वाल उस सदी में पहुँचने से पहले बहुत बदल जाएगा।
आचार्य चिरंजीलाल आसवाल ने ‘मेरी प्यारी टिहरी’ में लिखा है-
जब तक भिलंगना और भागीरथी की धाराओं में पानी रहेगा, तब तक टिहरी की स्मृति हमारे मानस-पटल पर अक्षुण्ण बनी रहेगी। जैसे-सीता माता पृथ्वी से उत्पन्न हुई और अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करने के पश्चात पृथ्वी में ही समा गयी। उसी प्रकार टिहरी भी अपनी सुख-समृद्धि के इतिहास को समाप्त कर गंगा माता की गोद में समा जायेगी। टिहरी के जलमग्न होने से पूर्व एक नए नगर का निर्माण किया जा रहा है। जिसका नाम भी टिहरी ही रखा जायेगा। यद्यपि इस नये नगर में आधुनिक युग की सभी सम्भव सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। तथापि जिस आध्यात्मिक वातावरण के कारण टिहरी ने ख्याति प्राप्त की थी, वह शायद ही हमें वहाँ मिले। उसकी मधुर स्मृतियाँ हमें चिरकाल तक उद्वेलित करती रहेंगी, टिहरी हमारी जन्मभूमि है, उसके प्रति हमारा मातृवत स्नेह होना स्वाभाविक है। इसी स्नेह के वशीभूत होकर भगवान राम ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था-
‘पितृ पूर्वार्जिता भूमि दरिद्रापि सुखावहा,अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते।’
प्रसिद्ध साहित्यकार गंगा प्रसाद विमल ने अपने उपन्यास ‘मरीचिका’ में टिहरी का वर्णन किया है। उपन्यास के एक पात्र कफ्फू झल्ली को उन्होंने राजशाही के विरुद्ध खड़ा दिखाया है। उपन्यास में टिहरीवासियों के स्वभाव को भी दिखाया गया है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री आलोक प्रभाकर ने ‘युगवाणी’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख में लिखा है-
‘आपका स्वागत करते हैं बदबूदार पेशाबहार। यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी गंदगी के ढेर आपका स्वागत करते हैं। हर तरफ आपका स्वागत हो रहा है। देखिए तो उधर, वह बाराह महाशय आपके स्वागत में उस पंक सरोवर में स्नान कर तरोताजा होकर आपका इस्तकबाल करने ही जा रहे हैं।’ अपनी मातृभूमि से उखड़ने का दर्द श्री विद्यासागर नौटियाल के पत्र से झलकता है, जो उन्होंने श्री आलोक प्रभाकर को देहरादून से लिखा- ‘यहाँ मेरे बरामदे के बाहर एक कद्दू की बेल थी, उसे बीच से काटना पड़ा। करीब पन्द्रह दिनों तक उस कटे हुए हिस्से से लगातार टप-टप पानी नीचे फर्श पर टपकता रहता था। बाद में वह बेल जड़ से उखाड़ दी गयी। टिहरी नगर से कटने पर अपनी स्थिति भी उसी बेल की जैसी हो गई है।’ श्री सत्य प्रसाद रतूड़ी टिहरी डूबने की सच्चाई स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। वे मसूरी से पत्र लिखते हैं-
‘टिहरी मेरी जन्मभूमि छः। वखि सन 1908 मा मेरो जन्म होये थौ। बचपन अर जवानी का असली दिन वखि वे ही नगर मा गुजारेन। वा त मेरी अत्यधिक प्रिय नगरी छः। सु इनु ना बोला- लिखा कि वा डूबी रहे।’
टिहरी के जलमग्न होने के पश्चात टिहरी को अपने साहित्य का केन्द्र मानने वाली पुरानी साहित्यिक पीढ़ी के माध्यम से ही भविष्य की अनेकों पीढ़ियाँ टिहरी को जान पायेंगी। टिहरी नई पीढ़ी के चिन्तन और लेखन में शायद नहीं रहेगी क्योंकि टिहरी में रहने का अवसर नयी पीढ़ी को नहीं मिला। इस तरह समाज एक जीते-जागते शहर से विशालकाय झील बनने तक का सफल तय करने वाले ऐतिहासिक शहर को साहित्य के ही माध्यम से जान और समझ पायेगा।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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