गायब होते जलस्रोतों की कहानी


उद्गम स्थल से करीब एक किमी बाद ही नदी पूरी तरह सूख गई हैजल एवं जीवन को समरूप महत्व मिलता रहा है। बिना जल के हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। पूरे देश में जहाँ भी जलाभाव है वहाँ पर हाहाकार मचा हुआ है। जल की कमी से लोग पलायन करने पर मजबूर हैं। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जलस्रोतों की स्थिति तो और भी खराब है। शुरू से सत्ता केंद्र रही दिल्ली भी अपने जलस्रोतों को संरक्षित करने में असफल रही है। विकास की अंधदौर में हम अपनी मूल आवश्यकता को या तो भूल चुके हैं या जनबूझकर उसे याद नहीं करना चाहते। हमारी बेरुखी का नतीजा यह हुआ है कि कभी जलस्रोतों की गवाह रही दिल्ली अपने नागरिकों की प्यास को शांत नहीं कर पा रही है। दिल्ली के जलस्रोतों के गायब होने की यह कहानी कई सवाल पैदा करती हैं। किसी भी संवेदनशील इंसान को सोचने के लिये मजबूर करती है कि आखिर हमलोग इतने असंवेदनशील कैसे हो गए की ‘जीवन’ को ही दाँव पर लगा बैठे।

दिल्ली सरकार के अलग-अलग विभागों से आरटीआई के जरिए इन जलस्रोतों की असल कहानी जानने की जब कोशिश की गई तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। ये दस्तावेज बताते हैं कि दिल्ली के तालाबों, नदियों, व झीलों पर लोगों ने अपना आशियाना बना लिया है। कहीं पूरी आबादी बस चुकी है तो कहीं शमसान घाट, कब्रिस्तान, ईदगाह, धर्मशाला, या मंदिर बने हुए हैं। तमाम जगहों पर तो सरकारी संस्थाओं ने बस टर्मिनल, स्कूल, स्टेडियम या किसी और काम के लिये अतिक्रमण किया हुआ है।

सूचना के अधिकार के तहत मिली सूचना के मुताबिक जोहरपुरी के दो जलस्रोतों पर शमसान घाट बन चुका है, तो वहीं मुस्तफाबाद में एक जलस्रोत पर अब कब्रिस्तान व ईदगाह है। बाबरपुर के भी एक जल स्रोत पर अब शमशान घाट है। करावल नगर के एक जलस्रोत पर लोगों का कब्जा है। तो वहीं एक दूसरा जलस्रोत 99 साल के लिये डीटीसी को टर्मिनल बनाने के लिये लीज पर दे दिया गया है। गोकुलपुर के एक जलस्रोत पर 22 घर बन चुके हैं, यह एक अनाधिकृत कॉलोनी का हिस्सा है, जो दिल्ली सरकार द्वारा अधिकृत किए जाने की प्रक्रिया में है। वही हाल एक दूसरे जलस्रोत का भी है। तहसील कालकाजी के अंतर्गत आने वाले गाँव जोहड़ तुगलकाबाद पर डीडीए का अतिक्रमण है, तो वहीं ग्राम तेहखंड, सरकार दौलत मदार व ग्राम बहापुर के जलस्रोत पर आबादी बसी हुई है।

दिल्ली के बांकनेर गाँव के एक जलस्रोत पर अब स्टेडियम है। दिल्ली के फतेहपुर बेरी गाँव का एक जलस्रोत 70 फीसदी सूख चुका है। आरटीआइ के दस्तावेज बताते हैं कि इस जलस्रोत के 40 फीसदी हिस्से पर मंदिर व एक रास्ता बन चुका है। डेरा मंडी गाँव में भी स्थित एक जलस्रोत की भी यही कहानी है। इस जलस्रोत के 10 बिसवा जमीन पर मंदिर का निर्माण हो चुका है। मैदानगढ़ी में भी एक जलस्रोत पर मंदिर, आबादी व रास्ता है। सुलतानपुर के पाँच जलस्रोत पूरी तरह से सूख चुके हैं और अब उन्हें एक सरकारी स्कूल को आवंटित किया जा चुका है। असोला के भी एक जलस्रोत को एमसीडी स्कूल के लिये आवंटित कर दिया गया है। आया नगर का भी एक जलस्रोत पूरी तरह से सूख चुका है और अब वहाँ बस स्टैंड है। छत्तरपुर के 78 बीघा 1 बिसवा में फैले एक जलस्रोत के जमीन को छत्तरपुर मंदिर के लिये आवंटित किया गया है, बाकी में अनाधिकृत कॉलोनी का अतिक्रमण है। छत्तरपुर के ही एक दूसरे जलस्रोत पर अब जैन मंदिर है। तो एक ओर दूसरे जलस्रोत पर अग्रवाल धर्मशाला है।

इस प्रकार सरकारी आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में दिल्ली सरकार के अलग-अलग विभागों के तहत रजिस्टर्ड 971 जलस्रोत हैं, वहीं सरकार अभी 40 जलस्रोतों को ढूँढ़ नहीं पाई है। इस तरह से दिल्ली में जलस्रोतों का यह आँकड़ा 1011 हो जाता है। आँकड़ों के मुताबिक इस 1011 जलस्रोतों में से 168 जलस्रोतों पर अतिक्रमण हो चुका है, तो वहीं 39 जलस्रोतों पर गैर-कानूनी तरीके से निर्माण किया गया है। इन जलस्रोतों पर कानूनी तरीके से किए गये निर्माण संख्या 78 है। इस तरह से देखा जाए तो 1011 जलस्रोतों में से 285 जलस्रोत पूरी तरह से गायब हो चुके हैं। इतना ही नहीं, आँकड़े यह भी बताते हैं कि इन 1011 जलस्रोतों में से 338 जलस्रोत पूरी तरह से सूख चुके हैं। यानी इन आँकड़ों की मानें तो 1011 जलस्रोतों में से 623 यानी दिल्ली के तकरीबन 62 फीसदी जलस्रोत गायब हो चुके हैं।

उत्तराखण्ड जल संकटयह कितना अजीब है कि एक तरफ दिल्ली में जहाँ जलस्रोतों को बचाने और गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिये गूगल की मदद से दिल्ली के तालाब, जोहड़ व अन्य स्रोतों की मैपिंग की जा रही है, वहीं दिल्ली से 62 फीसदी तालाब, झील जैसे जलस्रोत गायब हो चुके हैं। इतना ही नहीं जो बचे हैं उनकी स्थिति भी अच्छी नहीं है। दिल्ली में बाकी बचे जलस्रोतों की ‘चिंताजनक स्थिति’ इस बात का सबूत है कि पिछले कुछ सालों में पर्यावरण को किस तरह से जान-बूझकर तबाह किया जा रहा है। एक के बाद एक गायब होने वाले जलस्रोतों पर पूर्व की दिल्ली सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी न रहती तो आज भारत की राजधानी यानी हमारी दिल्ली की गिनती विश्व के चार सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में न होती।

अगर इन जलस्रोतों को बचाने में हम सफल रहते तो पानी की कमी से जूझ रहे दुनिया के 20 शहरों में दिल्ली को दूसरे स्थान से नहीं नवाजा जाता। दिल्ली को रोज 415.8 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है, लेकिन 316.6 लीटर पानी की ही आपूर्ति हो रही है। बल्कि दिन-प्रतिदिन दिल्ली में रहने वालों पर जल संकट का खतरा अधिक मँडराने लगा है।

अगर ये जलस्रोत बचे होते तो आज दिल्ली के लोगों को कम से कम बेपानी तो नहीं होना पड़ता। हरी दिल्ली का सपना देखने वालों को अपना सपना साकार होते हुए दिखता गर हम अपने परम्परागत जलस्रोतों को बचाने में कामयाब रहते। अगर हम जमीन हड़पने की लालच से नहीं घीरे होते तो आज हम कम से कम जल के बादशाह तो होते ही। इन सब के बीच दुखद स्थिति यह है कि दिल्ली में फैले कंक्रीट के जंगलों में अब जलस्रोत नाम-मात्र के बचे हैं, बावजूद इसके ऐसा नहीं है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को सुधारना चाहते हैं। किसी को कोई चिंता नहीं है। सबको यह लगता है कि जबतक उन्हें पानी मिल रहा है, दूसरों के लिये क्यों सोचें?

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि इस दिशा में न तो सरकार गम्भीर दिख रही है और न ही गैरसरकारी संगठन। पर्यावरण को लेकर आए दिन हाय-तौबा मचाने वाले गैरसरकारी संगठनों की मौन समझ से परे है। जलस्रोतों को लेकर कोई चिंतित होते नहीं दिख रहा है।

ऐसे में हमें अपने जलस्रोतों को बचाने के लिये आगे आना होगा नहीं तो स्थिति जो है, उससे भी बुरी होगी। हम पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस या इस तरह के तमाम दिवस मना लें लेकिन जब तक हम सही मायने में लुप्त हो चुके जलस्रोतों का चिन्हीकरण व उन्हें पुनर्जीवित करने के उपाय नहीं करेंगे। तब तक हम अपने ‘जीवन’ को पटरी पर नहीं ला सकेंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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