गौपालन कर्म से विमुखता: पर्यावरण-नाश का कारण

गौवंश से प्राप्त दूध जहां संतुलित आहार की प्रतिपूर्ति करता है, वहीं गोबर की तुलना में गौमूत्र भी कम लाभदायक नहीं है। गोबर-गौमूत्र आधारित औषधियों का निर्माण कर आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। गौवंश के गोबर से बने उपलों के जलाने पर पर्यावरण में कोई उल्लेखनीय क्षति नहीं पहुंचती, यह अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है। ग्रामीण अंचलों में अधिकांश स्थानों पर उपलों का धुआं मच्छर भगाने के लिए प्रयुक्त होता है। पेड़ों को बचाने में उपलों का महत्वपूर्ण योगदान है। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भारतवर्ष आदिकाल से ही कृषि-प्रधान देश रहा है। वैदिक आर्य-ग्रंथों में अनेकशः तत्संबंधी वर्णन मिलते हैं। राष्ट्र की संपूर्ण जनसंख्या के लगभग अस्सी प्रतिशत भाग की जीविका के उपार्जन का साधन पूर्णरुपेण कृषि पर आधारित है। अतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण व युक्तियुक्त व्यवस्थापन से ही देश समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा। यह सुनिश्चित है कि राष्ट्र की संपूर्ण जनसंख्या का अधिकांश, जो कृषि पर निर्भर है, को स्वावलंबी बनाए बगैर भारतवर्ष की समग्र प्रगति की परिकल्पना हास्यास्पद होगी।

हरित-क्रांति के नाम पर जिस प्रकार मनमाने ढंग से रासायनिक खादों का प्रयोग किया गया, उसका दुष्परिणाम प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होने लगा है तथा खेतों की उर्वराशक्ति दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। यदि यह क्रम अनवरत् जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब अधिकांश खेत बंजर प्रायः होकर निर्जीव हो जाएंगे। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् शासन स्तर पर कृषि –कार्य संपादित करने के लिए ट्रैक्टरों की खरीद पर उल्लेखनीय छूट प्रदान कर किसानों को प्रोत्साहित किया गया। ट्रैक्टर से कृषि कार्य संपादित करने के अतिवाद में गौवंश की उपेक्षा की जाने लगी। गांव-गांव में बड़ी संख्या में ट्रैक्टर चलने लगे। अत्यधिक संख्या में तथा सहज उपलब्ध होने के कारण किसानों को बैल पालना अहितकारी महसूस होने लगा।

ट्रैक्टर से कृषि-कार्य संचालित होने के कारण निश्चित रूप से बड़े जोत के किसानों को सामयिक ही सही, पर लाभ प्राप्त हुआ। परंतु मध्यम व छोटी जोत के किसानों को अनेक दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है। स्वयं के दम पर ट्रैक्टर खरीदना उनके वश की बात नहीं है। अतः अधिकांश छोटे किसान किराए पर ट्रैक्टर लेकर कृषि-कार्य संपादित कर रहे हैं। श्रम से बचने तथा संक्षिप्त मार्ग पर चलने की हड़बड़ी में छोटे व मध्यम जोत के किसानों ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। गौपालन के प्रति उदासीनता ने कृषि जैसे महत्वपूर्ण कार्य को पंगु बना दिया। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि गोबर खाद के अभाव में खेत की उपजाऊ शक्ति दिन-प्रतिदिन नष्ट होती जा रही है।

रासायनिक खाद के अनियंत्रित एवं अंधाधुंध प्रयोग से खेत बंजर होने के कगार पर पहुंच रहे हैं। अत्यधिक उत्पादन लेने के प्रलोभन में रासायनिक खादों की मात्रा बढ़ा दी जाती है, जिसके फलस्वरूप उत्पादित अन्न, फल व सब्जियां मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। वर्तमान समय में मानव की अधिकांश बीमारियों का कारण खतरनाक कीटनाशकों व रासायनिक खाद के प्रयोग से उत्पन्न उत्पादों के सेवन को कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। देर-सवेर कभी-न-कभी लोगों की तंद्रा समाप्त होगी तथा गोबर से बनी खाद हमारी कृषि-क्रांति का प्रमुख आधार बनेगी। कृषि-कार्य में प्रयुक्त जहरीले कीटनाशकों का वास्तविक विकल्प गोमूत्र के साथ नीम पत्ती का सही अनुपात में बनाया घोल ही हो सकता है।

इस संबंध में अनेक सफल प्रयोग किए जाते रहे हैं। इसी प्रकार रासायनिक खाद की जगह गोबर की खाद का प्रयोग कर अनेक बीमारियों से बचा जा सकता है, खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। यह परखा हुआ सर्वश्रेष्ठ व सस्ता उपाय है। आने वाले समय में ऊर्जा की समस्या भयावह रूप धारण करने वाली है। भारत के अधिकांश ग्रामीण अंचल में विद्युत अत्यल्प समय तक उपलब्ध हो पाती है। विदयुत उत्पादन का बहुत बड़ा भाग औद्योगिक संस्थानों व नगरीय क्षेत्रों में ही खप जाता है। भविष्य में केवल शहरों की संपूर्ण मांग की विद्युत आपूर्ति करना संभव नहीं हो सकेगा, अतएव वैकल्पिक रास्तों की तलाश अपरिहार्यता है।

वर्तमान समय या कुछ समय पूर्व तक कृषि कार्य-पद्धति में सामान्यतया बैल का उपयोग साल में 60-70 दिन ही किया जाता रह है। भोपाल स्थित अनुसंधानशाला में एक ऐसे उपकरण का आविष्कार किया गया है, जिसमें बैलों को वृत्ताकार मार्ग में चलाकर 800-1000 चक्कर की गति प्रति घंटे मिल जाती है। संपूर्ण भारतवर्ष में यदि योजनाबद्ध ढंग से कार्य किया जाए तो इस उपकरण से विपुल मात्रा में विद्युत उत्पादन किया जा सकता है। निश्चित ही इस पर्याप्त मात्रा की विद्युत से ग्रामीण कुटीर उद्योग, लघु उद्योग इत्यादि सरलता से संचालित किए जा सकते हैं।

इसी प्रकार नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रेनिंग इन इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग (नाइटी), मुंबई ने एक ऐसा अविष्कृत किया है, जिसमें रहट से पानी निकालने के लिए बैल के घूमने पर बिजली पैदा होती है। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस उपकरण से मात्र दो बैल एक हॉर्स पॉवर की विद्युत ऊर्जा दिन-रात मिलाकर 8-9 घंटे में पैदा कर सकते हैं। देश के करोड़ों किसान इस पद्धति से विद्युत उत्पादन करने की ठान लें तो जहां उन्हें पर्याप्त धन मिलेगा, वहीं विद्युत ऊर्जा की समस्या का समाधान निकल आएगा। इस कार्य को मंज़िल तक पहुंचाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति व सरकार के सहयोग की आवश्यकता है।

गोबर गैस प्लांट की स्थापना से ग्रामीण अंचलों के घरेलू प्रकाश एवं भोजन पकाने की समस्या का समाधान हो सकता है। इसके लिए महज योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में एल.पी.जी. गैस पर निर्भरता ने भारतीय किसानों का आर्थिक बोझ बढ़ाया है। देश की आवश्यकता के अनुरूप एल.पी.जी. की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में न होने के कारण विदेशों से आयात की जाती है। गोबर गैस संयंत्र स्थापना से जहां विदेशी मुद्रा की बचत होगी, वहीं प्रकाश के रूप में उपयोग कर विद्युत की भी बचत की जा सकती है। ट्रैक्टरों में खर्च होने वाला डीजल व रसोई के लिए उपयोग में लाई जाने वाली एल.पी.जी. के आयात में अरबों-खरबों की विदेशी मुद्रा खर्च हो जाती है, जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है।

हमारा यह कहने का आशय कतई नहीं है कि खेत जोतने के लिए ट्रैक्टरों का उपयोग बिल्कुल ही बंद कर दिया जाए, अपितु कथ्य है कि छोटे जोत के किसानों को बैल तथा बैल से चलने वाले आधुनिक यंत्र उपलब्ध कराने में यथासंभव सरकारी मदद दी जाए। एक प्रयोग के अनुसार एक गाय या बैल के गोबर से औसतन एक व्यक्ति के लिए आवश्यकतानुसार बायोगैस की आपूर्ति हो सकती है। इस प्रकार चार-पांच सदस्यों वाले परिवार के लिए चार गौवंश पर्याप्त होंगे। अच्छे देशी नस्ल के पशुपालन से दूध की मात्रा बढ़ाई जा सकती है।

दूध के व्यवसाय में लगे लाखों लोगों का परिवार अपेक्षाकृत संपन्नता का जीवन जी रहा है। इस क्षेत्र में यदि व्यवस्थित श्रम किया जाए तो लगभग दस करोड़ लोगों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने निर्दिष्ट किया है कि गौ-आधारित अर्थव्यवस्था के सुदृढ़िकरण से ही भारत के ग्रामीणों का कल्याण होगा, साथ ही शहरी जनजीवन पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। खेती का मशीनीकरण अर्थात् ट्रैक्टर पर पूर्णतया आश्रित हो जाना भविष्य के खतरे का संकेत है। इससे विपुल मात्रा में प्रयुक्त होने वाले डीजल के आयात में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा ने भारतीयों की दुश्वारियां बढ़ा दी हैं। भविष्य में पेट्रोल, डीजल का स्रोत घटता ही जाना है, अतः इसका भाव बढ़ते जाना स्वाभाविक है।

पशुधन से प्राप्त गोबर से जहां गोबर गैस का उत्पादन कर ऊर्जा के क्षेत्र में क्रांति लाई जा सकती है, वहीं ग्रामीण अंचलों में गोबर गैस के प्रयोग से ईंधन व प्रकाश की समस्या का काफी हद तक समाधान किया जा सकता है। गोबर गैस प्लांट से निकला अवशेष उत्तम जैविक खाद के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। गोबर गैस संयंत्र से जेनरेटर चलाकर 80 प्रतिशत डीजल की बचत की जा सकती है तथा आवश्यकतानुसार विद्युत पैदा की जा सकती है। डीजल का यथासंभव कम उपयोग करने से प्रदूषण में कुछ हद तक कमी की जा सकती है। गौपालन के साथ उससे जुड़े छोटे संयंत्रों से कई प्रकार की ऊर्जा प्राप्त होती है, जो प्रकारांतर से विद्युत उत्पादन का ही स्वरूप है तथा बिजली की कमी की विकराल समस्या से काफी हद तक निजात दिला सकती है।

कृषि अनिश्चितता का व्यवसाय है। फसल काटकर अनाज के घर तक आने में अनेक प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, कीटों का प्रकोप, बीमारियों का प्रकोप इत्यादि अनेक समस्याओं से किसान को जूझना पड़ता है। इस परिस्थिति में खेती के साथ गौपालन व्यवसाय एक सशक्त सहारा बन सकता है। इस प्रेरक व्यवसाय के माध्यम से आर्थिक स्थिति में पर्याप्त सुधार किया जा सकता है। जो भी किसान कृषि के साथ दुग्ध उत्पादन व्यवसाय में संलग्न, उनकी आर्थिक स्थिति में चमत्कारिक रूप से सुधार हुआ है, वहीं गौपालन से विमुख रहने वालों में से अधिकांश आर्थिक-विपन्नता में अपना जीवन जैसे-तैसे गुजार रहे हैं।

कृषि कार्य के साथ गौपालन व्यवसाय अत्यंत सहजतापूर्वक संपादित किया जा सकता है। चारे के लिए बहुत कम जमीन की आवश्यकता पड़ती है। खेतों से निकले खर-पतवार, फसलों से प्राप्त भूसा-पैरा, सरसों के पके पत्ते, सब्जियों में कड़े हो गए गाजर, मूली, गोभी, शलजम इत्यादि वनस्पतियों को चारे के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। भोजन के बाद का जूठन तक इसमें खप जाता है।

गौवंश से प्राप्त दूध जहां संतुलित आहार की प्रतिपूर्ति करता है, वहीं गोबर की तुलना में गौमूत्र भी कम लाभदायक नहीं है। गोबर-गौमूत्र आधारित औषधियों का निर्माण कर आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। अगरबत्ती, धूपबत्ती का निर्माण कुटीर उद्योग के रूप में किया जा सकता है। गोबर व गोमूत्र को पवित्र व कीटनाशक माना गया है, इस संबंध में शास्त्रों में वर्णन मिलता है। गोबर से बने उपलों का ग्रामीण जन-जीवन में अत्यधिक महत्व है। दाह-संस्कार से लेकर ठंड से बचने के लिए सेंक, पूजा, यज्ञ तथा आर्युवेदिक औषधियों के निर्माण के लिए ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।

गौवंश के गोबर से बने उपलों के जलाने पर पर्यावरण में कोई उल्लेखनीय क्षति नहीं पहुंचती, यह अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है। ग्रामीण अंचलों में अधिकांश स्थानों पर उपलों का धुआं मच्छर भगाने के लिए प्रयुक्त होता है। पेड़ों को बचाने में उपलों (कंडा) का महत्वपूर्ण योगदान है। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जलाऊ ईंधन के रूप में गोबर से बने उपलों का महत्व स्वयंसिद्ध है।

गौवंश के गोबर से बने उपलों से प्राप्त राख भी कम चमत्कारिक नहीं है। यह गंधरहित कीटाणुनाशक मानी गई है। देश के करोड़ों लोग बर्तनों की सफाई में इसका प्रयोग आदिकाल से करते आ रहे हैं। यद्यपि आज फैशन में बर्तनों की सफाई डिटर्जेंट इत्यादि से की जाती है। सामान्यतया देखा गया है कि कितनी सावधानी से सफाई की जाए, डिटर्जेंट पाउडर का कुछ-न-कुछ अंश बर्तनों में रह जाता है तथा शरीर में पहुंचकर अनेक रोगों का जन्मदाता बनता है। मुफ्त में मिली राख की उपयोगिता सबको चमत्कृत कर देती है। गांवों में नाली के किनारे या गंदगी पर उपलों की राख डालने की परंपरा है, यह कीटाणुओं के संक्रमण से बचने का देशी उपाय है। कंडे (उपले) पर सिकी रोटियों का स्वाद व स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्व का मुकाबला कभी भी एल.पी.जी. गैस नहीं कर सकती। देर-सबेर हमें गौपालन के महत्व को स्वीकारना ही होगा।

ग्रामीण अंचल की अधिकांश आबादी की गरीबी का एकमात्र कारण गौवंश पालन की उपेक्षा है। किसानों की माली दशा सुधारने के लिए यदि प्रशासन संकल्पित है तो निश्चित ही गौपालन एकमात्र प्रथम और अंतिम विकल्प है, इसमें संशय का कोई कारण नहीं होना चाहिए। कृषि एवं गौपालन दोनों ही कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों के समन्वित व योजनाबद्ध संचालन से गरीबी जैसी विकराल समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकेगा।

प्रसन्नता का विषय यह है कि देश के अनेक संस्थान बैलों द्वारा संचालित हो सकने वाले अनेक उपकरणों का आविष्कार कर रहे हैं, जिसके कारण कई गुना अधिक कार्यक्रम श्रम में किया जाना संभव हो सकेगा। बैल द्वारा चालित ट्रैक्टरनुमा छोटा यंत्र ईजाद किया गया है, जिसे सफलतापूर्वक प्रयोग कर, किसानों के लिए अनुशंसित किया गया है। इसमें चालक के लिए बैठने की व्यवस्था की गई है तथा अल्प श्रम में ज्यादा जुताई का कार्य संभव हो पा रहा है। ग्रामीण अंचलों में इस आधुनिक युग में भी माल ढोने का सर्वोत्तम साधन बैलगाड़ी ही है। किसान लोग प्रयोग करते हैं।

व्यावहारिक विज्ञान संस्थान, सांगली (महाराष्ट्र) ने, ‘बलवान’ नाम से बैलगाड़ी की डिजायन तैयार की है, जिसमें माल रखने के लिए लगभग 30 वर्गफुट जगह है, जबकि सामान्य बैलगाड़ी में 10 वर्गफुट की ही व्यवस्था रहती है। इसी प्रकार बेंगलुरु के किसान मेले में ‘ग्राम-लक्ष्मी’ बैलगाड़ी का प्रदर्शन किया गया था, इसमें भी कम श्रम में अधिक माल ढोने की विशेषता है। पंचर रहित टायर की बैलगाड़ियां कम श्रम एवं कम खर्च में अधिक कार्य कर सकती हैं, यह ग्रामीणों के लिए वरदान हो सकती हैं। शहरों में भी भवन सामग्री व माल ढोने में इसका प्रयोग हो सकता है।

गौपालन से प्राप्त आय से लोग समृद्ध होंगे, इसके साथ ही दुग्ध के सेवन से गर्भवती माताओं, बच्चों, वृद्धों सहित संपूर्ण परिवार के स्वास्थ्य की रक्षा हो सकेगी। देश के विकास के लिए लघु, मध्यम तथा बड़े उद्योगों की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु यदि व्यवस्थित तरीके से गौपालन को सरकार द्वारा संरक्षण दिया जाए तो यह सबसे बड़ा उद्योग प्रमाणित हो सकता है। आज गौपालन व्यवसाय औद्योगीकरण के बराबर महत्वपूर्ण प्रणाली या व्यवसाय बनने हेतु हम सबको आमंत्रित कर रहा है। डेनमार्क जैसा कम साधन का देश दुग्ध उत्पादन के बल पर संसार के संपन्न व विकसित देशों की सूची में अपना नाम दर्ज करा चुका है, फिर भारतवर्ष जैसे साधन-संपन्न देश को किस बात का इंतजार है? भारतीय अध्यात्म में गौ को पवित्र माना गया है तथा निर्दिष्ट किया गया है कि इसमें समस्त देवी-देवताओं का वास होता है।

गौपालन के महत्व को दर्शाते हुए, गौपालन एवं कृषि विषय पर आधिकारिक चर्चा की आवश्यकता है। इसे जन-जन तक पहुंचने के लिए एक सघन अभियान की जरूरत है। इस महती कार्य में समाजसेवी संस्थाएं अपना सक्रिय योगदान करें। जिला स्तर पर, जनपद स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर, शहरों, कस्बों एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बाजारों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर, किसी विशेष पर्व पर, सरकार से सहयोग प्राप्त प्रदर्शनी व मेलों का आयोजन कर समाजसेवी संस्थाएं लोगों को जागरूक कर सकती हैं।

प्रदर्शनी में उन यंत्रों का प्रदर्शन आवश्यक है, जो बैलों से संचालित हो रहे हैं और कृषि के विकास में सहायक भी हैं। लोगों के आकर्षण के लिए मनोरंजन के अन्य साधन भी हों। गोबर व गोमूत्र से बनी औषधियों तथा अन्य उपयोगी जानकारियों को किसानों एवं ग्रामीणों को देना आवश्यक है ताकि देश में गौपालन क्रांति का स्वरूप ग्रहण कर ले। इस विषय पर संगोष्ठियां भी आयोजित की जाएं। इसे धर्म से जोड़कर जो वर्गभेद पैदा किया जाता है, वह समाप्त होना चाहिए।

अतः समाजसेवी संस्थाओं को इस पवित्र कार्य के लिए आगे आना चाहिए। इस क्षेत्र में यद्यपि अनेक संस्थाएं सराहनीय कार्य कर रही हैं तथापि बहुत कुछ किया जाना शेष है।

अशक्त होने पर गौवंश को कसाइयों के हाथ सौंपना एक जघन्य व क्रूर कार्य है। दूध देने में अक्षम गाएं एवं अशक्त बैलों के लिए गौशालाओं की व्यवस्था करना कोई कठिन कार्य नहीं होगा। इनके द्वारा दिए गए गोबर से गैस प्लांट तथा समृद्ध खाद बनाया जा सकता है। चारे-भूसे की व्यवस्था जन-सहयोग से की जा सकती है। अशक्त व अन्य किसी कारण से परित्यक्त किए गए गौवंश के संरक्षण में कार्य करने वाली गौशालाएं जन सहयोग से संचालित होकर इस दिशा में अनुकरणीय पहल कर सकती हैं। गोबर गैस प्लांट से ऊर्जा, उच्च-स्तरीय खाद इत्यादि की सहज प्राप्ति, गौशालाओं के लिए आय का साधन बन सकती है।

स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त जानवरों से प्राप्त अहिंसक चर्म, हड्डी, सींग इत्यादि से कुटीर उद्योग खड़े हो सकते हैं तथा यह भी एक आय का स्रोत बन सकता है। आशय यह है कि जन-सहयोग के बिना गौवंश को कसाइयों के कत्लखाने में जाने से रोकना असंभव होगा, चाहे कितने ही नियम कानून बना दिए जाएं। महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी, आचार्य विनोबा भावे, देवमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जैसे मनीषियों ने गौवंश की हत्या को मानवता के विरुद्ध बताया है। गौपालन के महत्व को इस तथ्य से भलीभांति समझा जा सकता है। भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने गौपालन व गाय चराने का कार्य संपादित कर गौवंश के महत्व को प्रतिपादित किया था।

वेद-शास्त्रों में गौ के महात्म्य के विषय में अनेकशः प्रसंग मिलते हैं। गौ में समस्त देवी देवताओं का वास माना जाता है। प्रायश्चित में प्रयोग होने वाले पंचगव्य में दूध, दही, घृत तथा गोबर व गोमूत्र भी इसके घटक हैं। भारतीय अद्यात्म में गोबर को पवित्र वस्तु माना गया है। इसी कारण इसे गौमल नहीं कहा जाता। यह वरण के योग्य होता है, अतः इसका नाम गोबर है। पूजन, यज्ञ इत्यादि धार्मिक कार्यों में गोबर से स्थान लेपन के बिना शुद्धि नहीं मानी जाती। दीपावली में लक्ष्मी पूजन के समय घर को गोबर से लीपा जाता है। महाभारत में निर्दिष्ट किया गया है कि गौ के गोबर में सभी प्रकार की ऐश्वर्य प्रदान करने वाली लक्ष्मी का वास होता है-

‘अष्टैश्वर्य लक्ष्मी बसते गौमये सदा’।

भगवान श्रीकृष्ण का बहुप्रचलित नाम गोपाल है और स्पष्टतया गौवंश के महत्व की रेखांकित करता है। गौपालन से लोक-परलोक दोनों ही सुधरता है, इसमें जरा-सा भी संशय नहीं होना चाहिए।

एल-3, विद्यानगर बिलासपुर (छ.ग.)

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