गौला नदी का दर्द

गौला नदी
गौला नदी

हल्द्वानी पहुंचकर गौला नदी अस्तित्वहीन सी लगने लगती है। बस, रेता-बजरी की खान से अधिक कुछ नहीं। नदी तो बस पतली-सी जलधारा रह जाती है। इसकी छाती पर सवार सैकड़ों ट्रक व डंपर इसके अक्षय उदर से रेत और बजरी निकाल शहरों की जरूरतें पूरी करते हैं। जहां ऐसी रेतदायिनी नदियां नहीं होती होंगी, वहां लोग घर कैसे बनाते होंगे? पिछले दिनों हैड़ाखान आश्रम गया, तो गौला का एक और रूप सामने आया। वहां नदी के पार नवदुर्गा मंदिर के पुजारी ने गौला का भी महात्म्य सुनाया। वहां इसको गौला की बजाय गौतमी गंगा के नाम से जाना जाता है। इसका पानी भी उतना ही पवित्र है, जितना गंगा का। उन्होंने एक बोतल में भरकर गौतमी गंगा का पानी दिया भी। उस जगह सचमुच गौतमी गंगा का पानी बेहद साफ है।

कल-कल, छल-छल, एकदम पारदर्शी। छोटी-बड़ी मछलियां अठखेलियां करती हुईं। यही नदी हल्द्वानी पहुंचकर इतनी असहाय होकर क्यों रह जाती है? एकदम निष्प्राण। जैसे बंगाल के घरों में सूखी मछलियां बास मारती हुई दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही दशा गौला की हल्द्वानी में हो जाती है।

गौला नदी का उद्गम भीड़ापानी, मोरनौला- शहर फाटक की ऊंची पर्वतमाला के जलस्रोतों से होता है। उसके बाद भीमताल, सात ताल की पहाड़ियों से आने वाली छोटी नदियों के मिलने से यह हैड़ाखान तक काफी बड़ी नदी बन जाती है। बाद में रानीबाग, काठगोदाम, हल्द्वानी से गुजरती हुई यह बरेली के पास रामगंगा में मिल जाती है। इस बीच यह नदी करीब 500 किलोमीटर की यात्रा करती है।

काठगोदाम पहुंचने पर इसके दोहन की प्रक्रिया शुरू होती है। वहां जमरानी बांध से न केवल पूरे भाबर क्षेत्र के खेतों में सिंचाई होती है, अपितु हल्द्वानी के तीन-चार लाख लोगों की प्यास भी बुझती है। हमारे हुक्मरान, हमारे नौकरशाह और हम लोग अगर इसका महत्व समझते, तो गौला के गर्भ से इस कदर खनन करने की इजाजत नहीं देते।

तीन साल पहले हल्द्वानी और गौलापार क्षेत्र को जोड़ने वाला पुल आठ साल की उम्र में ही बाढ़ की मार को नहीं झेल पाया और धराशायी हो गया। जांच के बाद पाया गया कि लोगों ने नदी को इतना खोद डाला कि पुल के खंबे बरसाती बहाव को सहन नहीं कर पाए। नया पुल अब बनकर तैयार होने को है, लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा। सुप्रीम कोर्ट की नजर में अवैध खनन अब भी जारी है, शायद और भी ज्यादा।

पुराने लोग बताते हैं कि दो-तीन दशक पहले तक गौला की यह हालत नहीं थी। बांध तब भी था। लेकिन पानी भी भरपूर था। गौला खेतों के साथ ही लोगों की प्यास भी बुझाती थी। कुछ वनों के कटाव से, कुछ अतिशय विकास से और कुछ अवैध खनन से आज गौला जैसे अंतिम सांसें ले रही है। वह नहीं रहेगी, तो हम नहीं रहेंगे। फिर भी वह कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बनती, क्यों?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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