वर्ष 2013 में जारी मनरेगा के नए दिशा-निर्देशों में ऐसे कामों को शामिल किया गया था, जिनसे गाँव में जल और मिट्टी संरक्षण हो सके और आजीविका विकास की दिशा में गाँव आगे बढ़ सकें। अत: मनरेगा में कई सार्वजनिक एवं हितग्राही मूलक कामों को जोड़ा गया। मनरेगा में शामिल हितग्राही मूलक कामों, जैसे खेतों में पालाबंदी, कंटूर ट्रेंच का निर्माण, खेत तालाब, आदि शामिल है। इससे खेती में सुधार होने और पानी तथा मिट्टी के संरक्षित होने की सम्भावना सामने आती है। एक दशक पहले देश में लागू हुए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम से मजदूरों और लघु व सीमान्त किसानों के पक्ष में एक बड़ी उम्मीद की गई थी। ग्रामीण क्षेत्र के प्रत्येक परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के रोजगार की गारंटी से मिलने वाली मजदूरी उसके भरण-पोषण के लिये अच्छा सहारा मानी जाती है। सूखे और अकाल की स्थिति में भी इससे बहुत उम्मीदें थीं। किन्तु पिछले एक दशक के अनुभव इस दिशा में ज्यादा बेहतर नहीं रहे।
बुन्देलखण्ड में सूखे के सन्दर्भ मे यह देखने की आवश्यकता है कि यहाँ मनरेगा का क्रियान्वयन किस तरह हो रहा है तथा क्या यह लोगों को रोजगार देकर राहत और पलायन से मुक्ति दे पा रही है? इस सन्दर्भ में विभिन्न अध्ययनों और सरकार के खुद के आँकड़ों से भी उत्साहजनक तस्वीर समाने नहीं आती। हालांकि सूखा प्रभावित क्षेत्र में सरकार द्वारा मनरेगा में काम के दिन 100 से बढ़ाकर 150 कर दिये गए हैं। अत: यह देखने की जरूरत है तक अब तक 100 दिनों के रोजगार की क्या स्थिति है और 150 दिनों का रोजगार लोगों को कैसे मिल पाएगा? ग्रामीण विकास मंत्रालय के वित्त वर्ष 2015-16 के आँकड़ों के अनुसार बुन्देलखण्ड के छह जिलों सागर, दमोह, पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर और दतिया में मनरेगा के तहत महज 25 प्रतिशत काम ही पूरे हो पाये। इस वर्ष पन्ना में 3620 और दमोह में 8620 काम शुरू किये गए थे। मगर पन्ना में 74 और दमोह में 627 काम ही पूरे हो सके। यही हाल बुन्देलखण्ड के अन्य जिलों का है। टीकमगढ़ में 27.3, छतरपुर 12.48, सागर 17.59 और दतिया में 25.1 प्रतिशत कार्य ही पूरे हो सके।
मनरेगा के तहत जिन लोगों ने काम किया उन्हें समय पर मजदूरी भी नहीं मिल पाई, जिससे लोगों का मनरेगा के प्रति आकर्षण खत्म हो गया। सागर जिले में मार्च माह तक मजदूरी और मटेरियल का 23 करोड़ रुपए बकाया थे। स्वराज अभियान द्वारा मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में शामिल बुन्देलखण्ड में किये गए अध्ययन के अनुसार इस वर्ष अप्रैल माह में सिर्फ 29 प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा के अन्तर्गत रोजगार प्राप्त हुआ। जबकि मध्य प्रदेश के छह जिलों में अप्रैल माह में 18 लाख 81 हजार 296 मानव दिवस रोजगार की सम्भावना जताई गई थी, मगर रोजगार सिर्फ पाँच लाख 47 हजार 136 मानव दिवस का ही मिल सका। इस तरह कुल सम्भावना का सिर्फ 29 प्रतिशत मानव दिवस का काम ही मिला (मनरेगा वेबसाइट दिये गए आँकड़ों के अनुसार)। मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड में सम्भावना के मुकाबले छतरपुर में 24 प्रतिशत, दमोह में 40 प्रतिशत, पन्ना में 16 प्रतिशत, सागर में 41 प्रतिशत और टीकमगढ़ में 20 प्रतिशत मानव दिवस काम उपलब्ध हो सका है। मनरेगा में काम नहीं मिलने से सबसे ज्यादा खराब स्थिति टीकमगढ़ और छतरपुर जिले में देखी जा सकती है, जहाँ हर रोज हजारों लोग पलायन करने को विवश हैं। इन जिलों में 4.53 लाख कार्य दिवस का लक्ष्य था, जबकि अब तक वास्तव में 20 प्रतिशत कार्य दिवस रोजगार ही उपलब्ध करवाया जा सका।
जमीनी हकीकत
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में मनरेगा के क्रियान्वयन की स्थिति का और गहराई से अध्ययन करने के लिये टीकमगढ़ और छतरपुर जिले के 11 गाँवों में ग्रामीणों के साथ चर्चा की गई, वहाँ मनरेगा के अन्तर्गत चले कार्यों का विवरण ग्राम पंचायत से प्राप्त किया गया और ग्राम पंचायत द्वारा करवाए गए कार्यों का अवलोकन किया गया। अध्ययन की इस प्रक्रिया से मनरेगा के क्रियान्वयन में कई ऐसी खामियाँ पाई गई, जिससे लोग अपने हक के रोजगार से वंचित हुए हैं।
अब तक नहीं बने जॉब कार्ड
मनरेगा के अन्तर्गत गाँव के प्रत्येक परिवार को जॉब कार्ड जारी किया जाना ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी मानी गई है। जबकि अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि अब भी 17 प्रतिशत लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है। अध्ययन के अन्तर्गत पाए गए कुल 3346 परिवारों में से 2762 परिवारों के पास ही जॉब कार्ड है। यानी 584 परिवार जॉब कार्ड से वंचित है। इस सन्दर्भ में यह इन सवालों के उत्तर तलाशे गए कि इन परिवारों के जॉब कार्ड नहीं होने से क्या मनरेगा के अन्तर्गत वे रोजगार के अधिकार से वंचित हुए हैं? ग्रामवासियों से चर्चा में यह बात सामने आई कि कई सालों पहले जो लोग संयुक्त परिवार के सदस्य थे, बाद में उनका अलग परिवार होने के बावजूद मनरेगा में उन्हें अलग परिवार नहीं मानते हुए जॉब कार्ड जारी नहीं किया गया। यानी पंचायत के रिकॉर्ड में पुराने संयुक्त परिवार का हिस्सा होने के वजह से उन्हें अलग से रोजगार के अधिकार से वंचित रखा गया।
यही कारण है कि आज बुन्देलखाण्ड के गाँवों में कुल वास्तविक परिवारों में से 83 प्रतिशत परिवारों के पास ही अपना जॉब कार्ड है। नए परिवारों को जॉब कार्ड जारी करने की प्रक्रिया पंचायत द्वारा शुरू नहीं की गई।
रोजगार के अधिकार तक पहुँच की स्थिति
प्रस्तुत अध्ययन के अन्तर्गत बुन्देलखण्ड के सूखा प्रभावित परिवारों को पिछले एक साल में मिले रोजगार का आकलन किया गया। इसके अन्तर्गत ग्राम पंचायतों से प्राप्त आँकड़ों और ग्रामवासियों से चर्चा करने पर हम पाते हैं कि वर्ष 2015-16 में गाँव में रहने वाले कुल परिवारों में से 39 प्रतिशत परिवारों को मनरेगा के अन्तर्गत रोजगार प्राप्त हुआ। उनमें 100 दिनों का रोजगार प्राप्त करने वालों की संख्या बहुत ही क्या है। जैसाकि ऊपर उल्लेख है, कई परिवारों के पास जॉब कार्ड नहीं होने से उन्हें मनरेगा के रोजगार का लाभ नहीं दिया जा रहा है। इस दशा में हम पाते हैं कि कुल जॉब कार्ड धारी परिवारों में से रोजगार प्राप्त करने वाले परिवारों की संख्या 48 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट है कि विगत वित्तीय वर्ष (वर्ष 2015-16) में गाँव में रहने वाले वास्तविक परिवारों में से करीब एक तिहाई परिवारों को मनरेगा में रोजगार मिला।
प्रस्तुत अध्ययन के अन्तर्गत पिछले एक वर्ष में रोजगार पाने वाले परिवारों का आकलन करने पर हम पाते हैं कि सर्वेक्षित गाँवों में रोजगार पाने वाले परिवारों में से मात्र 8 प्रतिशत परिवारों को ही वर्ष में 100 दिनों का रोजगार हासिल हुआ। जबकि 6 प्रतिशत परिवारों को 81 से 90 दिनों का और 11 प्रतिशत परिवारों को 71 से 80 दिनों का रोजगार हासिल हुआ। इस तरह हम पाते हैं कि रोजगार पाने वाले परिवारों में से 42 प्रतिशत परिवारों को 50 दिनों से अधिक और 58 प्रतिशत परिवारों को 50 दिनों से कम का रोजगार मिला। यह स्पष्ट है कि रोजगार प्राप्ति के ये आँकड़े पूरे एक वर्ष के हैं।
क्या काम हुए
मनरेगा के अन्तर्गत करवाए जाने वाले कामों के सन्दर्भ में प्रस्तुत अध्ययन क माध्यम से यह जानने के लिये प्रयास किया गया कि वर्ष 2015-16 में गाँवों में कौन-कौन से काम करवाए गए।
उल्लेखनीय है वर्ष 2013 में जारी मनरेगा के नए दिशा-निर्देशों में ऐसे कामों को शामिल किया गया था, जिनसे गाँव में जल और मिट्टी संरक्षण हो सके और आजीविका विकास की दिशा में गाँव आगे बढ़ सकें। अत: मनरेगा में कई सार्वजनिक एवं हितग्राही मूलक कामों को जोड़ा गया। मनरेगा में शामिल हितग्राही मूलक कामों, जैसे खेतों में पालाबंदी, कंटूर ट्रेंच का निर्माण, खेत तालाब, आदि शामिल है। इससे खेती में सुधार होने और पानी तथा मिट्टी के संरक्षित होने की सम्भावना सामने आती है। इसी के साथ ही पशु शेड बनाने और कपिलधारा योजना के अन्तर्गत खेतों में कुओं की खुदाई को भी मनरेगा में शामिल किया। इन कामों के जनभागीदारी एवं पारदर्शितापूर्ण क्रियान्वयन से गाँव की तस्वीर बदली जा सकती थी और लोगों के लिये आजीविका का विकास करने वाली संरचनाएँ तैयार की जा सकती थी।
प्रस्तुत अध्ययन से प्राप्त तथ्यों के अनुसार पंचायत द्वारा किये गए कार्यों की कोई उत्साहजनक तस्वीर सामने नहीं आती। क्योंकि पंचायत द्वारा किये गए ज्यादातर काम परम्परागत ही है, जिनमें सीसी रोड, रास्तों का मुरमीकाण, निर्माण कार्य आदि शामिल है। सर्वेक्षित गाँवों में यह पाया गया पिछले एक साल में ग्राम पंचायत द्वारा किसी भी खेती में पालाबन्दी, कंटूर ट्रेंच, खेत तालाब का निर्माण नहीं किया गया। सिर्फ कुछ सार्वजनिक तालाब और कपिलधारा कुओं को छोड़कर जल एवं मिट्टी संरक्षण के कोई कार्य दिखाई नहीं देते।
अध्ययन से प्राप्त तथ्यों के अनुसार वर्ष 2015-16 में सर्वेक्षित्त गाँवों में किये गए कुल कामों में से 33 प्रतिशत कार्य सीसी रोड के हैं, जबकि 7 प्रतिशत कार्य मुरमीकाण और 13 प्रतिशत कार्य भवन निर्माण के हैं।
इस तरह हम पाते हैं कि बीते वर्ष में पंचायतों द्वारा किये गए कुल कार्यों में से 53 प्रतिशत कार्यों का जल व मिट्टी संरक्षण और आजीविका विकास से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। सिर्फ 7 प्रतिशत कार्य सार्वजनिक तालाब के पाये और 33 प्रतिशत कार्य कपिलधारा कुएँ के हैं। किन्तु कुओं को रिचार्ज करने के लिये जिस पैमाने पर तालाबों की जरूरत महसूस होती है, वे बीते वर्ष में नहीं बनाए गए।
बुन्देलखण्ड के सूखा और अकाल के सन्दर्भ में मनरेगा में कार्यों का चयन एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। यदि मनरेगा की राशि का उपयोग जल व मिट्टी संरक्षण की संरचनाओं के निर्माण में किया जाये तो भूजल रिचार्ज तथा सतही पानी को सहेजनेका बेहतर कार्य किया जा सकता है। किन्तु पंचायत द्वारा किये गए कार्यों के चयन में इस दृष्टिकोण का अभाव देखा गया।
मनरेगा में शुरू हुए कार्यों की स्थिति - 2015-16 | ||||
जिला | शुरू हुए कार्यों की संख्या | पूरे हुए कार्यों की संख्या | पूरे नहीं हुए कार्यों की संख्या | पूरे हुए कार्यों का प्रतिशत |
सागर | 5575 | 980 | 4591 | 17.59 |
दमोह | 8620 | 627 | 7993 | 7.27 |
छतरपुर | 5802 | 724 | 5078 | 12.48 |
टीकमगढ़ | 3235 | 883 | 2352 | 27.3 |
पन्ना | 3620 | 74 | 3546 | 2.04 |
दतिया | 3367 | 845 | 2522 | 25.1 |
मनरेगा : मजदूरी न मिलने से टूटा भरोसा
मनरेगा में मजदूरी भुगतान एक बड़ी समस्या बनी हुई है। इसीलिये यह बुन्देलखण्ड में पलायन रोकने में नाकाम साबित हो रही है। दमोह जिले में तेन्दुखेड़ा ब्लाक के ग्राम देवरी लीलाधर में यह बात सामने आई। यहाँ के कई लोगों की मजदूरी पिछले एक साल से बकाया है। लोग कहते हैं कि यदि मजदूरी समय पर मिल जाये तो वे गाँव में ही रहकर मजदूरी करना चाहेंगे। 3000 की आबादी वाले इस गाँव में 688 परिवार निवास करते हैं, जिनमें 250 परिवार लोधी और इतने ही परिवार दलित समुदाय के हैं। आदिवासी समुदाय के 125 परिवारों के साथ ही कुछ संख्या में रेकवाल, ठाकुर और ब्राम्हण परिवार निवास करते हैं। यहाँ सूखा और पलायन का सबसे ज्यादा असर दलित एवं आदिवासी परिवारों पर देखा जा सकता है, जिनमें भूमिहीन या बहुत कम भूमि वाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। छोटे और सीमान्त किसानों के असिंचित खेतों में कोई फसल नहीं हो पाई, किन्तु बीज, खाद और कीटनाशक हेतु के लिये कर्ज की फसल लगातार बढ़ रही है। गाँव के उमाशंकर अहिरवार बताते हैं कि हर साल खरीफ में धान और रबी में गेहूँ कि थोड़ी-बहुत उपज हो जाती थी, किन्तु इस बार तो वह भी नहीं हुई, जिससे पेट भरने का संकट पैदा हो गया। इस दशा में पलायन ही एक मात्र रास्ता दिखाई देता है।
रोजगार और भरण पोषण के सन्दर्भ में सबसे बड़ा मुद्दा मनरेगा का है, जिसके जरिए गाँव में रोजगार उपलब्ध कराने और पलायन से मुक्ति के सपने देखे गए थे। लेकिन इस गाँव के मिश्रीलाल, शंकर, कीरथ, हीरा, रामलाल सहित कई लोग कहते हैं मनरेगा में काम के बजाय बाहर जाकर और तकलीफ उठाकर काम करना ज्यादा अच्छा है। क्योंकि वहाँ मजदूरी तो मिल जाती है, मनरेगा में तो मजदूरी भी नहीं मिलती। ये वे लोग हैं जो मनरेगा में अपनी कई दिनों की मजदूरी खो चुके हैं। सरपंच और पंचायत सचिव भी यह बताने के लिये तैयार नहीं है कि उनकी मजदूरी मिलेगी या नहीं और यदि मिलेगी तो कब तक?
देवरी लीलाधर गाँव के 15 लोगों ने बताया कि पिछले एक साल से उनकी मजदूरी बकाया। इसके लिये उन्होंने कलेक्टर को भी अर्जी दी, लेकिन मजदूरी आज तक नहीं मिली। यहाँ साल भर पहले बने पंचायत भवन में काम करने वाले शंकर, पिल्लू, कीरथ, भरत, नीलेश, अशोक की एक सात से पन्द्रह दिन की मजदूरी बकाया है। मनरेगा के साथ ही अन्य योजनाओं की राशि भी लोगों को नहीं मिल पाई। मिश्रीलाल बताते हैं कि मैंने पंचायत सचिव के कहने पर घर में शौचालय बना लिया। पंचायत सचिव को अपना टारगेट पूरा करना था। उसने कहा कि आप कहीं से भी पैसे की व्यवस्था करके शौचालय बना लो, कुछ ही दिनों में पूरा पैसा मिल जाएगा। मैंने 6400 रुपए साहूकार से उधार लेकर शौचालय बना लिया। इस पैसे पर दिन-पर-दिन ब्याज चढ़ता जा रहा है, लेकिन अब तक पैसा आया नहीं। यही हालत यहाँ के प्रेमसिंह की है, जिन्होंने पंचायत सचिव के कहने पर शौचालय तो बना लिया, लेकिन एक साल से पैसे का इन्तजार ही करते आ रहे हैं। यहाँ के नीलेश, सुरेन्द्र और पार्वती ने साल भर पहले शौचालय निर्माण में मजदूरी की थी। लेकिन उनकी मजदूरी भी आज तक नहीं मिली। बकाया मजदूरी भुगतान के बारे में सरपंच का कहना है कि साल भर पहले से मजदूरी भुगतान का नया तरीका ‘ईएफएमएस’ (इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम) शुरू हुआ है, जिसके अन्तर्गत शासन द्वारा सीधे मजदूरों के बैंक खाते में पैसे जमा करवाए जाते हैं। हमने इनकी मजदूरी और बैंक खाते की पूरी जानकारी जनपद पंचायत को दे दी थी। किन्तु उन्होंने शायद कम्प्यूटर में उसकी इंट्री नहीं की, जिससे इनकी मजदूरी जमा नहीं हुआ। चूँकि मामला एक साल पुराना है इसलिये जनपद के कर्मचारी इनकी मजदूरी की फिर से इंट्री नहीं कर रहे हैं। अतः इनकी मजदूरी नहीं मिल पा रही है।
इससे स्पष्ट है कि प्रशासनिक त्रुटि और लापरवाही की वजह से इस गाँव के कई लोग मजदूरी से वंचित हैं और आगे भी यह मजदूरी मिलने की सम्भावना नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि पंचायत राज के प्रशासनिक ढाँचे में इस गलती को सुधारने और लोगों को मजदूरी भुगतान का कोई तरीका ग्राम पंचायत से लेकर जनपद पंचायत तक किसी को नहीं सूझ रहा है। इस स्थिति ने लोगों की मनरेगा के प्रति निराशा उत्पन्न कर दी है। और मनरेगा में मजदूरी करने के बजाय बाहर जाकर मजदूरी करना पसन्द करते हैं।
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Post By: RuralWater