गाँव और गरीब की खुशहाली का लक्ष्य


एकीकृत ग्रामीण विकास की योजनाएँ इस तरह बनाई गई हैं कि देश के साढ़े पाँच लाख गाँवों में पेयजल, बिजली, बुनियादी शिक्षा और रोजगार सुलभ हों। देश के सभी प्रखंडों में 17 हजार करोड़ रुपये 4.13 करोड़ परिवारों में बाँटे गए हैं। आठवीं योजना का लक्ष्य 3350 करोड़ रुपये इन योजनाओं में लगाने का है।

जून 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर थी। अगस्त 1990 के खाड़ी संकट और सोवियत संघ के विघटन ने भारत को भारी झटका दिया। मुद्रास्फ़ीति, भुगतान संकट और संसाधनों की छीजन के उस दौर से निकलने के लिये सरकार ने युद्धस्तर पर अर्थव्यवस्था में बुनियादी संरचनात्मक परिवर्तनों की शुरुआत की। अब वर्तमान सरकार अपने दो वर्ष पूरे कर रही है, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हम संकट से बाहर आ गए हैं। अब अर्थव्यवस्था उस रास्ते पर चल पड़ी है जो भारत को विश्व बाजार से एकीकृत कर देगा।

वित्त मंत्री द्वारा लागू आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का अंतिम लक्ष्य भारत की गरीबी को दूर करना है। हालाँकि जो कदम उठाये गए हैं उन्हें ऊपर से देखकर लगता है कि इनका सम्बन्ध बृहत अर्थव्यवस्था और बड़ी पूँजी से ही है। लेकिन गहराई से देखें तो इन कदमों की तार्किक परिणति यही है कि गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा दूर हो, बेरोजगारी देश में न रहे और कृषि तथा ग्रामीण विकास भारत के सम्पूर्ण विकास की बुनियाद बने।

राजकोषीय घाटा खत्म करने के उपाय


भारत की अर्थव्यवस्था को इसके लिये सबसे पहले स्थिरता देनी जरूरी थी। कर्ज और घाटे से उबरने के लिये आर्थिक विकास की दर बनाये रखना और बढ़ाते जाना जरूरी था। सरकार ने लक्ष्य रखा है कि 90 के दशक के अंत तक यह विकास राजकोषीय घाटे को लगातार कम करने के उपाय दो बजटों में किये गए।

दूसरी तरफ उद्योग और व्यापार नीति में क्रांतिकारी परिवर्तन किये गए, ताकि उत्पादन और निर्यात बढ़े और निर्यात बढ़ाने के लिये जरूरी आयात पर पाबंदी न हो। इन उपायों की पराकाष्ठा व्यापार खाते में रुपये का पूर्ण परिवर्तनीय बनाने से हुई है। कुछ महत्त्वपूर्ण कदम निम्न प्रकार हैं:

- विदेश व्यापार नीति में परिवर्तन किये गए, ताकि नियंत्रण और कायदों के जंजाल खत्म हों और आयात-निर्यात सुगम तरीके से हो सके।

- आयात के लिये अग्रिम लाइसेंस, बैंक गारण्टी और आवेदनों के जल्दी निपटान की व्यवस्था की गई है तथा सभी प्रक्रियाओं का व्यापक सरलीकरण किया गया है।

- आयात-निर्यात के लिये एक दीर्घकालीन पाँच साला नीति बनायी गयी है। एक बहुत छोटी-सी नकारात्मक सूची ही अब शेष है, जिसमें कुछ वस्तुओं का आयात नहीं हो सकता।

- ताजा परिवर्तन ये हैं कि कृषि-फलोद्यान, खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा, कपड़ा रसायन आदि क्षेत्रों में व्यापक प्रोत्साहन दिये गए हैं, ताकि निर्यात बढ़े।

- लक्ष्य है कि आठवीं पंचवर्षीय योजना में आयात 13.6 प्रतिशत की दर से (परिणाम में) बढ़े। इसी तरह उद्योगों में लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म किया गया। प्रतियोगी और गुणवत्ता वाला उत्पादन माहौल बनाने के लिये निवेश को प्रोत्साहन देने और उच्च प्रौद्योगिकी को लाने के उपाय किये गए।

- नयी उद्योग नीति में लाइसेंस प्रथा खत्म कर दी गई है। इसकी परिणति की ताजा मिसाल है कि शीरा उद्योग को नियंत्रण-मुक्त किया गया है, जिससे गन्ना किसानों को लाभ होगा। साथ ही साथ चीनी मिलें प्रतियोेगी बनेंगी।

- घाटे वाले सरकारी उद्यमों का पुनर्जीवन और उनमें शेयरों का विनिवेश किया गया। निजीकरण की नीति खुली अर्थव्यवस्था बनाने का आधार बनने जा रही है।

- बिजली, दूरसंचार और परिवहन जैसे आधारभूत क्षेत्रों में भारी निवेश की जरूरतों को देखते हुए विदेशी पूँजी के लिये उदार नियम बनाये गए हैं। विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी ही भारत के पीछे छूटे आधारभूत क्षेत्र को उन्नत बना सकती है।

- अब तक करीब 1500 विदेशी निवेश मंजूरियाँ दी जा चुकी हैं। इनसे 20 अरब रुपये से ज्यादा का निवेश भारत आएगा और इसमें से 80 प्रतिशत प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में है।

- औद्योगीकरण की प्रक्रिया में मजदूरों के हितों की रक्षा के लिये एक सामाजिक सुरक्षा कवच, अर्थात राष्ट्रीय नवीकरण कोष बनाया गया है। डेढ़ सौ करोड़ रुपये सरकारी निगमों में स्वेच्छया सेवा निवृत्ति योजना के लिये रखे गए हैं।

- छोटे उद्योग-धन्धों को बढ़ावा देने के लिये कर्ज और करों में राहत दी गयी है। लघु उद्योग क्षेत्र से सरकारी खरीद का ठीक वक्त पर भुगतान करने जैसी बातों के सम्बन्ध में भी ठोस उपाय किए गए हैं।

निवेशकों को संरक्षण


उद्यम की ये गतिविधियाँ तभी कामयाब होंगी, जब तर्कसंगत वित्तीय-राजकोषीय कदम भी उठाये जाएँ। इसीलिये सरकार ने क्रमिक रूप से कर प्रणाली को सरल बनाया है। सीमा और उत्पाद शुल्क में भारी कमी लायी गई है। काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था को खत्म करने के लिये सोने और चाँदी को यात्री सामान के रूप में लाने की सुविधा, बैगेज नियमों में परिवर्तन और रुपये की परिवर्तनीयता जैसे कदम उठाये गए। पूँजी निर्गम नियंत्रक का कार्यालय समाप्त कर दिया गया और निवेशकों के संरक्षण के लिये भारतीय प्रतिभूति व विनियम बोर्ड को व्यापक अधिकार दिये गये।

चूँकि ये परिवर्तन इतनी तेजी से हुए हैं इसलिये बहुत से लोगों को लगता है कि सामाजिक क्षेत्र की उपेक्षा की गयी है। पर वास्तविकता यह नहीं है। वास्तविकता यह है कि सामाजिक सरोकारों से प्रेरित होकर ही यह उदारवाद और सुधारवाद लाया गया है।

सामाजिक क्षेत्र में बेहतरी के लिये नवीनतम क्रांतिकारी उपाय हैं- नया पंचायती राज और नगरपालिका कानून। आठवीं योजना में ग्रामीण विकास के लिये तीस हजार करोड़ रुपये के आवंटन से समझा जा सकता है कि सरकार इसे बहुत महत्त्व दे रही है। पंचायती राज को लागू करने का अर्थ है लोकतंत्र को निचले स्तर पर खुद फैसले लेने का मौका देना। अब पंचायतें और नगरपालिकायें अपनी जरूरत के मुताबिक योजनायें बना और लागू कर सकेंगी। स्थानीय स्वशासन की इन इकाइयों को अब व्यापक आर्थिक शक्तियाँ दी जायेंगी। अगर इस स्तर पर लोगों की भागीदारी हो जाये तो देश की तस्वीर ही बदल जायेगी।

ग्राम विकास पर जोर


एकीकृत ग्रामीण विकास की योजनाएँ इस तरह बनाई गई हैं कि देश के साढ़े पाँच लाख गाँवों में पेयजल, बिजली, बुनियादी शिक्षा और रोजगार सुलभ हों। देश के सभी प्रखंडों में 17 हजार करोड़ रुपये 4.13 करोड़ परिवारों में बाँटे गए हैं। आठवीं योजना का लक्ष्य 3350 करोड़ रुपये इन योजनाओं में लगाने का है।

देश के 13 लाख परिवारों को जनवरी 1993 तक कर्ज और सब्सिडी दी गयी है। छोटे रोजगार के लिये कर्ज, औजार और प्रशिक्षण सुलभ कराने की योजनाओं पर काम हो रहा है। जवाहर रोजगार योजना का फोकस सुदूर गाँवों और उनमें भी समाज के दलित-आदिवासियों पर है।

ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार की बुनियाद चूँकि भूमि सुधारों में छुपी है, इसलिये भूमि दस्तावेजों के कम्प्यूटरीकरण से लेकर भूमि के आवंटन तक के कामों पर जोर दिया जा रहा है। इस सरकार ने 2.10 लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों को वितरित की है।

कृषि विकास के लिये छोटी सिंचाई योजनाएँ, विद्युतीकरण, सफाई, कृषि आधारित उद्योगों को कर्ज बाजार की सुविधाएँ, आदि देने के कारगर उपाय किए गए हैं। कृषि का बजट 36 प्रतिशत से बढ़ाकर 1918 करोड़ रुपये रखा गया है।

इसी तरह शिक्षा, मानव संसाधन विकास, स्वास्थ्य, महिला, बाल व समाज कल्याण के क्षेत्रों में व्यापक योजनाएँ शुरू की गई हैं। राष्ट्रीय साक्षरता अभियान से लेकर पिछड़े वर्गों के लिये वित्त निगम के गठन तक से इन प्राथमिकताओं को समझा जा सकता है।

पिछले दो वर्षों में आर्थिक मोर्चे पर किए गए सभी प्रयासों का मूलमंत्र यही रहा है कि कैसे गाँव और गरीब खुशहाल हों। सोच यह है कि उत्पादन बढ़े तो निर्यात बढ़े और इस रास्ते भारत समृद्धि के रास्ते पर चलता जाए।

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