गाँधीवाद रहे न रहे


अगर आप अहिंसक हैं तो आपको ऐसे नारे चुपचाप सुन लेने चाहिए। अगर गाँधीवाद में असत्य की बू है तो उसका अवश्य ध्वंस होना चाहिए। अगर उसमें सत्य है तो उसके नाश के लिये लाखों या करोड़ों आवाजें लगाई जाने पर भी उसका नाश नहीं होगा। जो लोग गाँधीवाद के विरुद्ध कुछ कहना चाहते हों, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए। उससे कोई नुकसान नहीं होगा। उनसे किसी प्रकार का द्वेष या बैर न कीजिए। जब तक आप अपने विरोधियों को शांति से निवाह नहीं सकेंगे तब तक अहिंसा को सिद्ध नहीं कर सकेंगे।

सन 1940 मलिकंदा (प. बंगाल) में पद्मा नदी के किनारे गाँधी सेवा संघ का छठवां अधिवेशन। गाँधीजी अपने जनों के, गाँधीजनों के बीच थे। पहले दिन 20 फरवरी को उद्घाटन किया। फिर 21 फरवरी को सुबह और शाम तथा 22 फरवरी को सुबह और शाम- इस तरह कुल पाँच बार मलिकंदा में गाँधीजी विस्तार से बोले हैं। इन पाँच लम्बे भाषणों का संक्षिप्त अंश यहाँ प्रस्तुत है। “यहाँ तो मैं अपने घर में बैठा हूँ, इस सम्मेलन के लक्ष्यों और उद्देश्यों को केन्द्र में रखकर” कहते हुए गाँधीजी ने कई बातें बहुत खरी-खरी कही हैं। इन बातों का महत्त्व आज कम नहीं हुआ है, बढ़ा ही है। इसलिये इसे एक कसौटी मानकर हमें इसे दुहराते रहना चाहिए।

अगर आप शांति रखेंगे तो मेरी आवाज आप तक पहुँच जाएगी। अभी मैंने कई लोगों को ‘गाँधीवाद ध्वंस हो’ चिल्लाते हुए सुना। जो गाँधीवाद का ध्वंस करना चाहते हैं, उनको ऐसा कहने का पूरा-पूरा अधिकार है। जो लोग मेरा भाषण सुनने आए हैं, वे कृपा करके खामोश रहें। उनको इस विरोधी नारों से चिढ़ना नहीं चाहिए और न ‘गाँधी की जय’ के नारे लगाकर उनका जवाब ही देना चाहिए। अगर आप अहिंसक हैं तो आपको ऐसे नारे चुपचाप सुन लेने चाहिए। अगर गाँधीवाद में असत्य की बू है तो उसका अवश्य ध्वंस होना चाहिए। अगर उसमें सत्य है तो उसके नाश के लिये लाखों या करोड़ों आवाजें लगाई जाने पर भी उसका नाश नहीं होगा। जो लोग गाँधीवाद के विरुद्ध कुछ कहना चाहते हों, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए। उससे कोई नुकसान नहीं होगा। उनसे किसी प्रकार का द्वेष या बैर न कीजिए। जब तक आप अपने विरोधियों को शांति से निवाह नहीं सकेंगे तब तक अहिंसा को सिद्ध नहीं कर सकेंगे। अगर सच पूछा जाय तो खुद मैं नहीं जानता कि गाँधीवाद का क्या अर्थ है। मैंने देश को कोई नई चीज नहीं दी है। हिंदुस्तान में जो कुछ पहले ही से मौजूद था उसे केवल एक नया रूप दिया है। इसलिये उसे गाँधीवाद कहना गलत होगा।

हम यहाँ किसी राजनैतिक काम के लिये नहीं आए हैं। गाँधी सेवा-संघ का जो प्रधान उद्देश्य है, उसे पूरा करने के तरीकों का विचार करने के लिये हम यहाँ आए हैं। जो लोग विरोधी नारे लगाने के लिये आए हैं, उनसे मैं प्रेम से कहता हूँ कि वे जो कुछ कहना चाहते हैं, अवश्य कहें और अपने विचार प्रकट करें। हम एक दूसरे को शत्रु क्यों समझें? हम दोनों में मतभेद है, लेकिन इससे क्या? हम सब हिन्दुस्तान को प्यार करते हैं, उसकी आजादी चाहते हैं, इसलिये हमें एक दूसरे का मित्र होना चाहिए। एक पक्ष एक रास्ता लेता है, दूसरा पक्ष दूसरा ही रास्ता पसंद करता है, लेकिन हमारा मकसद तो एक ही है? फिर दुश्मनी क्यों रहे?

वे लोग जो यह कहते हैं कि गाँधीवाद का ध्वंस हो उसमें अर्थ नहीं है, ऐसा नहीं है। अगर गाँधीवाद का अर्थ सिर्फ यंत्र की तरह चरखा चलाना ही हो तो उसका ध्वंस होना ही ईष्ट है। वह जो प्रफुल्ल बाबू ने एक लाख गज सूत कातने की बात कही है उसका महत्त्व मैंने आपको समझाया, परन्तु हमें उसका केवल शब्दार्थ नहीं लेना चाहिए। मैं उसकी दूसरी बाजू भी जानता हूँ। सिर्फ चरखा चलाने से देश का कल्याण नहीं होगा। पुराने जमाने में भी कई पंगु (अपाहिज) और स्त्रियाँ चरखा चलाती थीं। तो भी वे गुलामी में डूबी हुई थीं। कौटिल्य ने जो लिखा है कि उस जमाने में चरखे चलाए जाते थे, उसी के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा है कि राजदंड के डर से चरखा चलवाया जाता था। चरखा चलाने वाले अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से बेगार के तौर पर, चरखा चलाते थे। औरतें चरखा कातने के लिये हारबंद (एक कतार में) बैठती तो थीं, लेकिन वह सब जबरदस्ती का मामला था।

ये सब लिखी हुई बात है, मैं केवल सुनी हुई बात नहीं कर रहा हूँ। अगर हमारा मतलब फिर से उसी चरखे को जारी करने से है, तब तो उस चरखे का ध्वंस ही होना चाहिए और उस चरखे का महत्त्व मानने वाले गाँधीवाद का भी ध्वंस होना चाहिए।

अगर हमारी अहिंसा वीर की अहिंसा न होकर कमजोर की अहिंसा है, अगर वह हिंसा के सामने झुकती है, हिंसा के आगे लज्जित और बेकार हो जाती है, तो ऐसे गाँधीवाद का भी ध्वंस होना चाहिए। उसका ध्वंस होने ही वाला है। हम अंग्रेजों से लड़े, मगर उसमें हमने अशक्त लोगों के शस्त्र के रूप में अहिंसा का प्रयोग किया। अब हम उसे बुलंद, शक्तिशाली का शस्त्र बनाना चाहते हैं। अहिंसा एक हद तक अशक्तों का शस्त्र भी हो सकती है। लेकिन एक हद तक ही। परंतु वह बुजदिलों का- कायरों का- शस्त्र तो हरगिज नहीं हो सकती। अगर कोई बुजदिल होकर अहिंसा को अपना लेता है तो अहिंसा उसका नाश करेगी।

हमें यह देखना चाहिए कि हम चरखा चलाते हैं तो क्या उसमें से हममें अहिंसा की शक्ति पैदा होती है? सम्मेलन में सूत्र-यज्ञ के समय आप दो से चार तक चरखा चलाते हैं, क्या उस वक्त आप उसका अहिंसा से अनुसंधान करते हैं। क्या उसमें से आपकी अहिंसा की शक्ति नित्य बढ़ती रहती है? कोई दो घंटे में छह सौ गज काते या एक घंटे में छह सौ गज काते, उसका महत्त्व तो है, लेकिन सबसे महत्त्व का सवाल तो यह है कि क्या कातने से हमारी अहिंसा-शक्ति बढ़ी? हमारा अहिंसा का दर्शन बढ़ा? अगर हमारा चरखा हमारी अहिंसा को नित नया बल नहीं देता, हमारा अहिंसा का दर्शन नहीं बढ़ाता तो मैं कहता हूँ कि गाँधीवाद का ध्वंस हो। वे लोग ध्वंस के नारे पागलपन में लगा रहे हैं, रोष में आकर कह रहे हैं। लेकिन मैं तो बुद्धिपूर्वक कह रहा हूँ।

यह बात आपसे एक ऐसा आदमी कहता है जो सारासार का विचार कर सकता है, जिसका मस्तिष्क काम करता है और जिसने सफलतापूर्वक वकालत भी की है। मैं यह साक्षी देता हूँ कि हम यदि अहिंसा से अनुसंधान करके ध्यानपूर्वक चरखा नहीं चलाते हैं तो गाँधीवाद का अवश्य ध्वंस हो जाना चाहिए, क्योंकि फिर उसमें कोई शक्ति नहीं रह जाती है। आप गाँधी सेवा-संघ के सदस्य हैं, इसलिये एक लाख गज सूत कात लेंगे। रघुनाथ श्रीधर धोत्रे अपने विवरण में हिसाब देगा कि इतना-इतना सूत हुआ। आप कहेंगे प्रगति है। मैं कहूँगा, नहीं। आपको अभिमान हो जाएगा। मैं कहूँगा कि अगर जड़वत माला फेरने में दंभ है तो यंत्रवत चरखा चलाने में आत्मवंचना है, और आपको अभिमान होने लगेगा इसलिये दंभ भी है। अगर ऐसा न होता तो चरखा कातने वाली लाखों स्त्रियों को हम संघ का सदस्य बना लेते। लेकिन हमारे दिल में यह विचार कभी आया ही नहीं।

अगर मुझको नेतागिरी करनी है, करोड़ों को रास्ता दिखाना है, उन्हें अपने पीछे दरिया में फेंक देना है, तो मुझे लज्जा के कारण असत्य नहीं करना चाहिए। अगर मैं ऐसा करूँगा तो नेतागिरी के लिये नालायक ठहरूंगा। अहिंसा की नीति का यह आवश्यक अंग है। मैंने चरखे को उस नीति का व्यक्त प्रतीक माना है। आप मुझसे पूछेंगे कि यह सब तुमने कहाँ से पाया? मैं कहूँगा, सेवा के अनुभव से। 1908 से मेरे दिल में यह बात जमी हुई थी। उस समय तो मैं करघे-चरखे का भेद भी नहीं जानता था। लेकिन बीज-रूप में चरखे से मुझे प्रेरणा मिली।

शायद आपको पता नहीं होगा कि मैंने ‘हिंद स्वराज्य’ किसके लिये लिखा। अब तो वे मर गए हैं इसलिये उनका नाम बताने में भी हर्ज नहीं है। मैंने सारा ‘हिंद स्वराज्य’ अपने मित्र डॉ. प्राणजीवन मेहता के लिये लिखा। उनसे जो चर्चा हुई वही उसमें आई है। एक महीना मैं डॉ. मेहता के साथ रहा। वे मुझे प्यार करते थे लेकिन मेरी बुद्धि की उनके पास कोई कीमत नहीं थी। वे मुझे मूर्ख और भावुक मानते थे। लेकिन अनुभव से मुझमें कुछ हिम्मत आ गई थी। कुछ वाचा भी आ गई थी। डॉ. मेहता कितने बुद्धिशाली आदमी थे? उनसे बुद्धिवाद करने की शक्ति मुझमें कहाँ? लेकिन मैंने अपनी बात उनके सामने रखी। उनके हृदय पर वह असर कर गई, उनके विचार बदल गए। तो मैंने सोचा इसे लिख ही क्यों न डालूं। उनसे जैसा संवाद हुआ वैसा ही उसमें लिखा है। मैंने उस समय तक चरखे का दर्शन भी नहीं किया था। चरखे की बात तो आगे मेरे स्वतंत्र प्रकरणों में आई है। लेकिन तो भी वहाँ मैंने आखिरी दलील यही दी थी कि अहिंसात्मक संस्कृति का आधार सार्वत्रिक कताई ही हो सकती है। यानी उस वक्त भी मेरे दिल में चरखे से अहिंसा का अनुसंधान तो था।

इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि चरखे में जो अर्थ भरे हैं उनको न समझकर अगर आप चरखा चलाते हैं या तो उसे पद्मा नदी में फेंक दीजिए या जलाकर जाइए। तब सच्चा गाँधीवाद प्रकट होगा। सिर्फ चरखा चलाने तक ही जो गाँधीवाद सीमित है, उसके लिये तो मैं भी कहूँगा कि ‘गाँधीवाद का ध्वंस हो’।

इस पर से मेरे दिल में यह विचार आता है कि अगर हम यहाँ से गाँधी सेवा-संघ की पूर्णाहूति करके चले जाएँ तो क्या अच्छा नहीं होगा? इसमें खेद की कोई बात नहीं है- शायद हमारा बाह्य रूप लोप हो जाने पर ही सच्चा गाँधीवाद प्रकट होगा। सीता के दृष्टांत में यही बात है। जब वह मायामृग आ गया तो रामचन्द्रजी ने सीताजी से कहा, तुम्हें तो लोप हो जाना है। वास्तविक सीता लुप्त हो गईं। उनकी जगह उनकी छाया-मात्र रह गई। उसी से सारी रामलीला हुई है। क्या हम भी इसी तरह लोप न हो जाएँ? फिर जिन्हें सत्य और अहिंसा की साधना करनी होगी, वे करते रहेंगे। शायद इसी से हममें सच्ची शक्ति पैदा होगी। इसलिये क्या यह बेहतर नहीं है कि हम संघ को बंद कर दें? नहीं तो मुझे डर है कि हम संघ के बाह्यरूप से अपना काम निकाल लेंगे और उसके मूल हेतु को भूल जाएंगे। इस प्रकार हम अपने दिल को और संसार को धोखा देंगे।

अगर मुझको नेतागिरी करना है, करोड़ों को रास्ता दिखाना है, उन्हें अपने पीछे दरिया में फेंक देना है, तो मुझे लज्जा के कारण असत्य नहीं करना चाहिए। अगर मैं ऐसा करूँगा तो नेतागिरी के लिये नालायक ठहरूंगा। अहिंसा की नीति का व्यक्त प्रतीक माना है। आप मुझसे पूछेंगे कि यह सब तुमने कहाँ से पाया? मैं कहूँगा, सेवा के अनुभव से।

आप कहेंगे कि हमारी साधना पूर्ण भले ही न हो लेकिन संघ से हमें अपनी साधना में शक्ति और सहारा मिलता है। संघ न रहा तो हमें यह बल और मार्गदर्शन कहाँ से मिलेगा? मुझे डर है कि इससे आप परावलंबी और दुर्बल बन जाएंगे। यह बड़ा भयंकर परिणाम होगा। इसलिये मैं तो यही कहूँगा कि आप इस आश्रय को छोड़ दें। अगर संघ से सांत्वना और सहायता पाए बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता तो इसे जरूर बंद कर देना चाहिए। इस प्रकार संघ आपकी ताकत बढ़ा नहीं सकता। आपको खुद अपने बल पर सत्य और अहिंसा की साधना करनी चाहिए।

कल शाम को क्या हुआ? ‘गाँधीवाद का ध्वंस हो’ का घोष हुआ। मारपीट भी हुई। दो-चार आदमी पिट गए। मैं आपसे पूछता हूँ कि आपके दिल पर क्या असर हुआ? हम दो सौ आदमी यहाँ इस तरह पिटकर मर जाएँ तो आपके दिल में रोष पैदा होगा या दया? सिर्फ मर जाने से हम परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होंगे। हमारे दिल में मारने वालों के लिये दया होनी चाहिए। प्रेम तो वहाँ ठीक नहीं होगा। जो अत्याचार करते हैं उनको हम यह शाप नहीं देंगे कि उनका सत्यानाश हो जाए। लेकिन उनसे प्रेम भी कैसे कर सकते हैं? उन पर दया करेंगे। वे अज्ञानी हैं इसलिये ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह उन्हें ज्ञान दे। हम तितिक्षा से उनके आघात सह लेंगे। हमारे हृदय से दया के उद्गार निकलेंगे। सिर्फ लोगों को सुनाने के लिये नहीं, बल्कि सच्चे दिल से हम उन पर दया करेंगे। कोई मुझ पर हमला करता है, लेकिन मुझे उस पर गुस्सा नहीं आता। वह मारता जाता है, मैं सहता जाता हूँ, मरते-मरते भी मेरे मुख पर दर्द का भाव नहीं बल्कि हास्य है, मेरे दिल में रोष के बदले दया है, तो मैं कहूँगा कि हमने वीर पुरूषों की अहिंसा सिद्ध कर ली। अहिंसा में इतनी ताकत है कि वह विरोधियों को मित्र बना लेती हैं और उनका प्रेम प्राप्त कर लेती है। मुझे डर है, और मेरे पास ऐसे सबूत हैं कि हम ऐसे नहीं हैं। हममें से जो ऐसे नहीं हैं उन्हें प्रामाणिकता से संघ से हट जाना चाहिए। सभी एक से हों तो सभी को हट जाना होगा। शायद मुझे भी कहना पड़े कि मैं भी इस लायक नहीं हूँ। तब तो यहाँ से संघ की पूर्णाहुति ही करके जाना अच्छा है।

मैं आपसे कहता हूँ कि संघ का विसर्जन करने में हमारी कोई हानि नहीं है। संघ में अगर कुछ है तो उसके तीन सौ सदस्य उसकी तीन सौ शाखाएं हो जाती हैं। और इस प्रकार की शक्ति अगर हमारे सदस्य नहीं दिखा सकते तब तो कहना पड़ेगा कि संघ में कुछ था ही नहीं। तब फिर उसे कायम रखने से क्या लाभ? मेरी तो यही सलाह है कि हम उसकी पूर्णाहूति करके यहाँ से जाएँ।

हम यह कदम डर के मारे नहीं उठा रहे हैं। अपने बल-संग्रह करने के लिये उठा रहे हैं। क्योंकि अगर हम यह काम शुद्ध बुद्धि से करेंगे तो हमारी शक्ति बढ़ेगी और आज हमारी हस्ती से जो डर पैदा हो रहा है वह नहीं रहेगा। हमारी शक्ति अगर किसी के दिल में डर पैदा करती है या हिंसा की प्रेरणा करती है तो वह अहिंसक नहीं हो सकती। उस हालत में हम संघ का आश्रय लेंगे तो हमारा कल्याण नहीं होगा। वह हमें अहिंसक शक्ति नहीं दे सकता। और न हम उसकी शक्ति बढ़ा सकते हैं, क्योंकि हम तो खुद ही आश्रय चाहते हैं। अगर हम पैसे के लिये या सामुदायिक बल के लिये संघ का आश्रय चाहते हों तो हम सत्य और अहिंसा के अभ्यास के लिये निकम्मे हैं। अगर हमारे लिये भगवान का आश्रय काफी नहीं है तो हमारे हिसाब में गलती है।

अहिंसा एक स्वयंभू शक्ति है। संघ की उपाधि यदि उसकी शक्ति को न रोके तो वह ज्यादा काम करती है। मैंने जो यह लिखा है कि “यदि हिंदुस्तान में अहिंसा का एक भी संपूर्ण प्रतिनिधि पैदा हो जाए तो भी हमारा काम सिद्ध होगा” – वह पूर्ण वाक्य है। मेरा मतलब यह नहीं है कि वह अकेला सब-कुछ कर लेगा। अकेला तो ईश्वर भी नहीं कर सकता।

जब हम संस्था का इस बाह्यरूप से अंत कर देंगे तो हमारे अंदर नम्रता की शक्ति पैदा होगी। एक कहावत है ‘जो यह जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता वही दरअसल ज्ञानी है’। जिस दिन हम इतने नम्र हो जाएंगे कि अपने आपको शून्यवत बना लेंगे उसी दिन हमारी शक्ति बढ़ेगी। फिर तो गाँधी सेवा-संघ एक दूसरी ही अनोखी अव्यक्त संस्था बन जाएगी। वह सीता जो लुप्त हो गईं, अमर हैं। आज तक हम उसका नाम लेकर पावन होते हैं। वह सीता जिंदा हैं, छाया की सीता मर गई। अगर हम दरअसल शक्तिशाली होना चाहते हैं तो संघ का विसर्जन कर दें। यह भी शक्ति का काम है। इसके लिये भी हिम्मत और बल चाहिए।

हमारे अंदर आगे बढ़ने की, नेता बनने की, महत्वाकांक्षा रही। लेकिन नेता बनने का असली अर्थ हम नहीं समझ सके। ‘मैं सबसे बड़ा नेता बन जाऊँ’। सेवा भी उसकी करो जिसे सेवा की जरूरत है। जिसे सेवा की जरुरत नहीं है, उसकी सेवा करना ढ़ोंग है। वह तो दंभ है।

इसी तरह हम अधिकार और सत्ता के द्वारा सेवा का दंभ करते हैं। लोगों को सिर्फ दिखाना चाहते हैं कि हम सेवा में लगे हैं। इसलिये हमारा धर्म तो यह है कि हम राज-प्रकरण को भूल जाएँ। तब तक भूल जाएँ जब तक देश के सभी दल हमसे आकर यह न कहें कि तुम आओ, तुम्हारी जरुरत है। तुम्हारे बगैर काम नहीं चलता। तब तक हम बैठे-बैठे सेवा करते रहें। नालायक और निठल्ले बनकर बैठे रहें, ऐसा नहीं। आखिर जो भिन्न-भिन्न संस्थाओं के अधिकारी पदों पर चुने जाते हैं ऐसे आदमी एक लाख भी तो नहीं होंगे। हम लाख में से एक न बनें। हम तो तीस कोटि में से एक बनें। हम तीस कोटि में से एक लाख में क्यों जाएँ? एक लाख के लिये हम शून्य हो जाएँ। तीस कोटि में घुल-मिल जाना बहुत बड़ी बात है।

हर एक सदस्य जो कुछ करे अपनी जवाबदारी पर करे। मैं तो निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि आपको गाँधी सेवा-संघ को समेट ही लेना चाहिए। उसके बाह्य रूप का लोप ही कर देना चाहिए। हम चाहे कांग्रेस में रहें, रचनात्मक कार्य में रहें, अपनी जिम्मेवारी पर रहें। खामख्वाह क्यों गाँधी को, या गाँधीवाद जैसी कोई चीज हो तो उसको, बदनाम करें? संघ के रहने से यह व्यर्थ का अभिमान पैदा होता है कि हम दूसरों से अच्छे हैं। दरअसल हम दूसरों से किसी बात में अच्छे नहीं हैं। जैसे दूसरे हैं वैसे ही हम हैं- कुछ कम या अधिक मात्रा में। इस तरह की तुलना करना हमारे लिये लज्जा की बात है। हमको तो दूसरों में घूल-मिलकर उनकी सेवा करनी है। दूध में मिश्री जिस तरह मिल जाती है उसी तरह हम सबमें घुल जाएँ। हम जो कुछ हैं, अपने दिल में रहें, अपने सिद्धान्तों पर नम्रता से दृढ़ रहे और शून्य होकर सेवा करते रहें।

मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अगर हमारे में शक्ति भरी है तो वह शक्ति कम न होगी। समाज के जीवन पर हमारी कृतियों का असर भी बराबर पड़ेगा। अब तक हमने संघ बनाकर जिस तरह से प्रयोग किया उससे हमें सफलता नहीं मिलेगी। अहिंसा किस तरह काम करती है इसका पूरा अनुभव इसमें से नहीं मिलता। अहिंसा एक स्वयं भूशक्ति है। संघ की उपाधि यदि उसकी शक्ति को न रोके तो वह ज्यादा काम करती है। मैंने जो यह लिखा है कि “यदि हिन्दुस्तान में अहिंसा का एक भी सम्पूर्ण प्रतिनिधि पैदा हो जाए तो भी हमारा काम सिद्ध होगा”- वह पूर्ण वाक्य है। मेरा मतलब यह नहीं है कि वह अकेला सब-कुछ कर लेगा। अकेला तो ईश्वर भी नहीं कर सकता। उसे भी अनेक रूप लेने पड़ते हैं। मेरा मतलब यह है कि यह अकेला प्रतिनिधि सबको अपनी ओर खींच लेगा। संघ की शक्ति आपको कमजोर कर देगी। उसमें आपका जो अपनापन है वह प्रकट नहीं होने पाता। आप केवल संघ की शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, अपनी आत्मा की शक्ति का नहीं। संघ में जो शक्ति है वह भी आपकी ही शक्तियों का समुदाय है। अहिंसा के विकास के लिये शक्तियों के समुदाय के ऐसे संगठन की जरुरत नहीं रह जाती है। मैं बाह्य साधनों की आवश्यकता महसूस नहीं करता।

जो अपने-आपको गाँधीवादी कहलाते हैं, उनमें अगर रोष है, बुजदिली है तो वो किसी संघ को सुशोभित नहीं कर सकते। ऐसा गाँधीवाद नहीं रहेगा। मैंने सारे हिन्दुस्तान को अपना क्षेत्र बनाया है, या यों कहिए कि ईश्वर ने यह क्षेत्र मुझे दिया है। इसका एक विशेष कारण है। मैं मानता हूँ कि हिन्दुस्तान के घर-घर में अहिंसा है। यूरोप में तीन सौ आदमियों की ऐसी जमात नहीं मिलेगी जिनसे मैं ऐसी बातें कह सकूँ, जैसी आपसे कह रहा हूँ। यही कारण है कि ईश्वर ने मुझे अपने प्रयोगों के लिये यह क्षेत्र दिया है। मैं क्षेत्र क्या पसंद कर सकता हूँ? मेरी क्या शक्ति है? वह तो उसी ने दिया है। इसलिये मेरी निश्चित राय है कि अहिंसा के सिवा दूसरी सारी बातें आपको फँसाने वाली हैं। आध्यात्मिकता ऐसी कोई चीज नहीं है कि गाँधी की दुकान पर गए और उसकी पुड़िया लेकर चले। आप संघ को सत्संग मानते हैं, लेकिन वह सत्संग नहीं रह जाता। हममें भावुकता आ जाती है और एक तरह का, पवित्रता का अभिमान भी आ जाता है।

शांति सेना के बारे में मैंने कहा भी और लिखा भी है। यह बात सही है कि कुछ लोगों ने उस दिशा में प्रयत्न भी किया। हकीम अलवई ने ऐसी एक शांति सेना बनाई थी। मैंने उन्हें धन्यवाद भी दिए थे। लेकिन अब उसका नामो-निशान तक नहीं रहा। मैं देखता हूँ कि वह चीज भी नहीं चल सकती। आप शांति-सेना बनाएँगे। आपकी प्रतिज्ञा पर कई आदमी झूठ-मूठ दस्तखत कर देंगे और उसका पालन नहीं करेंगे। आबोहवा में जब इतना मैल भरा हुआ है, तो अच्छी चीज भी गंदी हो जाने का डर है। इसलिये उससे अस्पृष्ट (बचकर) ही रहना चाहिए। मेरे पास अगर एक लोटा-भर गंगाजल हो तो उसे एक तालाब भर गंदे जल में मिला देने से वह गंदा जल शुद्ध हो जाएगा, ऐसा समझने की मूर्खता मैं नहीं करूँगा। आप एक-एक आदमी अपना-अपना अलग शांतिदल बना सकते हैं। लेकिन ऐसा आदमी भी कहाँ है?

शिकारपुर और सक्खर में क्या कांग्रेस वाले नहीं थे? फिर क्यों एक भी आदमी ऐसा नहीं निकला जो बिना रोष के दंगा शांत करने की कोशिश में मरा हो! कानपुर में गणेश शंकर के पुजारी तो काफी भरे हैं? लेकिन उसका संप्रदाय क्यों लुप्त हो गया? तो भी मैं यह नहीं मानता कि गणेश शंकर की आत्महुति व्यर्थ गई। इसकी आत्मा मेरे दिल पर काम करती रहती है। मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईर्ष्या होती है। इस देश में दूसरा गणेश शंकर नहीं हुआ। उसकी परम्परा समाप्त हो गई, लेकिन वह इतिहास में अमर हो गया। उसकी अहिंसा सिद्ध अहिंसा थी। उसी की तरह कुल्हाड़ी के प्रहार सहते हुए मैं शांतिपूर्वक मरूँ तो मेरी अहिंसा भी सिद्ध होगी। मेरा भी यह सुख-स्वप्न है कि मैं उसी की तरह मरूँ- एक तरफ से एक मनुष्य मुझ पर कुल्हाड़ी चला रहा हो, दूसरा दूसरी तरफ से बरछी मार रहा हो, तीसरा लाठी मार रहा हो और चौथा लात और घूंसे बरसाता जाता हो, ऐसी अवस्था में भी मैं खुद शांत रहूँ और लोगों से शांत रहने को कहूँ और खुद हँसता हुआ मरूँ- ऐसा भाग्य मैं चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे ऐसा मौका मिले और आपको भी मिले।

हमने एक अनोखी नीति को लिया है। उस नीति के प्रयोग के साधन भी अनोखे होंगे। वे क्या होंगे, उसकी मैं खोज करता रहता हूँ। मैं प्रयोग कर रहा हूँ। बदलती हुई परिस्थिति में मुझे अपने तरीके भी बदलने पड़ते हैं। लेकिन मेरे पास कोई बना-बनाया शास्त्र नहीं है। हमारा प्रयोग एकदम नया है। उसके कदमों का क्रम कहीं निश्चित नहीं है। मैं तो एक जिज्ञासु हूँ।

अहिंसा के लिये संघ की हस्ती अपरिहार्य नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि अहिंसा का कोई संघ ही नहीं बन सकता। लेकिन आज का हमारा संघ उस प्रकार का नहीं है। हमने एक संघ बना लिया, उसका स्वाद हमने चख लिया, कम-से-कम मैंने तो चख लिया। हमने देख लिया कि अहिंसा का संघ दूसरे संघों की तरह नहीं चल सकता, और न उसे उस तरह चलना ही चाहिए। अहिंसा के संघ में कुछ विशेषताएँ होनी चाहिए। इसलिये मुझे संघ का जो अनुभव है, उसके आधार पर मैं आपसे कहता हूँ कि आप इस राज-प्रकरण से बचें। और अगर नहीं बचेंगे तो गाँधीवाद का ध्वंस अवश्य होगा।

हमने एक अनोखी नीति को लिया है। उस नीति के प्रयोग के साधन भी अनोखे होंगे। वे क्या होंगे, उसकी मैं खोज करता रहता हूँ। मैं प्रयोग कर रहा हूँ। बदलती हुई परिस्थिति में मुझे अपने तरीके भी बदलने पड़ते हैं। लेकिन मेरे पास कोई बना-बनाया शास्त्र नहीं है। हमारा प्रयोग एकदम नया है। उसके कदमों का क्रम कहीं निश्चित नहीं है। मैं तो एक जिज्ञासु हूँ। सत्याग्रह के विज्ञान की खोज और विकास मैं धीरज के साथ कर रहा हूँ। इस खोज से नित नया ज्ञान और नित नया प्रकाश पा रहा हूँ।

इसी प्रयोग की वृत्ति से हुदली में मैंने कहा था कि हम राज-प्रकरण की रंगभूमि में उतरें, शौक से उसका अनुभव लें, अपनी सत्य और अहिंसा की शक्ति को आज़माएँ। हो सकता है कि ऐसी सलाह देने में मैंने गलती की हो, लेकिन उसका मुझे पश्चाताप नहीं है। अच्छा ही हुआ कि हम यह अनुभव नहीं लेते, तो मैं दुविधा में रह जाता। मेरे दिल में यह बात रह जाती कि हमने राज-प्रकरण के क्षेत्र का अनुभव नहीं लिया। अब उस अनुभव के बाद मैं आपको यह निश्चित सलाह दे सकता हूँ कि संघ की हैसियत से हम राज-प्रकरण का त्याग कर दें।

अब यह सवाल रह जाता है कि हम राज-प्रकरण में भी सत्य और अहिंसा दाखिल कराने का प्रयत्न क्यों न करें? संघ उस क्षेत्र को अस्पृष्ट क्यों छोड़ दे? इसका उत्तर भी मैं दे चुका हूँ। जब हममें बुराई को दूर करने की शक्ति न हो तो हमें उससे दूर हो जाना चाहिए, यही अहिंसा का तरीका है। इसी का नाम असहयोग है। असहयोग का बड़ा भारी सिद्धांत मैंने हिन्दुस्तान के सामने रखा है। उसी को मैं यहाँ लागू कर रहा हूँ।

एक उदाहरण लीजिए। आपके सामने यहाँ विरोध प्रदर्शन हो रहा है। तो क्या हम जबरदस्ती जाकर उनके सामने खड़े हो जाएँ, और उनसे कहें कि “यह लो, हम खड़े हैं, तुम्हें हमारे साथ जो करना है सो करो।” यह तो मूर्खता है। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि अगर कोई तुम्हारी निंदा करता है तो उसे सुनने के लिये मत जाओ।

मुझे पता नहीं, आपको जापान के कोबे नगर के तीन बंदरों की मूर्ति का हाल मालूम है या नहीं। उसी मूर्ति की एक छोटी-सी प्रतिकृति- एक खिलौना- किसी ने मुझे दे दिया था। उसमें तीन बंदर हैं। एक अपना मुँह बंद किए हुए, दूसरा आँखे बंद किए हुए और तीसरा कान बंद किए हुए है। वे संसार को यह उपदेश दे रहे हैं कि मुँह से बुरे वचन मत निकालो, आँखों से बुरी बातें मत देखो और कानों से गंदी बातें मत सुनो। असहयोग का यही रहस्य है। यहाँ यह विरोधी प्रदर्शन हो रहा है। अगर वे इस मंडप में आकर हम पर हमला करें, तो मैं आपसे कहूँगा कि आप बैठे रहें और उनके प्रहार सहते रहें। लेकिन मैं यह कभी नहीं कहूँगा कि वे लोग जहाँ प्रदर्शन कर रहे हैं, वहाँ जाकर आप उनके प्रहार सहें। यह तो उन्हें जान-बूझकर उत्तेजित करना है। इसमें अहिंसा नहीं है। इसमें अहंकार की वृत्ति है।

हम किसी का मुकाबला नहीं करना चाहते। हमारा मार्ग तो यह है कि जो हमारा विरोध करते हैं, उन्हें भी अपनाएँ। अगर वे विरोध करते हैं तो उनकी नासमझी है। लेकिन हम तो जानते हैं कि हम उनके और वे हमारे हैं। इसलिये जब तक लोग हमें राज-प्रकरण में बुलाते नहीं हैं, हम राज-प्रकरण में निश्चेष्ट रहें। अपना रचनात्मक काम चुपचाप करते रहें। इस प्रकार राज-प्रकरण से हटकर अहिंसा को सुशोभित करें। यह एक अनुभवी का वचन है। आप उसके रहस्य को समझ लें और पकड़ लें और उसमें जो भरा है, उस पर ध्यान दें। इस प्रकार आपका संघ को समेट लेना अहिंसा का पदार्थपाठ होगा। यह सीधी बात है। इसमें कोई हानि नहीं है।

जिसे राजनीति कहा जाता है, उसके लिये न तो मैं खुद लायक बनना चाहता हूँ और न दूसरों को बनाना चाहता हूँ। हुदली में मैंने राजनीति में प्रवेश करने के लिये कहा। अनजान में मैंने वह भूल की। यह भी कह सकते हैं कि अनजान में हमने असत्याचरण किया। जिस काम के लिये हम पैदा हुए हैं, उसी को अच्छी तरह करने के बदले हमने दूसरे काम में हाथ डाला। जो हुआ सो ठीक ही हुआ। हमने अनुभव ले लिया। पाया कि हमारी वह ताकत नहीं है। हमें अपनी अयोग्यता का पता लग गया है। अब हम अपना हाथ खींच लेते हैं। हमने गलती तो की, लेकिन अपने दोषों का पता लगते ही हम संभल रहे हैं। गलती जब सुधार ली जाती है, तब वह गलती नहीं रहती। अपनी भूल कबूल कर लेने से हमारी शक्ति बढ़ती है। मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपनी मर्यादाओं को पहचान लीजिए, और जिस काम के लिये यह संघ बना था उसी को अच्छी तरह कीजिए।

आज मेरे पास नोआखली से कुछ मित्र आ गए थे। वे कहते थेः “हम तुम्हारी सब बातें स्वीकार करते। लेकिन तुम्हारे अनुयायी जो यहाँ बैठे हैं, उनकी बात नहीं समझ सकते हैं, हम तुम्हारी बात मान सकते हैं। तुम उसे गाँधीवाद कहो, चरखा चलाना कहो, ग्रामोद्योग कहो, हम उसको स्वीकार करते हैं। हम तुम्हारे अनुयायी हैं लेकिन तुम्हारे अनुयायियों के अनुयायी नहीं हैं। तुम्हारे अनुयायियों के पास कुछ भी नहीं है।” उन्होंने जो कुछ कहा बड़े प्रेम से कहा। हमारे लिये वह समझने की बात है। हम राज-प्रकरण में पड़े, इससे न तो वहाँ कुछ कर सके, न हमारा अपना ही काम कर सके। न इधर के रहे, न उधर के। अब हमें अपने अज्ञान का ज्ञान हो गया है। हम उसे दूर करने के लिये प्रयत्नशील बनें।

तीसरी बात एक वाक्य में कह दूँ। सच बात यह है कि आपको ‘गाँधीवाद’ नाम को ही छोड़ देना चाहिए; नहीं तो आप अंध-कूप में जाकर गिरेंगे। गाँधीवाद का तो ध्वंस होना ही है। ‘गाँधीवाद का ध्वंस हो’ की आवाज मुझे प्यारी लगती है। वाद का तो नाश ही होना उचित है। वाद तो निकम्मी चीज है। असली चीज अहिंसा है। वह अमर है। वह जिंदा रहे, इतना मेरे लिये काफी है। गाँधीवाद का ध्वंस तो मैं शीघ्र ही देखना चाहता हूँ। आप सांप्रदायिक न बनें। मेरे ख्वाब में भी नहीं आया। मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर अगर कोई संप्रदाय निकला तो मेरी आत्मा रुदन करेगी। इतने बरसों तक हमने जो चीज चलाई, वह कोई वाद नहीं हैै। हमें किसी वाद में नहीं पड़ना है; मौन धारण करके अपने सिद्धान्तों के अनुसार सेवा करते रहना है।

लोग चाहे जो कहें, सेवा का कोई संप्रदाय नहीं बन सकता। वह तो सबके लिये है। हम सबको स्वीकार करेंगे। सबके साथ चलने की कोशिश करेंगे। यही अहिंसा का रास्ता है। अगर हमारा कोई वाद है तो वह यही है। गाँधीवाद कोई चीज नहीं। मेरा कोई अनुयायी नहीं है। मैं ही अपना अनुयायी हूँ। नहीं, नहीं मैं भी अपना पूरा-पूरा अनुयायाी कहाँ बन पाया हूँ? अपने विचारों पर मैं भी कहाँ अमल करता हूँ? तब दूसरे मेरे अनुयायी कैसे हो सकते हैं? दूसरे मेरे साथ चलें, मेरे सहयात्री रहें, यह तो मुझे प्रिय है। लेकिन कौन आगे चले और कौन पीछे चले, इसका मुझे कहाँ पता है? आप मेरे सहाध्यायी, सहकर्मी, सहसेवक, सह-संशोधक हैं। अनुयायी होने की बात आप छोड़ दें। कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। कोई नेता नहीं, कोई अनुयायी नहीं। हम सब साथ-साथ हारबंद (एक कतार में) चल रहे हैं। यह बात कई बार कह चुका हूँ। लेकिन आप लोगों को याद दिलाने के लिये फिर दोहरा दी है।

गाँधी सेवा-संघ की हस्ती रचनात्मक कार्यक्रम के लिये है। वही सच्चा राज प्रकरण है। अधिकार का त्याग करके हमें सच्चे राज-प्रकरण न कहे, तो हमें उसकी क्या परवाह है? सत्य और अहिंसा को जो लोग मेरी तरह मानते हैं, उनकी फेहरिस्त का रजिस्टर रखने के लिये गाँधी सेवा-संघ की जरूरत नहीं है। ऐसी किसी फेहरिस्त की मैं कोई आवश्यकता नहीं देखता। ‘तब भविष्य में संघ का क्या स्वरूप और कार्य हो सकता है’, इसका विचार मैं कल कर रहा था। मैं जिस नतीजे पर आया हूँ, वह सब आपके सामने रखता हूँ।

मेरे नजदीक अब गाँधी सेवा-संघ एक ‘पोस्ट ग्रेज्युएट स्टडी’ जैसी संस्था बन जाती है। हमारे यहाँ जितनी संस्थाएं मेरे नाम से यानी मेरी देखभाल या मार्गदर्शन में चल रही हैं, वे सब रचनात्मक कार्य के लिये ही हैं। चरखा संघ, ग्रामोद्योग संघ, हरिजन सेवक-संघ, तालीम संघ-इन सबका मार्गदर्शक मैं ही हूँ। दक्षिण भारत के हिन्दी प्रचार में मेरा हाथ रहा है। सारे भारत के हिंदी प्रचार की नीति पर मेरा अंकुश चलता है। मेरे नजदीक ये सब सच्चे राज-प्रकरण के अविभाज्य अंग हैं। अहमदाबाद में जो मजदूर-संघ पोस्ट-ग्रेजुएट अध्ययन और संशोधन का काफी काम कर सकता है। ये सारी संस्थाएं यह कार्य पर्याप्त मात्रा में नहीं कर सकतीं, क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र मर्यादित है। उदाहरणार्थ, चरखा संघ को लीजिए। उसकी नीति तो मैंने बना दी है। वह नीति यह है कि जो लोग भूखे और गरीब हैं, जिनके पास साल में करीब-करीब छह महीने का वक्त खाली रह जाता है, उनके हाथ में जितना पैसा दे सकें, दें, और दूसरों को समझा-बुझाकर, उनकी पारमार्थिक बुद्धि को जागृत कर इन गरीबों की बनाई हुई खादी खरीदने को उन्हें प्रेरित करें।

लोग चाहे जो कहें, सेवा का कोई संप्रदाय नहीं बन सकता। वह तो सबके लिये है। हम सबको स्वीकार करेंगे। सबके साथ चलने की कोशिश करेंगे। यही अहिंसा का रास्ता है। अगर हमारा कोई वाद है तो वह यही है। गाँधीवाद कोई चीज नहीं। मेरा कोई अनुयायी नहीं है। मैं ही अपना अनुयायी हूँ। नहीं, नहीं मैं भी अपना पूरा-पूरा अनुयायी कहाँ बन पाया हूँ? अपने विचारों पर मैं भी कहाँ अमल करता हूँ? तब दूसरे मेरे अनुयायी कैसे हो सकते हैं?

चरखा संघ वाले, ग्रामोद्योग-संघ वाले, अपने-अपने क्षेत्र के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपके पास आएँगे। आपको ऐसे कामों में सम्पूर्णता और विशेषज्ञता प्राप्त करनी होगी हरेक आदमी सभी बातों का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। लेकिन एक-एक आदमी एक-एक काम का विशेषज्ञ बन सकता है। डॉक्टर में भी कोई डॉक्टर फिजीशियन होते हैं, तो कोई सर्जन होते हैं। सर्जरी में भी कोई आँख के, कोई नाक के, कोई गले के विशेषज्ञ होते हैं। इसी तरह हम एक-एक विभाग संभाल लें। यह पैसा कमाने की बात नहीं है। दूसरे विशेषज्ञ पैसा कमाने के लिये आविष्कार और संशोधन करते हैं। हमें गरीबों की सेवा और उन्नति के लिये विशेषज्ञ बनना है। भविष्य में गाँधी सेवा-संघ यह कार्य करेगा तभी उसका अस्तित्व सार्थक होगा।

आपको सोचना होगा कि क्या दरअसल चरखे से स्वराज्य मिलेगा? क्या दरअसल यह बात आपको जंचती है? या केवल गाँधी कहता है, इसलिये आप उसे मानतें हैं? गाँधी चरखे के द्वारा ईश्वर का दर्शन कर सकता है, या उसमें से स्वराज्य पाने की आशा रखता है, यह उसकी व्यक्तिगत बात भी हो सकती है। आपको इस बात की खोज करनी होगी कि क्या यह सिद्धान्त सार्वत्रिक हो सकता है। जैसे जगदीशचंद्र बसु अपने क्षेत्र में संशोधक थे, वैसे आपको भी बनना होगा। उन्होंने एक पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स भी बनाया। मैंने देखा है कि वे कैसे उसी में जुटे रहते थे। उनके जीवन का वही एक विषय हो गया था। मैं तो उनके साथ बैठने वाला था। रात-दिन कुछ दिनों तक उनके घर में रहा। उनके पास दस-बीस चुने हुए आदमी थे। लेकिन दस-बीस चुने हुए आदमी अगर अपनी धुन के पक्के हों, तो करोड़ों का काम कर लेते हैं। विशारदों का काम तो ऐसा ही होता है। चरखा-संघ, ग्रामोद्योग संघ यह काम नहीं कर सकते। वहाँ भी विशारद हैं, संशोधन भी करते हैं, लेकिन आपका क्षेत्र उनसे भी व्यापक और विशिष्ट होगा। मैं तो उनके द्वारा खासकर दरिद्रनारायण की सेवा करने की कोशिश कर रहा हूँ। उनका विकास उसी दिशा में होगा। लेकिन आपका काम तो अनोखा होगा। आप केवल औजार और उपकरणों में सुधार ही नहीं करेंगे, बल्कि हमारे सिद्धान्तों से उन चीजों का सम्बन्ध भी देखेंगे। मेरी बुद्धि एक सहाध्यायी की बुद्धि के तौर पर आपकी सहायता करेगी, लेकिन विशेष, काम तो आप ही से कराना है।

आपको सोचना होगा कि क्या ये सब चीजें हो सकती हैं? आप देखते हैं कि हिंसा के आधार पर बना हुआ समाज भी विशारदों द्वार ही चलता है। हम एक नए समाज का निर्माण सत्य और अहिंसा के आधार पर करना चाहते हैं। उसका शास्त्र बनाने के लिये हमें विशारदों की जरूरत है। जिस तरह से आज जगत चल रहा है, वह हिंसा और अहिंसा का मिश्रण है। जगत का बाह्य रूप उसकी भीतरी हालत का प्रतीक है। जर्मनी जैसा मुल्क जो हिंसा को ही ईश्वर मानता है, रात-दिन उसी के विकास में लगा है, उसी को सुशोभित करने की कोशिश में लगा हुआ है। हिंसा के पुजारी जो-जो उद्योग कर रहे हैं, हम देख रहे हैं। हमें भी यह समझ लेना चाहिए कि हिंसा वाले हमारी प्रवृत्तियाँ देख रहे हैं। वे देख रहे हैं कि हम अपने शास्त्र के विकास के लिये क्या कर रहे हैं।

लेकिन हिंसा का मार्ग पुराना और रूढ़ है। उसमें खोज करना उतना कठिन नहीं है अहिंसा का रास्ता नया है। अहिंसा का शास्त्र अभी बन रहा है। हम उसके सारे अंग नहीं जानते। इसमें खोज और प्रयोग का विशाल क्षेत्र पड़ा है। आप अपनी सारी बुद्धि लगा सकते हैं। अहिंसा अगर व्यक्तिगत गुण है तो वह मेरे लिये त्याज्य वस्तु है। मेरी अहिंसा की कल्पना व्यापक है। वह करोड़ों की नहीं हो सकती, वह मेरे लिये त्याज्य है, और मेरे साथियों के लिये भी त्याज्य ही होनी चाहिए। हम तो यह सिद्ध करने के लिये पैदा हुए हैं कि सत्य और अहिंसा केवल व्यक्तिगत आचार के नियम नहीं हैं। वह समुदाय, जाति और राष्ट्र की नीति हो सकती है। अभी हमने यह सिद्ध नहीं कर दिया है, लेकिन यह हमारे जीवन का उद्देश्य हो सकता है। जिनका यह विश्वास हो, या जिसे यह न बन सके, वे कृपा करके हट जाएँ। लेकिन मेरा तो यही स्वप्न है। इसी को मैंने अपना कर्तव्य माना है चाहे सारा जगत मुझे छोड़ दे, तो भी मैं इसे नहीं छोड़ूँगा। मेरी श्रद्धा इतनी गहरी है। इसे सिद्ध करने के लिये मैं जीऊँगा और उसी प्रयत्न में मरुँगा। मेरी श्रद्धा मुझे नित्य नया-नया दर्शन कराती है। मेरी उत्तर अवस्था में अब मुझसे इसके सिवा दूसरा कुछ होने वाला नहीं है, हाँ, अगर मेरी बुद्धि ही कलुषित हो जाए या मैं दूसरा कोई नया दर्शन कर लूँ, तो बात दूसरी है। लेकिन आज तो अहिंसा के नित्य नए-नए चमत्कार मैं देखता हूँ। रोज नया दर्शन और नया आनंद मुझे मिलता है।

मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशा के लिये है। वह आत्मा का गुण है, इसलिये वह व्यापक है, क्योंकि आत्मा तो सभी की होती है। अहिंसा सबके लिये है, सब जगहों के लिये है, सब समय के लिये है। अगर वह दरअसल आत्मा का गुण है, तो हमारे लिये वह सहज हो जाना चाहिए।

आज कहा जाता है कि सत्य व्यापार मेें नहीं चलता, राज-प्रकरण में नहीं चलता। तो फिर वह कहाँ चलता है? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रों में और सभी व्यवहारों में नहीं चल सकता, तो वह कौड़ी कीमत की चीज नहीं है। जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा? मैं तो जीवन के हर व्यवहार में उसके उपयोग का नित्य नया दर्शन पाता हूँ। पचास वर्ष से अधिक से साधना कर रहा हूँ। उस साधना का अनुभव अंशतः आप लोगों के सामने रखता हूँ। आप भी उसका दर्शन कर सकते हैं।

यह एक प्रौढ़ बात मैंने आपके सामने रख दी है। अगर वह आपकी शक्ति के बाहर हो, तो आज संघ को बिलकुल खत्म करना ही अच्छा है। जो सत्य और अहिंसा की कसौटी पर खरे उतर सकते हैं, ऐसे सर्वार्पण-बुद्धि की भावना से काम करने वाले विशारद ही इसे बदले हुए रुप में चला सकेंगे।

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