प्रकृति में अत्यंत महत्त्वपूर्ण वनस्पतियों के अलावा कुछ वनस्पतियाँ ऐसी भी हैं, जोकि धीरे-धीरे एक अभिशाप का रूप लेती जा रही हैं बरसात का मौसम शुरू होते ही गाजर के तरह की पत्तियों वाली एक वनस्पति काफी तेजी से बढ़ने और फैलने लगती है। इसे ‘गाजर घास’,‘कांग्रेस घास’ या ‘चटक चाँदनी’ आदि नामों से जाना जाता है। आज सम्पूर्ण संसार में पाँव पसारने को कृतसंकल्प दिखाई दे रहा कम्पोजिटी कुल का यह सदस्य वानस्पतिक जगत में पार्थेंनीयम हिस्ट्रोफोरस के नाम से जाना जाता है। यह वर्तमान में विश्व के सात सर्वाधिक हानिकारक पौधों में से एक है तथा इसे मानव एवं पालतू जानवरों के स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक माना जा रहा है।
भारत में कैसे आयी गाजर घास
अर्जेन्टीना, ब्राजील, मैक्सिकों एवं अमरीका में बहुतायत से पाए जाने वाले इस पौधे का कृषि मंत्रालय और भारतीय वन संरक्षण संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पहले कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है, कि इस घास के बीज 1950 में अमरीकी संकर गेहूँ पी.एल.480 के साथ भारत आए। इसे सर्वप्रथम पूना में देखा गया। आज यह घास देश में लगभग सभी क्षेत्रों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा एवं महाराष्ट्र जैसे महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों के हजारों एकड़ क्षेत्र में यह घास फैल चुकी है। इसे अब राजस्थान, केरल एवं कश्मीर में भी देखा जा सकता है। अहमदाबाद, दिल्ली, पूना, मद्रास, चंडीगढ़ एवं बंगलुरु जैसे शहरों में इसकी भयंकर वृद्धि और इसके प्रभावों की समस्या सामने आ चुकी है।
पर्यावरण के असंतुलन का खतरा
तीन से चार फुट तक लम्बी इस घास का तना धारदार तथा पत्तियाँ कटावदार व आकार में बड़ी होती है। इस पर फूल जल्दी आ जाते हैं तथा यह 6 से 8 महीने तक रहते हैं। इसके फूल सफेद व छोटे होते हैं, जिनके अंदर काले रंग के और वज़न में हल्के बीज होते हैं। जहाँ कहीं भी पानी की थोड़ी भी अधिक मात्रा होती है, वहाँ ये अंकुरित होकर अपने पैर जमा लेती है। प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उत्पन्न होने की क्षमता होने के कारण यह वहाँ भी उग जाती है, जहाँ कि यह प्रायः पाई नहीं जाती है।
गाजर घास के पौधे कम प्रकाश-सुग्राही होते हैं तथा इसकी प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है। गाजर घास के एक पौधे से औसतन 650 अंकुरण योग्य बीज प्राप्त होते हैं। जब यह एक स्थान पर जम जाती है, तो अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को जमने नहीं देती है। जिसके कारण अनेकों महत्त्वपूर्ण जड़ी-बूटियों और चरागाहों के नष्ट हो जानें की सम्भावना पैदा हो गई है। अनेकों स्थानों पर इसने चरागाहों को पूरी तरह ढक लिया है और खाली पड़े मैदान के मैदान अपने चपेट में ले लिये हैं। यदि यह कहा जाए कि वनस्पति जगत में यह घास एक शोषक के रूप में उभर रही है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वनस्पति विज्ञान में इस प्रक्रिया को “एलिलोपैथी” के नाम से जाना जाता है। साथ ही, इसके परागकण वायु को दूषित करते हैं तथा जड़ो से स्रावित रासायनिक पदार्थ ‘इक्यूडेर’ धरती की मिट्टी को दूषित करता है। भूमि-प्रदूषण फैलाने वाला यह पौधा उस मिट्टी की सुरक्षा भी नहीं कर पाता है, जहाँ पर यह उगता है, इसीलिए इसकी पहाड़ो में फैलना बहुत ही हानिकारक है, क्योंकि एक तो स्वयं मिट्टी को बांधता नहीं है, दूसरे इसकी उपस्थिति में अन्य पौधे भी नष्ट हो जाते हैं।
स्वास्थ्य के लिये हानिकारक
इसकी पत्तियों के काले छोटे-छोटे रोमों में पाया जाने वाला रासायनिक पदार्थ ‘पार्थिनम’ मनुष्यों में एलर्जी का मुख्य कारण है। दमा, खाँसी, बुखार व त्वचा के रोगों का कारण भी यही पदार्थ है। गाजर घास के परागकण सांस की बीमारी का भी कारण बनते हैं।
पशुओं के लिये भी यह घास अत्यन्त हानिकारण सिद्ध हो रही है। इसकी हरियाली के प्रति लालायित होकर पशु इसके करीब आते हैं, परन्तु इसकी गंध से निराश होकर लौट जाते हैं। यदा-कदा घास की कमी होने से जो पशु इसे खाते हैं, उनका दूध कड़वा एवं मात्रा में कम हो जाता है।
नियंत्रण के उपाय
आज आवश्यकता इस बात की है, कि विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिक एकत्रित होकर इसे समूल नष्ट करने का कोई ऐसा हल निकालें, जो आर्थिक दृष्टि से भी अनुकूल हो। यदि इसे जड़ से उखाड़कर आग लगा दी जाए, तो शायद किसी सीमा तक इससे छुटकारा मिल सकता है। इसे हाथ से न छुआ जाए। अन्यथा एलर्जी एवं चर्म रोग होने का खतरा हो सकता है। इसके पौधों को जोर से न काटा जाए, अन्यथा इसके बीज और ज्यादा दूर तक फैल सकते हैं।
कैसिया सीरेसिया नामक पौधा भी गाजर घास का नियंत्रण प्रभावी ढंग से करता है। अतः इसके बीजों को उन स्थानों पर बोया जाता है, जो स्थान पार्थेनियम से अत्यधिक प्रभावित हैं। चार माह के कैसिया सीरेसिया के पौधे गाजर घास के पौधों की संख्या 93 प्रतिशत तक कमी कर देते हैं। एक शोध-कार्य के परिणामों के अनुसार यदि गाजर घास के बीजों को कैसिरा सीरेसिया के सम्पूर्ण पौधे के निष्कर्ष से उपचारित किया जाए, तो बीजों के अंकुरण का प्रतिशत 87 प्रतिशत तक कम हो जाता है। तथा बीजांकुर की वृद्धि भी अत्यधिक प्रभावित होती है।
पार्थेनीयम में एलिलोपैथी का गुण होता है जिसके कारण यह अपने आस-पास अन्य पौधों को उगने नहीं देता है। अतः इस दिशा में भी शोध कार्य किया जाना जाहिए कि क्या इसके निष्कर्ष या किसी भाग को शाकनाशी की तरह उपयोग किया जा सकता है।
कपास अनुभाग, आनुवंशिकी संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली-110012.
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