गागर में सिमटते सागर

drinking water
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सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी साफ पेयजल से महरूम है। जबकि कुछ दशक पहले लोग स्थानीय स्रोतों की मदद से ही पीने और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी जुटाते थे। एक दौर आया जब अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे। जब तक संभलते तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। एक बार फिर लोगों को पुराने जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लेकिन पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है। पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है।

बुंदेलखंड, जहां आज सूखे, प्यास और पलायन का हल्ला है, में जलप्रबंधन की कुछ कौतुहलपूर्ण बानगी टीकमगढ़ जिले के तालाबों से उजागर होती है। पहले न तो आज की तरह उपकरण थे और न ही भूगर्भ जलवायु, इंजीनियरिंग आदि के बड़े इंस्टीट्यूट। फिर भी तालाबों को बनाने में यह ध्यान रखा गया कि पानी की एक-एक बूंद इसमें समा सके। इनमें कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) और कमांड (सिंचन क्षेत्र) का वह बेहतरीन अनुपात निर्धारित था कि आज के इंजीनियर भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं। पठारी इलाके का गणित समझकर तब के तालाब शिल्पियों ने उसमें आपसी ‘फीडर चेनल’ की भी व्यवस्था कर रखी थी। इन्हें बांधने के लिए बगैर सीमेंट या चूना के बड़े-बड़े पत्थरों को सीढ़ी की डिजाइन में एक के ऊपर एक जमाया गया था।

एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते, बदले में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था। लोक संस्कृति के अभिन्न अंग तालाब को सरकारी बाबुओं के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।

दरअसल तालाबों की सफाई का काम ज्यादा खर्चीला नहीं है और न ही उसके लिए भारी मशीनों की जरूरत पड़ती है। तालाबों में वर्षों से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थो के कारण गाद भर जाती है, जो उम्दा दरजे की खाद है। रासायनिक खादों का खामियाजा भुगत चुके किसानों का रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है। तो क्यों नहीं खाद रूपी इस कीचड़ की खुदाई का जिम्मा किसानों को सौंपा जाए? उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ में ‘खेतों मे पॉलिश करने’ के नाम से यह प्रयोग सफल रहा है। कर्नाटक में भी समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ। 1944 में ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने निर्देश दिए थे कि संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। पर आजादी के बाद इन तालाबों की दुर्दशा शुरू हो गई। बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया, तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

तालाब सिर्फ प्यास ही नहीं बुझाते, बल्कि अर्थव्यवस्था का मूल आधार होते थे। यदि सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए, तो हर खेत को सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। जरूरी है कि तालाबों के रखरखाव के काम में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए।
 
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