धरती की आबोहवा बदल रही है और भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा खतरे में है। 132 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के नीति-निर्माता और वैज्ञानिक परेशान हैं कि बढ़ती आबादी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के गिरते स्तर के कारण फसलोत्पादन में होने वाली गिरावट को कैसे रोका जाए।
जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी के एक शोध के नतीजों ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। इस शोध के मुताबिक देश के दो तिहाई हिस्से में जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाली समस्याओं का सामना करने की क्षमता नहीं है। शोधकर्ताओं के अनुसार, देश की 22 नदी घाटियों में से केवल छह में पारिस्थितिकी तंत्रा में जलवायु परिवर्तन, खास तौर पर सूखे का सामना करने की क्षमता बची है।
शोधकर्ताओं ने ‘हाई रेजाॅल्यूशन रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट डेटा’ का उपयोग करके भारत की 22 प्रमुख नदी घाटियों के पारिस्थितिक तंत्रों के लचीलेपन का मानचित्र तैयार किया है। इस प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्र की भूमि, वहां की नदी घाटियों और वहां की जलवायु सहित विभिन्न कारकों के जरिए पानी का दबाव सहन करने की क्षमता को मापा गया है। अध्ययन में नासा के माॅडरेट-रेजाॅल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (एमओडीआईएस) से प्राप्त पादप उत्पादकता और वाष्पोत्सर्जन के आंकड़ों सहित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के वर्षा सबंधी आंकड़ों के आधार पर भी निष्कर्ष निकाले गए हैं। पारिस्थितिकीय तंत्र के बायोमास (कार्बनिक पदार्थ जिनसे ऊर्जा पैदा हो सकती है) उत्पादन की क्षमता का आकलन करने के लिए वैज्ञानिकों ने यह प्रक्रिया अपनायी है।
आईआईटी-गुवाहाटी के वैज्ञानिक डाॅ. मनीष गोयल के मुताबिक,
‘तापमान बढ़ने से पेड़-पौधों द्वारा बायोमास उत्पादन करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है। और सूखे जैसी पर्यावरणीय समस्याओं से लड़ने की परितंत्राकी क्षमता कमजोर हो जाती है। देश के जिन हिस्सों के पारिस्थितिक तंत्रा की क्षमता जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने के लिहाज से कमजोर पायी गई है, वहां इसका सीधा असर खाद्यान्नों के उत्पादन पर पड़ सकता है। भारत जैसे सवा अरब की आबादी वाले देश की खाद्य सुरक्षा के लिए यह स्थिति खतरनाक साबित हो सकती है।’
शोधकर्ताओं के अनुसार, 22 में से जिन छह नदी घाटियों के पारिस्थितिकी तंत्र में सूखे को सहन करने की क्षमता पाई गई है, उनमें ब्रह्मपुत्रा, सिंधु, पेन्नार, लूनी, कच्छ एवं सौराष्ट्र की पश्चिम में बहने वाली नदियां कृष्णा और कावेरी के बीच स्थित पूर्व की ओर बहने वाली नदियां शामिल हैं। गंगा के किनारे के सबसे ज्यादा आबादी वाले वे इलाके जो खेती के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, जलवायु परिवर्तन के लिहाज से बेहद कमजोर हैं। पश्चिमी घाट और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में जंगलों को जलवायु परिवर्तन के लिहाज से कमजोर पाया गया है। पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन उसकी बायोमास उत्पादन की क्षमता पर निर्भर होता है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर पेड़-पौधों द्वारा बायोमास उत्पादन करने की क्षमता कम होती है तो इससे पारिस्थितिकीय तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है और उसकी सूखे जैसी समस्याओं से लड़ने की क्षमता कमजोर हो जाती है। दुनिया भर में हर किसी का पेट भरने के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन होता है, फिर भी 81.5 करोड़ लोग भूखे रहते हैं। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन आपकी भोजन की थाली को प्रभावित कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के अनुमान के मुताबिक विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब हो जाएगी, जिसकी भूख मिटाने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी करनी होगी। एफएओ के अनुसार भविष्य में पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराना विश्व की प्रमुख चुनौतियों में से एक होगी।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान ने भी तापमान, वर्षा, गर्मी तरंगों, ग्लेशियरों, सूखा, बाढ़ और समुद्र के स्तर में वृद्धि के लिए एक समान प्रवृत्ति का अनुमान लगाया है। वैज्ञानिकों के अनुसार दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सतह पर हवा का तापमान वर्ष 2020 तक बढ़कर 0.5-1.2 डिग्री सेल्सियस, वर्ष 2050 तक 0.88-3.16 डिग्री सेल्सियस और वर्ष 2080 तक 1.56-5.44 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। तापमान और वर्षा में हो रही वृद्धि के कारण भविष्य में भूमि और पानी की व्यवस्था में बदलाव होने की आशंका व्यक्त की जा रही है, जो कृषि उत्पादकता के लिए बेहद महत्वपूर्ण घटक माने जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, तापमान बढ़ने से वर्ष 2080-2100 तक फसल उत्पादन में 10-40 प्रतिशत गिरावट होने का अनुमान है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अनुसार वर्ष 2010-2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्यान्न उत्पादन में 4.5-9.0 प्रतिशत तक कमी हो सकती है। वर्ष 2020-2030 के दौरान तापमान में प्रति एक डिग्री की बढ़ोतरी होने से 40-50 लाख टन गेहूं उत्पादन कम हो सकता है।
ऐसे में हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के किसान सेब की खेती छोड़ रहे हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। सेब ठंडी जलवायु की फसल है और तापमान बढ़ने के कारण अब हिमाचल के किसान कम ठंडी जलवायु में उगाए जाने वाले अनार, कीवी, टमाटर, मटर, फूलगोभी, बंदगोभी, ब्रोकली जैसे फल और सब्जियों की खेती करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। तापमान बढ़ने से सेब उत्पादन में गिरावट होने के कारण किसानों को यह कदम उठाना पड़ रहा है। निचले एवं मध्यम ऊंचाई (1200.1800 मीटर) वाले पहाड़ी क्षेत्रों, जैसे- कुल्लू, शिमला और मंडी में यह चलन कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। हिमाचल के शुष्क इलाकों में बढ़ते तापमान और जल्दी बर्फ पिघलने के कारण सेब उत्पादन क्षेत्र 2200-2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किन्नौर जैसे इलाकों की ओर स्थानांतरित हो रहा है।
समुद्र तल से 1500-2500 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय शृंखला के सेब उत्पादक क्षेत्रों में बेहतर गुणवत्ता वाले सेब की पैदावार के लिए वर्ष में 1000-1600 घंटों की ठंडक होनी चाहिए। लेकिन इन इलाकों में बढ़ते तापमान और अनियमित बर्फबारी के कारण सेब उत्पादक क्षेत्र अब ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर खिसक रहा है। सर्दियों में तापमान बढ़ने से सेब के उत्पादन के लिए आवश्यक ठंडक की अवधि कम हो रही है। कुल्लू क्षेत्र में ठंडक के घंटों में 6.385 यूनिट प्रतिवर्ष की दर से गिरावट हो रही है। इस तरह पिछले तीस वर्षों के दौरान ठंडक वाले कुल 740.8 घंटे कम हुए हैं। इसका सीधा असर सेब के आकार, उत्पादन और गुणवत्ता पर पड़ता है।
दुनिया भर में कृषि तंत्रा पहले ही खेती में अधिक संसाधनों का उपयोग किए जाने के दबाव से जूझ रहा है। बढ़ती आबादी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय स्तर में गिरावट को इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी पांचवी रिपोर्ट में बदलते जलवायु चक्र के बारे में चेतावनी देते हुए कहा है कि इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान वर्ष 1990 के मुकाबले 1.4-5.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। जलवायु में बदलाव की आवृत्ति और उसकी सघनता के कारण अनियमित मानसून, बाढ़, तूफान एवं ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम बढ़ सकता है।
आईपीसीसी के अनुसार तापमान में बढ़ोत्तरी और बाढ़ तथा सूखे की बढ़ती आवृत्ति के कारण फसलों, मत्स्य तथा वानिकी उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण चावल उत्पादन 35 प्रतिशत, गेहूं 20 प्रतिशत, ज्वार 50 प्रतिशत, जई 13 प्रतिशत और मक्के का उत्पादन 60 प्रतिशत तक कम हो सकता है। भारत में विश्व की करीब एक चैथाई अल्प-पोषित आबादी रहती है और वर्ष 2017 के 119 देशों के वैश्विक हंगर इंडेक्स में हमारा देश 100वें स्थान पर है। कृषि एवं प्राकृतिक संसाधनों पर 50 प्रतिशत से अधिक आबादी की निर्भरता और अनुकूलन रणनीतियों के अभाव के कारण भारत जलवायु परिवर्तन के खतरे के प्रति अधिक संवेदनशील माना जा रहा है।
सूखे और ग्रीष्म लहर की दोहरी मार एक साथ पड़ने से स्थिति अधिक गंभीर हो सकती है। बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने मौसम विभाग के 1951 से 2010 तक साठ वर्षों के आंकड़ों, ग्रीष्म लहर तीव्रता सूचकांक और वर्षा सूचकांक से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर पाया गया है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में सूखे और ग्रीष्म लहर की घटनाएं एक साथ मिलकर दोहरी चुनौती दे रही हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार देश भर में एक ही समय में सूखे और ग्रीष्म लहर की घटनाएं न केवल बढ़ रही हैं, बल्कि उनका दायरा भी लगातार बढ़ रहा है।
भारतीय विज्ञान संस्थान से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रोफेसर पी.पी. मजूमदार के अनुसार,
‘सूखे की स्थिति के लिए आमतौर पर कम वर्षा को जिम्मेदार माना जाता है, पर ग्रीष्म लहरों का प्रकोप और बरसात में गिरावट समेत दोनों घटनाएं एक ही समय में हो रही हों तो इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। वर्ष 1951 से 2010 तक साठ वर्षों के आंकड़ों का अध्ययन करने पर हमने पाया कि एक ही समय में होने वाली सूखे एवं ग्रीष्म लहर की घटनाओं की आवृत्ति और उनका दायरा लगातार बढ़ रहा है। इसका प्रभाव अधिक होने के कारण दोहरी मार झेलनी पड़ती है।’
वैज्ञानिकों के अनुसार, राजस्थान एवं गुजरात समेत देश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों, पूर्वोत्तर, पश्चिमी घाट एवं पूर्वी घाट के कई हिस्सों में ग्रीष्म लहर की घटनाओं में बढ़ोतरी स्पष्ट रूप से देखी जा रही है। पूर्वी घाट, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत पश्चिमी-मध्य भारत के कई इलाकों में ग्रीष्म लहर की आवृत्ति में भी वृद्धि देखी गई है। इसी के साथ सूखे से प्रभावित क्षेत्र का दायरा भी बढ़ रहा है। वर्ष 1951 से वर्ष 2010 के बीच पूर्वोत्तर भारत के मध्य क्षेत्र और देश के पश्चिमी-मध्य हिस्से में सूखे से प्रभावित क्षेत्रों की सीमा का विस्तार हुआ है।
जलवायु परिवर्तन का असर पशुपालकों पर भी पड़ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि तापमान बढ़ने से गाय के दूध में 40 प्रतिशत और भैंस के दूध में 5.10 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की जा सकती है। समुद्री पारिस्थितिक तंत्र भी इससे अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के भीतर प्रवाल भित्तियां रंगहीन हो रही हैं, जिसके कारण समुद्र आधारित खाद्य शृंखला और मछुआरों की आजीविका खतरे में पड़ सकती है। तमिलनाडु के तुतीकोरिन स्थित सुगंती देवदासन समुद्री अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक महाराष्ट्र के सिंधदुर्ग जिले में स्थित मालवन समुद्री अभयारण्य की प्रवाल प्रजातियों के रंगहीन होने की प्रक्रिया का अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
सुगंती देवदासन समुद्री अनुसंधान संस्थान, तुतीकोरिन, तमिलनाडु के वरिष्ठ वैज्ञानिक डाॅ के. दिराविया राज के अनुसार,
‘जलवायु परिवर्तन का असर समुद्री प्रवाल भित्तियों पर भी पड़ रहा है और वे रंगहीन हो रही हैं। ऐसी स्थिति में प्रवाल रोगों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं और उनकी मृत्यु दर बढ़ सकती है। इस कारण समुद्री खाद्य शृंखला और उस पर आश्रित मछुआरों की आजीविका प्रभावित हो सकती है। इसलिए समय रहते तापमान को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारकों को नियंत्रित करने के लिए वैश्विक पहल और नीतिगत सुधार की जरूरत है। प्रवालों के पुनर्जीवन के लिए मानव जनित खतरों को कम करना भी जरूरी है।’
एफएओ के अनुसार कृषि को ‘क्लाइमेट स्मार्ट’ बनाना ही एकमात्रा समाधान हो सकता है। ‘क्लाइमेट स्मार्ट’ कृषि एक समन्वित दृष्टिकोण पर आधारित है, जिसमें कृषि उत्पादन एवं आय में बढ़ोतरी, जलवायु अनुकूलन और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना शामिल है। खाद्य सुरक्षा सिर्फ भोजन की उपलब्धता भर नहीं है, बल्कि इसमें कुपोषण के विभिन्न प्रकार, उत्पादकता, खाद्य उत्पादकों की आय, खाद्य उत्पादन प्रणालियों के लचीलेपन, जैवविविधता और आनुवंशिक संसाधनों के स्थायी उपयोग के लिए समग्र दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। दो एकड़ से कम भूमि वाले छोटे काश्तकारों के समूह पर विशेष रूप से ध्यान दिए जाने की जरूरत है, जो देश के 80 प्रतिशत से अधिक किसानों का प्रतिनिधित्व करता है। किसानों का यह समूह देश की कुल कृषि भूमि के करीब 44 प्रतिशत हिस्से पर खेती करता है और कुल कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान इन्हीं छोटी जोत वाले किसानों का है। जलवायु परिवर्तन के झटकों को झेलने के लिए सामुदायिक कार्यक्रमों के जरिए स्थानीय लोगों को अनुकूलन गतिविधियों से जोड़े जाने की जरूरत है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचा, बिना पशुपालन, वानिकी और मत्स्य पालन समेत पूरे कृषि तंत्र को कुछ इस तरह रूपांतरित करने की जरूरत है, जिससे बढ़ती आबादी की भोजन जरूरतें पूरी हो सकें और किसानों की आजीविका भी बनी रहे।
आईआईटी, इंदौर से जुड़े वैज्ञानिक डाॅ. मनीष कुमार के अनुसार,
‘जलवायु अनुकूलन के लिए जन-भागीदारी जरूरी है। समुदाय की जरूरतों के बारे में समझ की कमी, अनुकूलन रणनीतियों को समझने एवं अपनाने में समुदाय की अक्षमता और धन के अभाव के कारण जलवायु अनुकूलन से जुड़ी रणनीतियां अक्सर कारगर नहीं हो पातीं। चरम स्थितियों में ही नहीं, बल्कि जल सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी स्थानीय समुदायों को सक्षम होना होगा। भू-जल विज्ञानियों, सरकारी एजेंसियों और स्थानीय समुदाय के बीच तालमेल बढ़ाने से लाभ हो सकता है और प्रभावी रणनीति तैयार करने में मदद मिल सकती है।’
खाद्यान्न सुरक्षा को बनाए रखने के लिए वैज्ञानिकों के सुझाव अलग-अलग हैं। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर के पूर्व निदेशक डाॅ. एम.एम. राॅय के अनुसार,
‘जलवायु परिवर्तन के दौर में ऐसी तकनीकें विकसित किए जाने की आवश्यकता है, जो न केवल बेहतर कृषि उत्पादन दें, बल्कि लोगों की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को भी सुनिश्चित करें। शुष्क क्षेत्रों में टिकाऊ कृषि सुनिश्चित करने के लिए गर्मी के प्रति सहिष्णु किस्मों के विकास के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन, किसानों की टिकाऊ आजीविका के लिए उनको कृषि प्रणाली में फल, वानिकी पौधे और विभिन्न घासों समेत बारह मासी घटक शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करने से लाभ हो सकता है।’
सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम ने इस क्षेत्र में उदाहरण पेश किया है। मौसम के बदलते पैटर्न को वहां गंभीरता से समझा गया है और स्थानीय लोगों की आजीविका तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित रखने के लिए वैकल्पिक फसलों की खेती की जा रही है। ड्रैगन फ्रूट आमतौर पर थाईलैंड में पैदा होता है। मिजोरम का तापमान बढ़ा तो थाईलैंड से ड्रैगन फ्रूट के बीज लाकर वहां इसकी पैदावार शुरू की गई है। कुछ ही सालों में इसके बेहतर परिणाम मिले हैं, किसानों को ज्यादा आमदनी हो रही है, मिजोरम का बदला मौसम अब ड्रैगन फ्रूट की पैदावार के अनुकूल हो सकता है। इसी प्रकार की संभावनाएं हमें पंजाब व दूसरे राज्यों में भी तलाशनी होंगी। पंजाब जैसे राज्य सिर्फ गेहूं और चावल की खेती पर ही निर्भर रहे, भविष्य के लिए इसे बेहतर संकेत नहीं कहा जा सकता।
श्री उमाशंकर मिश्र इंडिया साइंस वायर, विज्ञान प्रसार सी-24, कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया नई दिल्ली 110 016 ई-मेल: umashankarm2@gmail.com
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