एटमी ऊर्जा व्यापार या विरोध

फुकुशीमा दुर्घटना के बाद जर्मनी ने घोषणा की कि सन 2022 तक देश के सारे न्यूक्लियर रिएक्टर बन्द कर दिए जाएंगे। जर्मन कम्पनी सीमैंस ने कहा है कि हम एटमी ऊर्जा की तकनीक का कारोबार खत्म कर रहे हैं। सवाल रोचक है कि जर्मनी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को कैसे पूरा करेगा। एक तरफ तो जर्मनी एटमी ऊर्जा का विरोधी और अक्षय ऊर्जा का समर्थक बन रहा है वहीं दूसरी तरह एक जर्मन नागरिक जोनटेग रेनर हर्मन भारत से निकाला जाता है, और इस पर पूरे जर्मनी में चुप्पी, सचमुच हैरान करती है।

जर्मनी को अक्षय ऊर्जा का सबसे बड़ा संरक्षक और मसीहा मानने वाले पर्यावरणविदों को भरोसा नहीं होता कि इस देश के दो चेहरे हैं। एक वह चेहरा, जो प्राकृतिक ऊर्जा के लिए अभियान चला रहा है, और दूसरा वह चेहरा, जो दुनियाभर में परमाणु तकनीक व उपकरण बेच रहा है। आज की तारीख में ईरान पर प्रतिबंध लगाने में सबसे आगे रहे जर्मनी से कोई नहीं पूछता कि बुशेर नाभिकीय परियोजना में उसकी सीमेंस कंपनी क्या कर रही थी?

फुकुशिमा की बरसी के बावजूद दुनिया में परमाणु ऊर्जा प्लांट लगाने में कमी नहीं आयी है। यूरेनियम बेचने वाली कनाडा की कंपनी का आकलन है कि 2020 तक 90 और परमाणु रिएक्टर लग जायेंगे। एक जर्मन नागरिक जोनटेग रेनर हर्मन भारत से निकाला जाता है, और इस पर पूरे जर्मनी में चुप्पी, सचमुच हैरान करती है। हर्मन पर आरोप है कि वह दक्षिण भारत के कुडनकुलम परमाणु परियोजना के विरोध में लोगों को उकसा रहा था। कुडनकुलम परमाणु परियोजना के विरोधियों का नेतृत्व करने वाले उदय तपमार से रेनर हर्मन काफी करीब रहा था और उसके लिए एनजीओ के माध्यम से धन भी जुटा रहा था।दुनिया में कहीं भी किसी अमेरिकी, ब्रिटिश या जर्मन नागरिक के साथ कुछ गलत हो जाता है, तो ये देश बवाल काट देते हैं। क्या स्वयं जर्मन सरकार यह चाहती थी कि परमाणु विरोधी इस प्राणी को भारत से जर्मनी वापस भेज दिया जाये?नगुजिश्ता 11 मार्च को जापान के फुकुशिमा में तबाही की बरसी थी। भूकंप, सुनामी और बाढ़ से हुई तबाही ने फुकुशिमा के परमाणु संयंत्रों को भी नहीं बख्शा था। 300 लोगों के बारे में पक्की खबर है कि फुकुशिमा परमाणु संयंत्रों में विकिरण के कारण वे कैंसर की चपेट में हैं। फुकुशिमा में विनाश को अब इस बहस में बदलने की कोशिश हो रही है कि परमाणु बिजली का कोई और विकल्प ढूंढने में हम पीछे क्यों रह गये।

31 दिसंबर 2010 को वियेना स्थित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण (आइएइए) ने अपनी रिपोर्ट में उन देशों के बारे में जानकारी दी थी, जिनकी निर्भरता नाभिकीय बिजली पर है। तब भी नंबर एक पर फ्रांस था, जो 51.8 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहा था। परमाणु विकिरण से सबसे अधिक प्रभावित रहने वाला जापान 29.2 प्रतिशत नाभिकीय बिजली का इस्तेमाल कर रहा है। जर्मनी, जिसकी राजनीतिक रगों में एटमी ऊर्जा से मुक्ति की छटपटाहट उभरती रही है, में भी 28.4 प्रतिशत परमाणु बिजली का इस्तेमाल हो रहा है। दुनिया को दिखाने के लिए जर्मनी ने संकल्प किया है कि 2022 तक अपने बचे हुए परमाणु संयंत्रों को बंद कर देगा। लेकिन इस बात का जर्मनी के पास जवाब नहीं, कि वह क्यों फ्रांस जैसे देश से एटमी ऊर्जा खरीद रहा है? भारत, चीन और पाकिस्तान से कहीं अधिक 2.9 प्रतिशत एटमी बिजली अपने काम ला रहा है। चीन अपने 11 रिएक्टरों से 1.8 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा का पैदा कर रहा है, फिर भी वह एटमी ऊर्जा के उपयोग के मामले में सबसे निचले पायदान पर है।

इस समय पूरी दुनिया के 32 देशों में 436 परमाणु ऊर्जा संयंत्र बिजली पैदा कर रहे हैं। आइएइए के अनुसार, इस समय 36 परमाणु ऊर्जा प्लांट लगाये जा रहे हैं। आइएइए का आकलन है कि आने वाले दिनों में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा संयंत्र एशिया में लगेंगे। ऊर्जा की तेज होती जरूरतों को परमाणु प्लांट के लिए लॉबी करने वालों ने ठीक से पहचाना है। ये वही लोग हैं, जिन्होंने पर्यावरण संतुलन बिगाड़ने वाले ग्रीन हाउस गैस के खिलाफ पूरी दुनिया में माहौल बनाया था। कोयले से बिजली पैदा करने वाले चीन पर कार्बन टैक्स लगा भी, तो इन्हीं के कारण। अब यह लॉबी इस प्रचार में लगी है कि परमाणु ऊर्जा से प्रदूषण नहीं फैलता, इससे ओजोन सुरक्षित है। परमाणु बिजली उत्पादन के लिहाज से सस्ती हो सकती है। लेकिन एक सच यह भी है कि नाभिकीय संयंत्र लगाना सस्ता सौदा नहीं है। संयंत्र बंद करना, और परमाणु कचरे का निष्पादन और भी महंगी व मुसीबत वाली प्रक्रिया है।

दो-एक साल पहले जर्मनी, ब्रिटेन ने सरकारी सर्वे से पता लगाया था कि जहां-जहां एटमी ऊर्जा के संयंत्र लगे हैं, वहां बच्चों में कैंसर का विस्तार हो रहा है। शातिर परमाणु समर्थक लॉबी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। परमाणु समर्थक लॉबी ने 2001 से ही न्यूक्लियर रेनेसां (नाभिकीय नवजागरण) जैसे शब्द का इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया था। आज हालत यह है कि फुकुशिमा की बरसी के बावजूद दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा प्लांट लगाने में कोई कमी नहीं आयी है। दुनिया में सबसे अधिक यूरेनियम बेचने वाली कनाडा की कंपनी ’कामेको‘ का आकलन है कि 2020 तक 90 और परमाणु रिएक्टर लगा लिये जायेंगे। चीन में इस समय 20 नयी परमाणु भट्ठियां निर्माणाधीन हैं। परमाणु बिजली के लिए दक्षिण कोरिया, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार जैसे मुल्क भविष्य के बड़े बाजार हैं। इस बाजार पर जर्मनी, अमेरिका और रूस नजरें गड़ाये बैठे हैं।

जर्मनी को अक्षय ऊर्जा का सबसे बड़ा संरक्षक और मसीहा मानने वाले पर्यावरणविदों को भरोसा नहीं होता कि इस देश के दो चेहरे हैं। एक वह चेहरा, जो प्राकृतिक ऊर्जा के लिए अभियान चला रहा है, और दूसरा वह चेहरा, जो दुनियाभर में परमाणु तकनीक व उपकरण बेच रहा है। आज की तारीख में ईरान पर प्रतिबंध लगाने में सबसे आगे रहे जर्मनी से कोई नहीं पूछता कि बुशेर नाभिकीय परियोजना में उसकी सीमेंस कंपनी क्या कर रही थी? जर्मनी की सीमेंस कंपनी परमाणु प्लांट लगाने वाली दुनिया की अग्रणी कंपनियों में गिनी जाती है। इस साल 20-22 जून को ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में पृथ्वी को बचाने के लिए सम्मेलन होगा। इसी रियो के दक्षिणी हिस्से में अंगारा नामक तटवर्ती इलाका इन दिनों सुर्खियों में है। वहां परमाणु ऊर्जा प्लांट बनाने के लिए जर्मनी ने 1.3 अरब यूरो की क्रेडिट गारंटी को स्वीकृत किया है। इसके ठीक उलट जर्मनी की ही एक पर्यावरण संस्था ’उरगेवाल्ड‘ और ब्राजील के कुछ विशेषज्ञों ने बताया है कि अंगारा में परमाणु प्लांट लगाना खतरनाक है। इसका हश्र फुकुशिमा जैसा हो सकता है।

इसी तरह जर्मनी बाल्टिक सागर के बंदरगाह शहर कालिनिनग्राद में परमाणु संयंत्र लगाने में मदद कर रहा है। जर्मनी ऐसा इसलिए कर रहा है, ताकि बाहर के एटमी संयंत्रों से वह बिजली ले सके, और उसकी जनता सुरक्षित रहे। क्या यह ’डबल स्टैंडर्ड‘ नहीं है?

(लेखक ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली स्थित संपादक हैं)

Path Alias

/articles/etamai-urajaa-vayaapaara-yaa-vairaodha

Post By: Hindi
×