वास्को-द-गामा (गोवा) : भारतीय वैज्ञानिकों ने मुम्बई में खुदरा दुकानों में बेची जाने वाली समुद्री मछलियों में अत्यधिक मात्रा में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति का पता लगाया है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इन सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी वाली मछलियों के सेवन से एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति मनुष्यों में भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है।
समुद्री मछलियों में मिले एंटीबायोटिक प्रतिरोधी सूक्ष्मजीवों की विविधता का मेटाजीनोमिक विश्लेषण करने के बाद मुम्बई विश्वविद्यालय और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं। इन सूक्ष्मजीवों में प्रमुख एंटीबायोटिक दवाओं, जैसे- ट्रिमइथोप्रिम, केनामाइसिन, डॉक्सीसाइक्लिन, सीप्रोफ्लॉक्सासिन, सेफोटैक्ज़िम और राइफैम्पिसिन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है।
मुम्बई विश्वविद्यालय के जैव-प्रौद्योगिकी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. अर्चना रथ ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “मुम्बई में समुद्री मछलियाँ एंटीबायोटिक प्रतिरोधी रोगजनकों का एक सम्भावित वाहक बन रही हैं। ये रोगजनक मछलियों जैसे समुद्री खाद्य उत्पादों के जरिये मनुष्य की आहारनली में प्रवेश कर सकते हैं। इससे मनुष्यों में भी एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध में वृद्धि हो सकती है।” अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह शोध भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जिसमें समुद्री मछलियों के सेवन से मनुष्यों में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी रोगजनकों के प्रसार के प्रत्यक्ष प्रमाण मिले हैं।
अलग-अलग मौसम में मुम्बई की खुदरा दुकानों में सर्वाधिक मात्रा में बेची जाने वाली पाँच लोकप्रिय समुद्री मछलियों मकरेल (रास्ट्रेलीगर कनागुर्ता), सौंडाला (लैक्टैरियस लैक्टैरियस), इंडियन ऑयल सार्डिना (सार्डिनेला लांगीसेप्स), मण्डेली या गोल्डस्पॉट ग्रेनेडीयर एन्कोवी (कॉइलिया ड्यूस्यूमेरी) और क्रोकर या लम्बे दाँतों वाली सैल्मन (ओटोलिथस अर्जेन्टियस) को अध्ययन में शामिल किया गया था।
इन मछलियों में सम्भावित एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणु जातियों एंटीरोबेक्येरिएसी, स्ट्रैफिलोकोकेसी, एन्टीरोकोकेसी और एरोमोनाडैसी के एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जैसे- प्रोविडेंसिया, स्टैफिलोकोकस, क्लेबसिएला न्यूमोनी, एंटीरोबैक्टर, वागोकोकास, एरोमोनास वरोनी, शेवेनेला और एसिनेटोबैक्टर के जीन प्रोफाइल का विश्लेषण किया गया है। अध्ययनकर्ताओं ने रोगजनकों में मौजूद एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन्स की पहचान की है।
इसके साथ-साथ वैज्ञानिकों ने संवर्धन द्वारा एंटीबायोटिक प्रतिरोधी सूक्ष्मजीवों की पहचान कर उनकी एंटीबायोटिक संवेदनशीलता का भी परीक्षण किया है। इसमें एक अत्यधिक महत्वपूर्ण बात यह उभरकर सामने आई है कि जीवाणु अपने एंटीबायोटिक प्रतिरोधी लक्षणों को अन्य गैर-रोगजनक सूक्ष्मजीवों में स्थानान्तरित करने में भी सक्षम हो रहे हैं। इससे वे भविष्य में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन भंडारक के रूप में कार्य करते हुए इन जीनों को पर्यावरण में फैला सकते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध की समस्या भारी धातुओं, कीटनाशकों, एनेस्थेटिक्स, दूषण-रोधी जैवनाशकों, खाद्य योजकों और कीटाणुनाशकों जैसे रसायनों एवं प्रदूषकों के प्रतिरोध से भी जुड़ी हो सकती है। सही तरीके से निपटान नहीं होने के कारण जलस्रोतों में इनकी मौजूदगी पायी जाती है और अंततः ये समुद्र में पहुँचकर वहाँ खाद्य श्रृंखला से जुड़ जाते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार “ऐसे पर्यावरणीय मानदंडों की समीक्षा जरूरी है, जो इन प्रदूषकों के कारण जीवाणुओं में एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।” यह अध्ययन समुद्र तटीय क्षेत्रों में मानव-जनित गतिविधियों जैसे- घरेलू, औद्योगिक और कृषि से होने वाले समुद्री प्रदूषण के प्रभाव पर भी जोर देता है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना यह भी है कि “समुद्री भोजन में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी रोगजनकों की अत्यधिक वृद्धि व मनुष्यों में इनके बढ़ते प्रसार को देखते हुए एंटीबायोटिक दवाओं के अनियमित उपयोग पर नियंत्रण तथा आवश्यक नवीन स्वास्थ्य नीतियाँ व कानून तैयार करने में मदद मिल सकती है।”
यह शोध एनवायरनमेंटल साइंस एंड पॉल्यूशन रिसर्च जर्नल में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं की टीम में डॉ. अर्चना रथ के अलावा ओंकार ए. नाईक, रवींद्रनाथ शशिधर, देवाशीष रथ एवं जयंत आर. बांदेकर शामिल थे।
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