वैज्ञानिकों का सुझाव यह है कि हाईजीन यानी स्वच्छता को एक हथियार के रूप में अपनाया जाए। लोग संक्रमणों को लेकर जागरूक बनें, हाथ धोने को लेकर संजीदा हों और सिर्फ बस, दफ्तर, अस्पताल में ही नहीं, खाना बनाते समय अपने किचन में और कहीं भी खाना खाते समय साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखें। जब इंफेक्शन ही नहीं पैदा होगा तो एंटीबायोटिक लेने की नौबत नहीं आएगी।
दो साल पहले देश में एक नए सुपर बग ‘एनडीएम-1’ से जुड़ी कई खबरें आई थीं। यह खुलासा हुआ था कि एनडीएम-1 नामक बैक्टीरिया (माइक्रोऑर्गेनिज्म) ने अपने भीतर एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर ली है। जब हमें बीमार बनाने वाले किसी बैक्टीरिया पर सभी उपलब्ध एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर साबित होने लगें तो ऐसे जीवाणु को डॉक्टर और वैज्ञानिक सुपर बग की कोटि में रखते हैं। ‘एनडीएम-1’ के मामले से यह भी साफ हुआ था कि दुनिया में एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर साबित होने लगी हैं। पर इधर हाल में उत्तर भारत में जब वायलर बुखार और डेंगु के सैकड़ों-हजारों मामले सामने आए तो एक बार फिर डॉक्टरों ने एंटीबायोटिक दवाओं का जमकर इस्तेमाल किया। वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी वायरस के तेज प्रसार की समस्या का एक छोर दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं के आंख मूंद कर इस्तेमाल से जुड़ा है।खतरा सिर्फ एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने का ही नहीं है बल्कि ज्यादा बड़ी चुनौती इनके उलटे असर की है यानी लाभ के बजाय ये दवाएं नुकसान पहुंचाने लगी हैं। इसलिए यह सवाल उठने लगा है कि मॉर्डन मेडिसिन का आधार कही जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं का दौर वास्तव में खत्म हो गया है और क्या अब इनसे छुटकारा पाना ही उचित होगा। आधुनिक चिकित्सा मानी जाने वाली एलोपैथी में एंटीबायोटिक दवाओं का अतीत सौ साल से ज्यादा पुराना नहीं है। 1928 में स्कॉटिश साइंटिस्ट अलेक्जेंडर लैमिंग ने सिफलिस जैसे इंफेक्शन को खत्म करने वाले एंटीबायोटिक पेंसिलिन की खोज के साथ लोगों का ध्यान एंटीबायोटिक दवाओं की तरफ गया था। इसके काफी बाद 1942 में जब अमेरिकन माइक्रोबायोलॉजिस्ट सेल्मैन वाक्समैन ने उन पदार्थों को, जो बैक्टीरिया मारते हैं और उनकी बढ़वार रोकते हैं, एंटीबायोटिक नाम दिया, तब इन्हें डॉक्टर अपने नुस्खे में बाकायदा सुझाने लगे थे।
उस समय ये दवाएं किसी चमत्कार से कम नहीं मानी गईं। क्योंकि ऑपरेशन टेबल पर पड़े कई मरीज सफल ऑपरेशन के बावजूद सिर्फ इसलिए मर जाते थे कि इस दौरान उन्हें कोई इन्फेक्शन हो जाता था। ऐसे इंफेक्शन पर काबू पाने का कोई कारगर तरीका तब आधुनिक चिकित्सा के पास नहीं था। एंटीबायोटिक्स ने ऐसे इंफेक्शनों से निपटने का तरीका सुझाया। लेकिन तब से दुनिया काफी आगे निकल आई है। पर इसी बीच पूरी दुनिया में यह प्रचलन भी बड़ी तेजी से बढ़ा है कि डॉक्टर अपने आले से ज्यादा भरोसा एंटीबायोटिक्स पर करने लगे हैं। शायद यही वजह है कि बीमारियों के बैक्टीरिया भी इन दवाओं के खिलाफ ज्यादा ताकतवर हुए हैं। दवाओं के खिलाफ इंफेक्शनों के बैक्टीरिया के ताकतवर होते जाने के कुछ कारण तो साफ दिखाई देते हैं। पहली वजह डॉक्टरों द्वारा इनके अंधाधुंध इस्तेमाल की है। यह कुछ डॉक्टर की सीमित जानकारी की वजह से हो सकता है। ऐसे इसलिए भी हो सकता है कि वे कुछ फार्मा कंपनियों के प्रलोभन के दबाव में कई बार नए, मंहगे और ज्यादा ताकत वाले एंटीबायोटिक अपने मरीजों को सुझाते हैं।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर किसी मरीज की बीमारी की सही जांच हुए बगैर कोई डॉक्टर 48 घंटे तक उसे एंटीबायोटिक दवाएं देता है तो यह बेहद खतरनाक बात है क्योंकि इसमें बीमारी का पता ही नहीं है। थॉमस हुसलर ने अपनी किताब ‘वायरसेज वर्सेस सुपरबग्स’ में आंकड़ा दिया है कि 2005 में अमेरिका में 20 लाख लोग इंफेक्शनों की चपेट में आए, जिनमें से 90 हजार की मौत हो गई। यह एंटीबायोटिक दवाओं की विफलता का साफ उदाहरण है। तो किया क्या जाए? क्या एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल पर तुरंत रोक लगाई जाए? शायद ऐसा करना ठीक नहीं होगा क्योंकि ऐसा करके हम प्री-पेंसिलिन वाले युग में पहुंच जाएंगे जहां इंफेक्शन से लड़ने की कोई युक्ति हमारे हाथ में नहीं होगी। इस बारे में विज्ञानियों का एक सुझाव यह है कि हाईजीन यानी स्वच्छता को एक हथियार के रूप में अपनाया जाए। लोग संक्रमणों को लेकर जागरूक बनें, हाथ धोने को लेकर संजीदा हों और सिर्फ बस, दफ्तर, अस्पताल में ही नहीं, खाना बनाते समय अपने किचन में और कहीं भी खाना खाते समय साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखें। जब इंफेक्शन ही नहीं पैदा होगा तो एंटीबायोटिक लेने की नौबत नहीं आएगी।
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