एनजीआरबीए की तीसरी बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भाषण

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मंगलवार को नई दिल्ली में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बैठक की अध्यक्षता करते हुए
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मंगलवार को नई दिल्ली में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बैठक की अध्यक्षता करते हुए
17 अप्रैल 2012 ‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ की आज यहां हो रही तीसरी बैठक में शामिल होकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। मैं आप सबका हार्दिक स्वागत करता हूं।

‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ की स्थापना एक ऐसे उच्च स्तरीय निकाय के रूप में की गई थी, जो गंगा की प्राचीन गरिमा और पवित्रता बहाल करने के लिए अपना परम कर्तव्य समझकर काम करे और इसकी समृद्ध विरासत भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखे। केन्द्र सरकार, गंगा के तटवर्ती राज्य, नागरिक समाज और उद्योग हमारे इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रयास को सफल करने के लिए मिलकर काम करें।

हमें याद रखना चाहिए कि अतीत में इस दिशा में हमारे प्रयास सफल नहीं हुए। इसीलिए हमें अपनी कथनी और करनी में एकता दिखानी है, ताकि स्थिति में निश्चय ही बदलाव लाया जा सके।

हमें गंगा के पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संरक्षण की जरूरत के बीच सही संतुलन बनाना है। साथ ही, यह भी ध्यान रखना है कि जरूरी विकास भी होता रहे।

भारत सरकार की ओर से मैं इस दिशा में उच्चतम प्राथमिकता के साथ काम करने की प्रतिबद्धता जाहिर करता हूं।

दिनोंदिन बढ़ते हुए शहरीकरण, औद्योगीकरण और बढ़ती जनसंख्या के कारण गंगा का जल ही प्रदूषित नहीं हो रहा है, बल्कि इसकी पर्यावरण संबंधी और जलीय क्षमता पर भी आंच आ रही है। यही नहीं, जलवायु परिवर्तन और हिमनदों के पिघलने से स्थिति और भी जटिल हो गई है, जिसके कारण इस नदी की धारा प्रवाह पर भी बुरा असर पड़ने की संभावना है।

इसलिए आज हमारे सामने बहुत जटिल काम है। हमें अपने बौद्धिक और भौतिक संसाधनों को एक समन्वित और सही तरीके से संग्रहीत करना है और ऐसा करके ही हम इस चुनौती का सामना कर सकेंगे।

समय हमारे पक्ष में नहीं है और हमें बहुत जल्दी-जल्दी काम करना है। लेकिन इसके साथ ही हम जो कुछ भी करें, वो अलग-अलग न दिखे, वैज्ञानिक तार्किकता की परख पर खरा उतरे और ऐसे व्यावहारिक और तार्किक दृष्टिकोण से किया जाए कि सभी हितधारकों के विचारों और चिंताओं का उसमें समावेश हो।

लम्बी अवधि की नीतियां और कार्यक्रम बनाते हुए पर्यावरण और वन मंत्रालय ने सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों का एक समूह बनाया है और उसे गंगा की नदी बेसिन प्रबंधन की व्यापक योजना तैयार करने का काम सौंपा है। इस योजना के जरिए नदी का पारिस्थितिकी संबंधी समंवय बनाए रखने के व्यापक उपायों की सिफारिश की जाएगी। साथ ही, इन बातों का भी ध्यान रखा जाएगा कि गंगाजल का समुचित उपयोग हो सके और गंगा घाटी के अन्य प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए जो परिवर्तन आएं, उसकी खास जरूरतों का ध्यान रखा जाए।

इस योजना को ‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ की कार्य योजना का दीर्घावधि में आधार बनाया जाएगा और इसी के आधार पर उन अनेक बहुपक्षीय चुनौतियों से निपटा जाएगा, जो गंगा की सफाई और इसकी धारा का प्रवाह बनाए रखने में आड़े आ रही हैं। इस समूह ने पांच शुरूआती रिपोर्टें प्रस्तुत कर दी हैं। मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे पूरी लगन के साथ और तेजी से काम करें।

जबकि हम इस व्यापक अध्ययन और कार्य योजना की प्रतीक्षा कर रहे हैं, हमें कुछ ऐसे उपाय भी करने चाहिए जिनकी अभी जरूरत है और जिन्हें बाद में शुरू करना मुश्किल होगा।

पहला मुद्दा है बिना शोधित गंदा पानी। प्रतिदिन 2900 मिलियन लीटर गंदा पानी गंगा तट पर बसे हुए शहरों की नगर पालिकाओं द्वारा इसकी धारा में डाल दिया जाता है। फिलहाल वर्तमान मूल सुविधा के अनुसार हमारे पास सिर्फ 1100 मिलियन लीटर गंदे पानी को शोधित करने की क्षमता है। जाहिर है कि क्षमता और जरूरत में बड़ा अंतर है।

नेशनल मिशन क्लीन गंगा के तहत अतिरिक्त शोधन क्षमता सृजन के लिए पर्याप्त निधियां उपलब्ध हैं। मैं राज्यों से आग्रह करता हूं कि वे नई परियोजनाओं के लिए समुचित प्रस्ताव प्रस्तुत करें।

विद्यमान गंदा जल शोधन संयंत्रों के अनुरक्षण और संचालन संबंधी राज्यों का कामकाज काफी खराब रहा है। इस मूल सुविधा से तो पूरा फायदा नहीं उठाया गया है और इसका खास कारण यह है कि जल-मल निकासी तंत्र को जोड़ने की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। केन्द्र सरकार ऐसे कार्यों के लिए निधियां उपलब्ध कराने के तौर-तरीके आसान बनाने के उपायों की जांच कर रही है।

दूसरा मुद्दा औद्योगिक प्रदूषण से संबंधित है। हालांकि औद्योगिक कचरा कुल अपशिष्ट का 20 प्रतिशत ही होता है, लेकिन यह चिंता का खास कारण है, क्योंकि ऐसा कचरा जहरीला और अजैविक किस्म का होता है।

अधिकांश गंदा पानी चमड़ा शोधक कारखानों, शराब कारखानों, कागज बनाने के कारखानों और गंगा के किनारे की चीनी मिलों से आता है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों से संबंधित नियमों के परिपालन पर नजर रखें।

राज्य बोर्डों द्वारा नियमों का परिपालन न करने वाले उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई करना अपेक्षित है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने उन्हें अधिकार प्रत्यायोजित कर दिए हैं। मैं राज्य सरकारों से अनुरोध करता हूं कि वे परिपालन तंत्र को सुदृढ़ बनाएं।

मैं मुख्यमंत्रियों से अनुरोध करता हूं कि वे अशोधित गंदे पानी और औद्योगिक प्रदूषण से संबंधित स्थिति का आंकलन करें और ‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ को इस संबंध में अपने राज्य के बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत करें। हम यह निर्णय कर सकते हैं कि उन कुछ संस्थागत, प्रशासनिक और वित्तीय समस्याओं पर ध्यान देते हुए कौन से ठोस कदम उठाने की जरूरत होगी, जो इस प्रकार के प्रदूषण नियंत्रण और जरूरी उपायों के लिए जरूरी होंगे। हम जो कुछ भी कर सकते हैं उनमें से अनेक चीजें खुद ही बहुत स्पष्ट हैं और उनके लिए कोई विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन करवाने की जरूरत नहीं है। राज्यों को उनके लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करने चाहिए और शहरी स्थानीय निकायों की क्षमता निर्माण को प्राथमिकता देनी चाहिए।

मैं सभी राज्य सरकारों से आग्रह कर रहा हूं कि वे ‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ के पास उपलब्ध सभी संसाधनों से पूरा लाभ उठाएं। इस सिलसिले में 2600 करोड़ रुपये परिव्यय वाली परियोजनाएं अब तक इस प्राधिकरण द्वारा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल को मंजूर की जा चुकी हैं, जिनसे वे जल-मल निकासी तंत्र, गंदा जल शोधन संयंत्र, सीवेज पंपिंग स्टेशन, विद्युत शवदाह गृह, सामुदायिक शौचालय और नदी घाटी के विकास की योजनाएं कार्यान्वित कर सकेंगे।

एक तीसरा क्षेत्र जिस पर हमें तुरंत ध्यान देने की जरूरत है, वह है गंगा की पर्यावरण संबंधी धारा को बनाए रखना। इसकी शुरूआत नदी के ऊँचाई वाले क्षेत्रों से की जा सकती है। इसके लिए अनेक कदम उठाने जरूरी हैं। राज्य सरकारों और शहरी स्थानीय निकायों को गंदे पानी के शोधन और उसके पुन: इस्तेमाल के लिए जल संरक्षण को प्रोत्साहित करना होगा। सिंचाई के कुशल व्यवहारों को भी प्रोत्साहित करने की जरूरत है, क्योंकि गंगा से निकाला जाने वाला बड़ी मात्रा में पानी नहरों में जाता है और खेती के काम आता है। ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पनबिजली परियोजनाओं द्वारा पानी के इस्तेमाल संबंधी जटिल समस्याओं से भी निपटना एक कठिन काम है।

भारत सरकार ने अलकनंदा और भागीरथी घाटी से देवप्रयाग तक पनबिजली परियोजनाओं के संचयी प्रभाव के आकलन के लिए एक अध्ययन करने की जिम्मेदारी आईआईटी रुड़की को सौंपी है। अलग से भारतीय वन्य जीवन संस्थान ने भी उत्तराखंड के अलकनंदा और भागीरथी घाटी के जलजीवों और भूमि की जैव विविधता पर पड़ने वाले पनबिजली परियोजनाओं के संचयी प्रभाव के आंकलन में योगदान किया है। इन अध्ययनों से कुछ वांछनीय बातें सामने आई हैं। आईआईटी रुड़की ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पर्यावरण के प्रवाह को जारी रखना इस क्षेत्र के विकास के चरण और समाज की जरूरतों पर निर्भर करता है। इसी रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई है कि कार्यान्वित की जाने वाली हर परियोजना के पर्यावरण प्रवाह का एकदम सही मूल्य मालूम कर लिया जाना चाहिए और इसके लिए प्रवाह का सही माप और कमीशन की जा चुकी पनबिजली परियोजनाओं के कारण घटे जल प्रवाह के परिणामस्वरूप प्रणियों के जीवन पर प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए और इस काम में स्थानीय समुदाय के साथ भी सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए।

आईआईटी रुड़की की समिति ने पर्यावरण संबंधी प्रवाह की जरूरतों से जुड़े अध्ययन के अनुसार मुद्दों और भारत के वन्य प्रणाली संस्थान द्वारा संस्तुत पर्यावरण संबंधी उपायों की एक बहु-विद समूह द्वारा जांच की जानी चाहिए। इस काम में सम्बद्ध राज्य सरकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस समूह को विविध उपलब्ध विकल्पों पर समग्र दृष्टि डालनी चाहिए और उन सिद्धांतों और कार्यक्रमों की भी जांच करनी चाहिए, जिनके संरक्षण और पनबिजली परियोजनाओं के संचालन के संबंध में सिफारिशें की गई है तथा जो गंगा नदी के निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित कर सकेंगे। समूह की इन सिफारिशों के आधार पर हम एक रूपरेखा तैयार करेंगे, उस पर अमल करेंगे और उसी के अनुसार भविष्य में वे सारे कार्यक्रम बनाएंगे, जो जरूरी होंगे।

हमें आईआईटी रुड़की और भारत के वन्य जीवन संस्थान द्वारा किये गये अध्ययनों का प्रयोग यह जानने के लिए करना चाहिए कि लंबी अवधि की नीति बनाने के लिए हमें किन कार्यक्रमों की जरूरत होगी।

मुझे उम्मीद है कि यहां होने वाली चर्चा से रचनात्मक और उद्देश्यपूर्ण सुझाव मिलेंगे।

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