भारत में लगभग 170 खाद्य पदार्थ एलर्जी कारण बनते हैं। ढाई से चार करोड़ इस एलर्जी से जूझ रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि अब तक केवल नवजात शिशुओं को दूध की जगह दी जाने वाली खाद्य सामग्री पर ही एलर्जी सम्बन्धी जानकारी छपी होती है।
अब तक खाने की एलर्जी को रोकने की कोई दवा और इलाज मौजूद नहीं है। इसे रोकने का बस एक ही तरीका है और वह यह कि उन चीजों की पहचान की जाये जिससे एलर्जी होती है तथा खाने की हर चीज की सूची बनाई जाये ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि व्यक्ति जो भी खा रहा है वह पूरी तरह सुरक्षित है। कुछ लोग खाने की एलर्जी और भोजन से सम्बन्धित अन्य विकारों जैसे खाना न पचा पाना, खाने का खराब हो जाना और पेट सम्बन्धी बीमारी में अन्तर को समझ नहीं पाते और भ्रमित हो जाते हैं। संदीप गोस्वामी (बदला हुआ नाम) को बागदा चिंगरी (झींगा मछली) बहुत पसन्द थी। एक बार यह पसन्द उन्हें मौत के मुँह तक ले गई। सर्दी के दोपहर में वह माँ के हाथ की बनी चिंगरी माछेर मलाई करी का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। रसोई से आती खुश्बू से इन्तजार कठिन होता जा रहा था। संदीप बताते हैं कि एक घंटे बाद ऐसा महसूस होने लगा जैसे कोई गला दबा रहा हो। उनके माता-पिता तुरन्त उन्हें अस्पताल ले गए जहाँ सही वक्त पर इलाज मिलने से उनकी जान बच सकी।
यह खाने की एलर्जी से होने वाली समस्या है जिसे एनफलेक्सिस कहते हैं, जो जानलेवा हो सकती है। डॉक्टर ने समझाया कि करी खाने के बाद हुई यह समस्या गोस्वामी की अपनी प्रतिरोधक क्षमता के कारण हुई है जो झींगे में बड़ी मात्रा में मौजूद प्रोटीन को पचा नहीं पाई। डॉक्टर ने उन्हें ऐसे खाद्य पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी।
एक और जहाँ गोस्वामी की एलर्जी ने उन्हें उनके पसन्दीदा पकवान से दूर रखा वहीं एक साल के अनिल गुप्ता (बदला हुआ नाम) को दूध से होने वाली एलर्जी ने उन्हें कुपोषण का शिकार बना दिया। एलर्जी केयर इण्डिया के अध्यक्ष अशोक गुप्ता बताते हैं कि जब भी अनिल गाय का दूध पीता था, उसके होंठों, आँखों और गले में सूजन आ जाती है और उसे साँस लेने में तकलीफ होती है।
जयपुर स्थित यह गैर लाभकारी संगठन ऐसे मरीजों और बच्चों के परिजनों ने मिलकर बनाया है जो एलर्जी से जूझ रहे हैं। इसका मकसद इस बीमारी के बारे में जागरुकता पैदा करना है जो बड़े पैमाने पर फैल चुकी है किन्तु इस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता। गुप्ता कहते हैं कि 50 में से लगभग एक बच्चे को गाय के दूध से एलर्जी है। बच्चों को खाने से एलर्जी होने की ज्यादा सम्भावना रहती है। एलर्जी और प्रतिरोधक क्षमता सम्बन्धी सोसायटी का अन्तरराष्ट्रीय संगठन विश्व एलर्जी संगठन (डब्ल्यूएओ) भी उनसे सहमत है।
डब्ल्यूएओ के अनुसार, दुनिया भर में 5-8 प्रतिशत शिशु खाने की एलर्जी से ग्रसित हैं जबकि वयस्कों में यह केवल 1-2 प्रतिशत है। सच तो यह है कि भारत समेत कई देशों में खाने की एलर्जी के बारे में कोई व्यापक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इन अपर्याप्त आँकड़ों के आधार पर डब्ल्यूओए का मानना है कि दुनिया भर में 22-52 करोड़ लोग किसी-न-किसी प्रकार की खाद्य एलर्जी से जूझ रहे हैं जो दुनिया की कुल आबादी का 3-7 प्रतिशत है।
पिछले 10-15 वर्षों के दौरान नवजात और स्कूल जाने वाले बच्चे बड़ी मात्रा में इसका शिकार बने हैं क्योंकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता तो कमजोर ही बनी हुई है जबकि उन्हें नई-नई तरह की चीजें खाने को दी जा रही हैं। दिसम्बर 2013 में विश्व एलर्जी संगठन जर्नल में ऑनलाइन प्रकाशित किया गया एक अध्ययन दर्शाता है कि चीन जैसे एशिया के विकासशील देशों में प्राथमिक स्कूल जाने वाले 7 प्रतिशत बच्चे खाने की एलर्जी से ग्रस्त हैं। विकसित देशों में 10 प्रतिशत हैं। अमेरिका के रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केन्द्रों के अनुसार, 1997 से 2011 के बीच बच्चों में खाद्य एलर्जी 50 प्रतिशत बढ़ गई है।
1990 के दशक के अन्त से 2000 के दशक के मध्य तक खाने की एलर्जी के कारण अस्पताल में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या तीन गुना हो गई थी। खाने से सम्बन्धित एलर्जी आमतौर पर बचपन में ही ठीक हो जाती है। खाद्य एलर्जी की जागरुकता, जानकारी, अनुसन्धान और वकालत करने वाले विश्व के सबसे बड़े गैर लाभकारी संगठन अमेरिका के फूड एलर्जी रिसर्च एंड एजुकेशन (एफएआरई) के अनुसार कुछ, दशकों के दौरान इसके ठीक होने की गति धीमी पड़ी है। यह रुझान बच्चों के बीमार होने के खतरे को बढ़ा देगा क्योंकि खाने की एलर्जी से ग्रस्त बच्चों को अस्थमा और खाज जैसी एलर्जी होने का खतरा तीन से चार गुना ज्यादा होता है, तथा उन्हें गम्भीर एनफिलेक्सि होने का जोखिम ज्यादा होता है।
यह खतरे की घंटी है। अब तक खाने की एलर्जी को रोकने की कोई दवा और इलाज मौजूद नहीं है। इसे रोकने का बस एक ही तरीका है और वह यह कि उन चीजों की पहचान की जाये जिससे एलर्जी होती है तथा खाने की हर चीज की सूची बनाई जाये ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि व्यक्ति जो भी खा रहा है वह पूरी तरह सुरक्षित है। कुछ लोग खाने की एलर्जी और भोजन से सम्बन्धित अन्य विकारों जैसे खाना न पचा पाना, खाने का खराब हो जाना और पेट सम्बन्धी बीमारी में अन्तर को समझ नहीं पाते और भ्रमित हो जाते हैं। कुछ लोग इसे कोई बीमारी नहीं मानते और इसे पश्चिमी देशों की समस्या कहकर दरकिनार कर देते हैं।
उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य की रक्षा और अन्तरराष्ट्रीय खाद्य व्यापार में उचित व्यवहार सुनिश्चित करने के लिये खाद्य और कृषि संगठन द्वारा बनाए गए निकाय कोडेक्स एलिमेंटेरियस कमीशन के 1999 के दिशा-निर्देशों ने सभी सदस्य देशों के लिये सह अनिवार्य कर दिया है कि वे अपने डिब्बाबन्द खाने में खाद्य एलर्जी के बारे में जानकारी दें। भारत में नवजात को दूध की जगह दिये जाने वाले खाद्य पदार्थों में यह सूचना प्रकाशित की जाती है।
खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग और लेबलिंग) विनियमन 2011 व्यवस्था करता है कि गाय के दूध या भैंस के दूध में मौजूद प्रोटीन अथवा सोया प्रोटीन की एलर्जी से जूझ रहे नवजात शिशुओं को दिये जाने वाले पदार्थों के डिब्बों पर बड़े अक्षरों में “हाइपोएलर्जिक फार्मूला” लिखा होना चाहिए, साथ ही “डॉक्टर से सलाह से लिया जाये” भी लिखा हो। गुप्ता कहते हैं, “यद्यपि देश में चिकित्सा सम्बन्धी सारा पाठ्यक्रम तय करने वाली भारतीय चिकित्सा परिषद ने एलर्जी विषय पर मान्यता प्राप्त डिप्लोमा कोर्स को मंजूरी दी हुई है फिर भी किसी कॉलेज ने इसे शुरू नहीं किया है।”
खाने की एलर्जी कैसे अलग
लिविंग विद फूड एलर्जीज के लेखक एलेक्स गजोला के अनुसार हर देश में एलर्जी के अलग कारण होते हैं। वह लिखते हैं, “स्पेन, इटली और ग्रीस में खरबूज, सेब और आढू से एलर्जी होना आम बात है, जबकि नॉर्वे और आइसलैंड में फली से एलर्जी होती है, स्विट्जरलैंड में अजवाइन से एलर्जी होने के ज्यादा मामले देखे जाते हैं। इसी तरह हांगकांग में रॉयल जैली, घाना में अनानास, सिंगापुर में घोसले, जापान के कुट्टू और बांग्लादेश में कटहल से ज्यादातर एलर्जी होती है।” गुरुग्राम स्थित फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट के गेस्ट्रोऐटरोलॉजी और हेपटोबाइलरी सांइसेस विभाग के निदेशक गुरुदास चौधरी बताते हैं, “पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में एलर्जी का रूप कुछ अलग है।” उन्होंने खाने की एलर्जी का सामना कर रहे 75 मरीजों का विश्वेलषण किया और यह पाया कि उनमें से अधिकांश (34 प्रतिशत) को झींगे से एलर्जी थी, जिसके बाद गेहूँ (31 प्रतिशत), दूध (28 प्रतिशत), सोयाबीन (25 प्रतिशत), बादाम (20 प्रतिशत), अंडे (18 प्रतिशत), नारियल (17 प्रतिशत), चिकन (10 प्रतिशत) और मछली (9 प्रतिशत) से होने वाली एलर्जी के मामले थे। चौधरी कहते हैं कि पश्चिमी देशों में मूँगफली से एलर्जी आम है लेकिन भारत में इससे एलर्जी होने के मामले बहुत दुर्लभ हैं।
हालांकि गुप्ता इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि भारत में मूँगफली से होने वाली एलर्जी आम है, चॉकलेट (कोकोआ), मछली, नारियल और काजू एलर्जी के अन्य प्रमुख कारक हैं। वह कहते हैं, “यूँ तो भारत में दुध, अंडे और गेहूँ से एलर्जी होना बहुत सामान्य है फिर भी पश्चिमी देशों की चुलना में यह काफी कम है। इसके विपरीत चने जैसी दालें, चावल, तला खाना और मांसाहारी भोजन भारत में खाने की एलर्जी के सामान्य कारक हैं।” कठोर लेबलिंग व्यवस्था तैयार करने तथा देश में खाद्य एलर्जी के मामलों की बढ़ती संख्या के कारणों का पता लगाने के लिये सरकार को इसके बारे में जानकारी हासिल करनी होगी।
पश्चिमी जीवनशैली को अपनाना
गजोला के अनुसार, एशिया और अफ्रीका के अधिकांश विकासशील देश अपने पारम्परिक खाने को छोड़कर पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका में प्रचलित प्रसंस्कृत और डिब्बाबन्द खाने को अपना रहे हैं इसीलिये उनमें एलर्जी की दर भी पहले से ज्यादा बढ़ गई है। अमेरिकन जर्नल ऑफ रेस्पिरेटरी एंड क्रिटियल केयर मेडिसिन का अगस्त 1996 का अंक गजोला की इस बात की पुष्टि करता है। यह अंक साँस लेने, अटोपी (एलर्जी होने की आनुवांशिक प्रकृति) और ब्रोंकाअल हाइपररिएक्टिविटी पर जीवनशैली के प्रभाव के बारे में था। अनुसन्धानकर्ताओं ने लिसेस्टर, यूके में 8-11 वर्ष के 539 एशियाई और 308 श्वेत बच्चों पर अध्ययन किया और जीवनशैली के कारण इन पर पड़ने वाले प्रभाव को देख। उन्होंने पाया कि एशियाई बच्चे अपनी पारम्परिक खुराक ले रहे थे उन्हें एलर्जी का कम खतरा था। परम्परागत पश्चिमी खुराक की तुलना में एशियाई भोजन में सब्जियाँ अधिक होती हैं, मांस और बाहरी तत्व तथा डिब्बाबन्द और प्रसंस्कृत खाना कम होता है।
नए रसायनों, जीएम फसलों तक पहुँच
चौधरी कहते हैं, कभी-कभी गाय या अन्य जानवरों को दी गई दवाई या एंटीबायोटिक मांस या दूध के जरिए हमारे शरीर में पहुँच जाता है और हमें लगता है कि हमें खाने से एलर्जी हो गई है। बंगलुरु एलर्जी सेंटर के प्रमुख नगेंद्र प्रसाद के.वी. बताते हैं कि आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों (जीएम) के कारण भी एलर्जी हो सकती है। आधुनिक फसलों के कई लाभ भी होते हैं जैसे कि इनमें कीड़े नहीं लगते, हर मौसम का सामना कर सकती हैं, पोषण ज्यादा होता है, स्वाद बेहतर होता है और जल्दी खराब नहीं होती, किन्तु अन्तत: इससे पौधे में नए प्रोटीन आ जाते हैं जिनमें से कई एलर्जी कारण बन सकते हैं। जैव प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल करके तैयार किये गए खाद्य पदार्थ जैसे भुट्टे, सोयाबीन, राई और आलू पहले ही बाजारों में आने लगे हैं। भारत में अब तक किसी जीएम खाद्य फसल के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति नहीं है। खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत देश में जीएम खाद्य पदार्थ बेचना मना है। फिर भी मीडिया रिपोर्टों में यह आरोप लगाया गया है कि खाद्य सुरक्षा कानूनों को तोड़ते हुए पिछले पाँच वर्षों के दौरान देश में डेढ़ करोड़ टन जीएम सोयाबीन और राई के तेल का आयात किया गया है। यूरोपीय संघ के राष्ट्रों, ऑस्ट्रेलिया और चीन के विपरीत, भारत में ऐसा कोई तंत्र नहीं है जिसके तहत जीएम खाद्य पदार्थों पर स्पष्ट रूप से इसकी जानकारी लिखना अपोक्षित हो।
अनुसन्धानकर्ता यह पता नहीं लगा पाए हैं कि वे कौन से जोखिम कारक हैं जो सुरक्षित खाद्य को हानिकारक बताते हैं। खाने की एलर्जी से जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अमेरिका में खाद्य एलर्जी से ग्रस्त कोई भी व्यक्ति अमेरिकन विद डिसएबिलिटी एक्ट, 1990 और रिहेबिलिटेशन एक्ट, 1973 के तहत खाद्य संरक्षण प्राप्त करने के लिये पात्र है। खाद्य एलर्जी के शिकार बच्चों के कारण अमेरिकी परिवारों को हर साल लगभग 16 अरब रुपए खर्च करने पड़ते हैं। भारत में बीमारी के बोझ का पता लगाने के लिये ऐसा अध्ययन नहीं किया गया है। जाँच और दवाइयों की अधिक कीमतों के कारण कई परिवारों के लिये इसका आर्थिक बोझ सहना दुसाध्य है। खून में आईजीई स्तर की प्रारम्भिक जाँच की लागत 800 से 1000 रुपए की बीच है, जबकि पूरी जाँच 10,000 से 13,000 रुपए में होती है। स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में भी खामियाँ है विशेषरूप से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति ज्यादा खराब है। चौधरी कहते हैं, “भारत में लोगों में जागरुकता की कमी है, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को इस विषय पर बहुत कम जानकारी है। जाँच सुविधाओं की कमी और एनाफिलेक्सिस होने पर जान बचाने वाले एपीपेन (एपिनफ्रिन ऑटो-इंजेक्टर) की अनुपलब्धता अन्य प्रमुख समस्याएँ हैं। अब तक तो लोगों पर ही अपने को बचाने की जिम्मेदारी है।”
खाने की एलर्जी और भोजन सम्बन्धी विकारों में घालमेल न करें
खाने की एलर्जी और खाने से जुड़े हुए अन्य विकारों, जैसे खाना न पचना, खाना खराब होना तथा पेट सम्बन्धी बीमारी में अन्तर है। लेकिन चूँकि इनके लक्षण समान होते हैं, जैसे कि पेट में दर्द, उल्टी और दस्त, इसलिये लोग खाने की एलर्जी और खाने से सम्बन्धित अन्य समस्याओं को एक ही मान लेते हैं। आइए जानते हैं कि इनके अन्तर को समझना क्यों जरूरी है….
खाने की एलर्जी
यह हमारी प्रतिरोधक प्रणाली के कारण होती है जिसका काम हमें किसी भी अनजान खाद्य पदार्थ से बचाना है जैसे जीवाणु, विषाणु, जहरीले पदार्थ आदि। कुछ लोगों की प्रतिरोधक प्रणाली खतरनाक और सामान्य पदार्थ के बीच में अन्तर नहीं कर पाता। उदाहरण के लिये, किसी भी प्रतिरोधक प्रणाली अंडे में मौजूद प्रोटीन को खतरनाक या एलर्जी का कारण समझ लेता है। प्रतिक्रियास्वरूप वह इम्यूनोग्लोबोलिन ई (आईजीई) नामक एंटीबायोटिक पैदा करता है जो त्वचा, फेफड़ों और गैस्ट्रोइंटेस्टनल ट्रेक्ट के सेल से चिपक जाता है। अगर आप फिर से एलर्जी के कारक के सम्पर्क में आते हैं तो ये सेल हिस्टामाइन सहित अन्य रसायन उत्सर्जित करते हैं। प्रतिरोधक तंत्र में यह उठापटक बीमार कर देती है। बंगलुरु एलर्जी सेंटर के प्रमुख नगेंद्र प्रसाद के.वी. बताते हैं कि, चूँकि ये लक्षण एलर्जी से ग्रस्त व्यक्ति की खाने के प्रति विशेष प्रतिक्रिया के कारण होते हैं, इसलिये इसमें एक अंग या एक से ज्यादा अंग शामिल हो सकते हैं। एलर्जी के कुछ कारक तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं और व्यवहार में बदलाव ला सकते हैं जैसे घबराहट होना, उत्तेजना, अनिद्रा, कम भूख लगना और पढ़ाई पर ध्यान न दे पाना, सिरदर्द, तनाव और पागलपन।
पेट सम्बन्धी बीमारी
यह स्वप्रतिरोधक क्षमता सम्बन्धी विकार है जो पहले से आनुवांशिक रूप से प्रवृत्त होने के कारण हो सकता है जिसमें ग्लुटेन के कारण पेट में खराबी आ सकती है। इसमें प्रतिरोध प्रणाली एक अलग तरह के एंटीबॉडी इम्यूनिग्लोबुलिन ए (आईएए) के जरिए केवल ऐसे प्रोटीन ग्लुटेन पर प्रतिक्रिया करती है जो अनाज में पाया जाता है। अगर इसका इलाज न किया जाये तो इससे स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याएँ हो सकती है जैसे मल्टिपल सेलिरोसिस, ऑस्टियोपोरोसिस, मिर्गी, छोटा कद और पेट का कैंसर। इसका एक ही इलाज है और वह है जिन्दगीभर ग्लुटेन-रहित खुराक लेना।
खाना न पचना
यह देरी से होने वाली प्रतिक्रिया है जो तब होती है जब कोई व्यक्ति खाना नहीं पचा पाता। यह एंजाइम की कमी, खाने में मिलाए जाने वाले रसायनों को न पचा पाने या खाने में प्राकृतिक रूप से मौजूद रसायनों की प्रतिक्रिया के कारण हो सकता है। आमतौर पर लोग बिना किसी परेशानी के कम मात्रा में खाना खा सकते हैं। चूँकि इसमें केवल ग्रेस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रेक्ट शामिल है, इसलिये इसके लक्षणों में पेट में दर्द, उल्टी और दस्त शामिल हो सकते हैं, लेकिन इसमें एनफिलेक्सिस का कोई खतरा नहीं होता।
खाने की खराबी के कारण बीमारी
यह बीमारी खाना सड़ जाने या खराब हो जाने के कारण उसमें सेमोनेला जैसे बैक्टीरिया उत्पन्न होने से होती है। यह उन सभी को प्रभावित करती है जिन्होंने विषाक्त भोजन किया हो। इसके लक्षणों में पेट में मरोड़, दस्त और बुखार शामिल है। ये लक्षण संक्रमण के स्रोत पर आधारित होते हैं। यह बीमारी जानलेवा हो सकती है।
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Post By: RuralWater