चौर का विकास करने के लिये उसके अगल-बगल के लोगों के लिये भी समुचित प्रबन्धन या भागीदार लोगों को जल का सही उपयोग करने का तरीका या तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे चौर के विकास होने के साथ-साथ आस-पास भी समन्वित विकास सम्भव हो सके। चौर के बाहरी तरफ जिस तरफ पानी नहीं रहता तो वहाँ ऐसी फसलों का उत्पादन कर सकते हैं जिनमें पानी की कम-से-कम जरूरत हो जैसे की सरसों, मसूर इत्यादि, फिर थोड़ी सी जरूरत वाली फसल या फिर मवेशियों के लिये घास इत्यादि उगा सकते हैं। चौर प्राकृतिक रूप से छिछला एवं कम बहाव का होता है, जो जैविक सम्पदा से सम्पन्न माना जाता है। पर इन जलीय संसाधनों का अब तक समुचित उपयोग नहीं हो पाया है, जिसका मुख्य कारण इस तरह के जल में बहुत सारे लोगों की भागीदारी होना अर्थात चौर के जल का बँटवारा करना। साथ-साथ आस-पास के लोग भी अपनी आवश्यकता के लिये भी इस पर निर्भर रहते हैं।
फलस्वरूप किसी भी चौर का विकास करने के लिये उसके अगल-बगल के लोगों के लिये भी समुचित प्रबन्धन या भागीदार लोगों को जल का सही उपयोग करने का तरीका या तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे चौर के विकास होने के साथ-साथ आस-पास भी समन्वित विकास सम्भव हो सके। चौर के बाहरी तरफ जिस तरफ पानी नहीं रहता तो वहाँ ऐसी फसलों का उत्पादन कर सकते हैं जिनमें पानी की कम-से-कम जरूरत हो जैसे की सरसों, मसूर इत्यादि, फिर थोड़ी सी जरूरत वाली फसल या फिर मवेशियों के लिये घास इत्यादि उगा सकते हैं।
इस तरह से हम बेकार पड़े खेत को बिना पानी खर्च किये उपजाऊ भी बना सकते हैं। इसके अलावा चौर के पानी वाले इलाके में 3 फीट चौड़ा ऊँची बाँध बनाकर उस बाँध पर बागवानी कर सकते हैं, फल (पपीता, केला, अमरूद नारियल), सब्जियाँ (टमाटर, बैंगन, गोभी) इत्यादि उगा सकते हैं। दलहन (हरा चना, अरहर, मटर) इत्यादि भी उगा सकते हैं। औषधीय पौधे (धृत कुमारी, तुलसी, कालमेध, नीम, सहजन) इत्यादि का भी उत्पादन कर सकते हैं। इनके अलावा मुर्गी पालन भी किया जा सकता है। 3 फीट चौड़ा तथा 25-30 फीट लम्बा घर 25-30 मुर्गियों को पालने के लिये उपयुक्त होता है, क्योंकि एक मुर्गी के लिये 1 वर्ग फीट जगह की आवश्यकता होती है। साथ-ही-साथ जल क्षेत्र में मछली पालन के अलग-अलग तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। अलग-अलग तकनीकों के उपयोग में लाने से पहले, जल क्षेत्र की पारिस्थितिकी को समझने की आवश्यकता होती है।
एकीकृत मत्स्य पालन का अर्थ है ‘फसल, मवेशी और मछलियों का एक साथ पालन करना’। एकीकृत पालन का मुख्य उद्देश्य है एकल पालन के अवशिष्ट पदार्थ का पुनर्चक्रण एवं संसाधनों का इष्टतम उपयोग करना। इस पालन में अवशिष्ट पदार्थों को फेंका नहीं जाता बल्कि उनका पुनर्चक्रण कर उपयोग किया जाता है। अतः यह जीविकोपार्जन एवं आय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एकीकृत पालन कई प्रकार से किया जाता है जैसे-कृषि सह जलकृषि, मछली सह मुर्गी पालन, मछली सह बतख पालन एवं मछली सह अनाज खेती।
कृषि सह जलकृषि
इसमें उत्पाद का दीर्घकालिक तौर पर इष्टतम उपयोग होता है और वह भी स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों और तकनीकों के उपयोग से। यह पालन छोटे व गरीब किसानों के भरण-पोषण के लिये बहुत ही लाभकारी है। एकीकृत मत्स्य पालन से अतिरिक्त आय भी प्राप्त होती है। इस तरह के पालन के लिये विभिन्न तरह की फसल उपयुक्त होती है। फल (पपीता, केला, अमरूद, नींबू, सीताफल, अनानास, नारियल), सब्जियाँ (चुकन्दर, करेला, लौकी, बैंगन, बन्दगोभी, फूलगोभी, खीरा, ककड़ी, खरबूजा, मटर, आलू, कोहरा, मूली, टमाटर), दलहन (हरा चना, काला चना, अरहर, राजमा, मटर) तिलहन (मूँगफली, सरसों, तिल, रेडी) फूल (गेंदा, गुलाब, रजनीगंधा), औषधीय पौधे (धृतकुमारी, तुलसी, कालमेध, नीम) आदि। चौर के पानी वाले इलाके में 3 फीट चौड़ा ऊँचा बाँध बनाकर उस बाँध पर बागवानी (पपीता, केला, अमरूद, नारीयल इत्यादि) कर सकते हैं। ग्रास कार्प के भोजन के लिये नेपियर घास की खेती तालाब के किनारे की जाती है। चौर से प्राप्त गाद एवं जलीय अपतृणों को खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस तरह से हम चौर के किनारे बेकार पड़े खेत को बिना पानी खर्च किये उपजाऊ भी बना सकते हैं।
मछली सह मुर्गी पालन
इस पालन में मुर्गियों के अवशिष्ट को पुनः चक्रण कर खाद के रूप में उपयोग किया जाता है। एक मुर्गी के लिये 0.3-0.4 वर्ग मी. जगह की आवश्यकता होती है। 50-60 पक्षियों से एक टन उर्वरक प्राप्त होता है। ऐसे पालन में 500-600 पक्षियों से प्राप्त खाद एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिये पर्याप्त होती है। इस पालन द्वारा 4.5-5.0 टन मछली, 70000 अंडे और 1250 किग्रा मुर्गी के मांस का उत्पादन होता है। इसमें किसी अन्य सम्पूरक आहार और अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। इस दृष्टिकोण से यह बहुत लाभदायक सिद्ध होता है।
मछली सह बतख पालन
इस पालन में मछली और बतख एक साथ पाली जाती है। जिस जल क्षेत्र में बतखों का पालन किया जाता है वह मछलियों के लिये आदर्श जलक्षेत्र होता है, क्योंकि पारिस्थतिकी रोगमुक्त होती है। बतख जल क्षेत्र में उपस्थित घोंघा, टैडपोल एवं पतंगों के लार्वा ग्रहण करती है। इसके अलावा बतखों के अवशिष्ट के सीधा तालाब में गिरने से मछलियों के लिये आवश्यक पोषक पदार्थ की पूर्ति होती है। प्रत्येक बतख से 40-50 किग्रा खाद प्राप्त होता है। जिससे लगभग 3 कि.ग्रा. मछली उत्पादन होता है। बतख की औसत पालन दर 4 बतख प्रति वर्ग मी. होती है। एक बतख औसतन 200 अंडे प्रतिवर्ष देती है।
मछली सह मवेशी खेती
इस तरह के पालन से बहुत सारी सम्भावनाएँ हैं। इसमें मछली के साथ, गाय, बैल, भैंस तथा बकरी पालन किया जा सकता है। साधारणतः एक गाय, बैल या भैंस से 6 कि.ग्रा. एवं बकरी से 0.5 कि.ग्रा. खाद प्राप्त होती है। अतः एक वर्ष में एक मवेशी से 9000 कि.ग्रा. अवशिष्ट निकलता है। अनुमानतः 6.4 किग्रा गोबर से एक किग्रा मछली उत्पादन होता है। आठ गायों से प्राप्त गोबर एक हेक्टेयर जल क्षेत्र के लिये पर्याप्त होता है और इससे बिना किसी सम्पूरक आहार के 3-5 टन मछली का उपज ली जा सकती है। साथ ही गाय का दूध भी प्राप्त होता है।
मछली सह अनाज खेती
इस पालन में मछली के साथ अनाज की खेती होती है। इस तरह के पालन में मछली के साथ धान की खेती सर्वाधिक उपयुक्त होती है। धान का खेत पानी से भरा रहता है इसलिये इसमें धान के साथ कम खर्च में मछली पालन किया जाता है।
चौर क्षेत्र में मात्स्यिकी द्वारा जीविकोत्थान के अवसर - जनवरी, 2014 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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5 | चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पातकता में वृद्धि |
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7 | बिहार में टिकाऊ और स्थाई चौर मात्स्यिकी के लिये समूह दृष्टिकोण |
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Post By: Editorial Team