प्रस्तावना
कई बरसों से मैं अपने कुछ मित्रों के साथ क्योतो के उत्तर में पर्वतीय इलाके के एक फार्म पर रह रहा था। हम लोग चावल, राई, जौ, सोयाबीन व विभिन्न बागानी सब्जियों की खेती परम्परागत जापानी विधियों से कर रहे थे। हमारे फार्म पर आने वाले लोग अक्सर फुकूओका के काम के बारे में बात करते थे।
दक्षिण जापान के शीकोकू द्वीप के एक छोटे से गांव में मासानोबू फुकूओका प्राकृतिक खेती की एक ऐसी नई विधि विकसित करने में लगे हैं जो आधुनिक कृषि की नुकसान वाली गति को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इस कुदरती खेती के लिए न तो मशीनों की जरूरत होती है न ही रासायनिक उर्वरकों की, तथा उसमें निंदाई-गुड़ाई भी बहुत कम करनी पड़ती है। फुकूओका न तो खेत में जुताई करते हैं और न ही तैयार किए हुए वानस्पतिक खाद का प्रयोग करते हैं। इसी तरह धान के खेतों में वे फसल उगने के सारे समय, उस तरह पानी बांधकर भी नहीं रखते जैसा कि पूरब और सारी दुनिया के किसान सदियों से करते चले आ रहे हैं। पिछले पच्चीस बरसों से उन्होंने अपने खेतों में हल नहीं चलाया है। इसके बावजूद उनके खेतों में पैदावार जापान के सर्वाधिक उत्पादक खेतों से अधिक होती है। उनके खेती में श्रम भी अन्य विधियों की अपेक्षा कम लगता है, चूंकि इस तरीके में कोयला, तेल, आदि का उपयोग नहीं होता, वह किसी भी तरह का प्रदूषण नहीं फैलाता।जब मैंने पहली बार फुकूओका की चर्चा सुनी तो मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ। यह भला संभव ही कैसे हो सकता है कि आप बिना जुते हुए खेतों पर सिर्फ बीज बिखेर कर साल-दर-साल चावल व अन्य अनाजों की अधिक पैदावार देने वाली फसलें उगाते चले जाएं? निश्चय ही उनके तरीके में कुछ और खास चीज होगी।
कई बरसों से मैं अपने कुछ मित्रों के साथ क्योतो के उत्तर में पर्वतीय इलाके के एक फार्म पर रह रहा था। हम लोग चावल, राई, जौ, सोयाबीन व विभिन्न बागानी सब्जियों की खेती परम्परागत जापानी विधियों से कर रहे थे। हमारे फार्म पर आने वाले लोग अक्सर फुकूओका के काम के बारे में बात करते थे। उनमें से कोई भी उनके खेतों पर इतने ज्यादा समय तक नहीं रहा था। कोई भी उनकी तकनीक के बारे में विस्तार से नहीं जानता था। लेकिन इससे मेरी जिज्ञासा और ज्यादा बढ़ती गयी।
जब भी मुझे काम से कुछ दिनों की छुट्टी मिलती तो मैं देश के अन्य भागों की यात्रा पर निकल जाता और वहां खेतों और सामुदायिक फार्मों पर कुछ दिनों ठहर कर कुछ समय के लिए मजदूर के तौर पर काम करता था। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मैं फुकूओका के फार्म पर, उनके काम को खुद अपनी आंखों से देखने, कुछ सीखने की नीयत से जा पहुंचा।
यह तो मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि मैंने उनके जैसा होने की कल्पना रखी थी, लेकिन इस महान शिक्षक के बारे में इतना कुछ सुन रखने के बाद भी जब मैंने उन्हें एक आम जापानी खेत मजदूर की तरह के जूते और कामकाजी लिबास पहने देखा तो मुझे ताज्जुब ही हुआ। वैसे उनकी सफेद, क्षीण दाढ़ी और आत्मविश्वासपूर्ण तथा चौकन्ने हावभाव उनके एक बेहद असाधारण व्यक्तित्व होने का अहसास करवा रहे थे।
उस पहली यात्रा के समय ही मैं फुकूओका के फार्म पर कई महीने टिका और उनके खेतों तथा नींबू-नारंगी के बागों में काम करता रहा। वहां मिट्टी की कुटियों में शाम को अन्य छात्र खेत कामगारों के साथ होने वाली चर्चाओं से, धीरे-धीरे मेरे सामने फुकूओका की विधियां तथा उनके पीछे निहित दर्शन स्पष्ट होता चला गया।
फुकूओका का फल उद्यान मात्सुयामा खाड़ी की तरह उठी हुई पहाड़ी ढलानों पर स्थित है। यही है वह पर्वत, जहां उनके शिष्य रहते और काम करते हैं। उनमें से अधिकांश मेरी ही तरह पीठ पर अपना बिस्तर-पोटली लादे, वहां वास्तव में क्या हो सकता है, यह जाने बगैर पहुंचे थे। कुछ दिन या सप्ताह वहां रहने के बाद ये छात्र पहाड़ी से नीचे उतर कहीं गायब हो जाते हैं। लेकिन आमतौर से ऐसे तीन-चार शिष्यों का एक केंद्रीय दल भी होता है जो वहां एक वर्ष से रह रहा होता है। पिछले बरसों में कई लोग, औरतें और कई मर्द दोनों, वहां ठहरने और काम करने के लिए आए।
फार्म पर कोई आधुनिक सुविधाएं नहीं हैं। पीने का पानी पास के झरने से बाल्टियों के द्वारा लाया जाता है और खाना चूल्हों पर लकड़ी जलाकर पकाया जाता है। रात में रोशनी मोमबत्तियों या केरोसीन की लालटेनों से की जाती है। पहाड़ी या जंगली जड़ी-बूटियों तथा सब्जियां बहुतायत से उगती हैं। झरनों से मछलियां, सीप आदि प्राप्त हो जाते हैं, तथा कुछ मील की दूरी पर स्थित समुद्र से सागर वनस्पतियां भी।
काम, मौसम और ऋतुओं के हिसाब से बदलता रहता है। काम का दिन सुबह आठ बजे शुरू होता है। तथा बीच में एक घंटे खाने की छुट्टी (गर्मियों में यह दो-तीन घंटे तक खिंच जाती है) के बाद छात्र कामगार दिन ढले ही वापस लौटते हैं। खेती से संबंधित काम के अलावा मटकों में पानी भरना, लकड़ी चीरना, खाना पकाने, नहाने का पानी गर्म करने, बकरियों की देखभाल करने, मधुमक्खियों के घरों की साजसंवार करने, नये झोपड़ों का निर्माण तथा पुरानों की मरम्मत करने तथा सोयाबीन का ‘सत्तू’ और दही बनाने जैसे दीगर काम भी होते हैं।
फुकूओका फार्म पर रहने वाली पूरी बिरादरी के रहने का खर्च के लिए हर महीने 10,000 येन (लगभग 7,000 रुपये) देते हैं। जिनमें से अधिकांश सोया-सॉस, वनस्पति तेल तथा ऐसी अन्य वस्तुएं खरीदने पर खर्च होते हैं, जिन्हें छोटे पैमाने पर पैदा करना व्यावहारिक नहीं होता। बाकी जरूरतों के लिए छात्रों को पूरी तरह उनके द्वारा ही उगायी गई फसलों, इलाके के संसाधनों और अपनी खुद की हिकमत पर निर्भर रहना पड़ता है। फुकूओका जानबूझ कर अपने छात्रों को इस अर्ध-प्रागैतिहासिक ढंग से रहने पर मजबूर करते हैं (वे खुद भी कई बरसों से इसी तरह रह रहे हैं) क्योंकि उनका विश्वास है कि यह जीवनशैली उनमें वह संवेदनशीलता पैदा करती है जो उनकी प्राकृतिक विधियों के जरिए खेती करने के लिए जरूरी है।
शीकोकू के जिस इलाके में फुकूओका रहते हैं वहां चावल तटवर्ती मैदानों में तथा नींबू-नारंगी आसपास के पर्वतीय ढलानों पर उगाया जाता है। उनके फार्म में करीब सवा-एकड़ क्षेत्र के धान के खेत तथा साढ़े-बारह एकड़ क्षेत्र के नारंगी के बगीचे हैं। पश्चिम के किसानों के हिसाब से यह बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन चूंकि यहां अधिकांश काम जापान के परम्परागत हाथ के औजारों से किया जाता है, इतने छोटे रकबे के रख-रखाव के लिए भी काफी श्रम शक्ति की जरूरत पड़ती है।
युवावस्था में फुकूओका अपने गांव से योकोहामा के लिए एक सूक्ष्मजीव विज्ञानी बनने के उद्देश्य से निकले थे। वे पौध-व्याधियों (बीमारियों) के विशेषज्ञ बने और कुछ बरसों तक उन्होंने एक प्रयोगशाला में कृषि शुल्क निरीक्षक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों जबकि वे पच्चीस बरस के युवा थे, फुकूओका ने उस बोध का अनुभव किया जो बाद में उनके जीवन के काम का मुख्य आधार बना।
फुकूओका अपने खेतों और बागों में छात्रों के साथ ही काम करते हैं। लेकिन यह कोई नहीं जानता कि वे ठीक किस समय काम की जगह पहुंचेंगे। उनमें ठीक ऐसे समय पहुंच जाने की सिफत है, जब छात्रों को उनके वहां आ जाने की सबसे कम उम्मीद होती है। वे बहुत ही चुस्त-दुरुस्त आदमी हैं और हमेशा इस या उस विषय पर बतियाते रहते हैं। कई बार वे सभी छात्रों को एकत्र कर, उनके द्वारा किए जा रहे काम पर चर्चा करते हैं और उन्हें बताते हैं कि कैसे उसे बेहतर ढंग से किया जा सकता है।कभी वे उनके साथ किसी खरपतवार के जीवन-चक्र पर बातें करते हैं तो कभी बागों में लगने वाली फफूंद की बीमारियों पर या फिर कुछ ठहर कर अपने खेतों के अनुभवों पर चिंतन करने लगते हैं। अपनी खेती की तकनीकों का खुलासा करने के अलावा वे छात्रों को खेती के बुनियादी हुनरों की शिक्षा भी देते हैं। वे औजारों की समुचित देखभाल पर बहुत जोर देते हैं और उनकी उपयोगिता बतलाते हुए कभी नहीं थकते।
यदि कोई नवागंतुक यह सोचता है कि प्राकृतिक कृषि का मतलब यह है कि वह बैठे-बैठे देखता रहेगा और प्रकृति ही खेती कर डालेगी तो फुकूओका जल्द ही उसे बतला देते हैं कि उससे जानने और करने के लिए कितना कुछ वहां है। वास्तव में तो ‘प्राकृतिक’ खेती से तात्पर्य सिर्फ शिकार (या खोजना) और एकत्र करना ही होता है। लेकिन कृषि फसलें उगाना एक ऐसा सांस्कृतिक नवाचक्र है जिसके लिए ज्ञान और लगातार प्रयास करना जरूरी होता है। बुनियादी फर्क यही है कि फुकूओका प्रकृति को जीत कर उसे ‘संशोधित’ करने के बजाए प्रकृति के साथ सहयोग करते हुए खेती करते हैं।
कई मुलाकाती उनके फार्म पर सिर्फ एक-दो पहर बिताने की गरज से ही आते हैं और फुकूओका उन्हें बड़े धैर्य के साथ हर चीज दिखलाते हैं। अक्सर उन्हें पहाड़ी पगडंडियों पर बच्चों जैसी चपलता के साथ दौड़कर चढ़ते देखा जा सकता है, जबकि उनके दस-पंद्रह मेहमानों का समूह उनके पीछे-पीछे हांफता हुआ चलता है। लेकिन शुरू के कुछ बरसों में उनके फार्म पर आने वालों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी। जब वे हर तरह से बाहरी संपर्क से कटे हुए अपने विधियां विकसित कर रहे थे।
युवावस्था में फुकूओका अपने गांव से योकोहामा के लिए एक सूक्ष्मजीव विज्ञानी बनने के उद्देश्य से निकले थे। वे पौध-व्याधियों (बीमारियों) के विशेषज्ञ बने और कुछ बरसों तक उन्होंने एक प्रयोगशाला में कृषि शुल्क निरीक्षक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों जबकि वे पच्चीस बरस के युवा थे, फुकूओका ने उस बोध का अनुभव किया जो बाद में उनके जीवन के काम का मुख्य आधार बना, तथा जो कि इस पुस्तक ‘एक तिनके से आई इंकलाब’ की विषय वस्तु है। अपनी नौकरी छोड़ वे अपने गांव लौटे और अपने ही खेतों में काम करते हुए अपने विचारों की व्यावहारिकता की जांच करने लगे।
इस नई विधि का मूल विचार उन्हें एक दिन तब आया जब वे एक ऐसे पुराने खेत के पास से गुजर रहे थे जिस पर कई बरसों से खेती नहीं हुई थी। और इस दौरान जिसे जोता भी नहीं गया था। वहां उन्होंने घास और खरपतवार के बीच धान के कुछ स्वस्थ्य पौधे उगे हुए देखे, उसी दिन से उन्होंने अपने धान के खेतों को पानी से लबालब भरना बंद कर दिया। उन्होंने वसंत ऋतु में धान के रोपे लगाना बंद कर शरद ऋतु में उसके बीज निकालकर खेतों की सतह पर सीधे-सीधे बो दिए। यह वह समय होता है,
जबकि बीज पौधों से काटे न जाने पर खेत में अपने आप झड़ जाते हैं। खरपतवार से निजात पाने के लिए खेत की जुताई करने की बजाए उन्हें निमंत्रित करने के लिए उन्होंने पूरे खेत को सफेद बनमेथी, तथा चावल और जौ की पलवार से ढक कर लगभग स्थायी आवरण प्रदान करना सीखा। फुकूओका को जैसे ही यह पता चलता है कि परिस्थितियों को उन्होंने अपनी फसल के पक्ष में कर लिया है वे पौधों तथा खेत के कीड़ो-मकौड़ों और अन्य सूक्ष्म प्राणियों के साथ कम-से-कम छेड़-छाड़ करते हैं।
चूंकि पश्चिम के लोग, बल्कि किसानों को भी धान तथा जाड़े की फसलों को बदल-बदल कर लेने की विधि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है और फुकूओका ने इस किताब में चावल की खेती का बार-बार उल्लेख किया है, कुछ शब्द जापान की परम्परागत जापानी कृषि के बारे में कहना काफी उपयोगी साबित होगा।
मूलतः धान के बीज मानसून के समय जलप्लावित नदियों की कछार में सीधे बो दिए जाते थे। बाद में तलहटी के इलाकों में सीढियां बनाकर बाढ़ के पानी को रोक दिया जाने लगा, ताकि बारिश के बाद भी सिंचाई के लिए पानी मिलता रहे।
जापान में दूसरे विश्व-युद्ध तक प्रचलित रही परम्परागत विधि इस प्रकार थी। धान के बीज सावधानी से तैयार किए हुए एक प्रारंभिक जमीन के टुकड़े पर बोए जाते हैं। इसके बाद पूरे खेत पर खाद बिखेर दी जाती है, और उसमें पानी भर कर उसे इतना जोता जाता है कि मिट्टी पतले शोरबे जैसी गाढ़ी हो जाए। जब पौधे करीब 8-इंच हो जाते हैं तो उन्हें हाथों से बाकी खेत में रोप दिया जाता है। लगातार काम करते हुए एक अनुभवी किसान एक दिन में एक-तिहाई एकड़ क्षेत्रा में रोपे लगा देता है। लेकिन हमेशा यह काम बहुत से लोग मिलकर करते हैं।
धान के रोपे लगा लेने के बाद खेत में पौधों के बीच हल्की जुताई कर दी जाती है। इसके बाद हाथ से निंदाई कर, अक्सर पलवार बिछा दी जाती है। तीन महीने तक खेत में पानी भरा रहता है और पानी जमीन की सतह से एक-इंच ऊंचा रहता है। फसल हंसियों से काटी जाती है। गहाई के पूर्व धान को बांस की मचानों पर कुछ हफ्तों तक सूखने दिया जाता है। रोपाई से लगाकर कटनी तक खेत की सफाई कम-से-कम चार बार हाथों से ही की जाती है।
जैसे ही धान की कटाई पूरी होती है, खेत में हल चलाकर मिट्टी के एक-एक फुट चौड़े टीले बना दिए जाते हैं, जिनके बीच में पानी के निकलने के लिए नालियां बन जाती हैं। टीलों के ऊपर राई और जौ के बीज बिखेर कर उन पर मिट्टी बिखेर दी जाती है। बोनी का यह चक्र धान रोपाई के एक निश्चित कार्यक्रम के कारण ही संभव हो पाता था। इसके साथ ही खेत में जैव-खाद तथा पोषक तत्वों की पर्याप्त पूर्ति भी की जाती थी। उल्लेखनीय बात यह है कि इस परम्परागत विधि के द्वारा जापानी किसान एक ही वर्ष में, चावल और जाड़े की फसलें एक ही जमीन के टुकड़े पर बगैर उसकी उर्वरकता को कम किए सदियों तक लेते रहे।
फुकूओका परम्परागत कृषि के कई गुणों को स्वीकार करते हुए भी यह महसूस करते हैं कि उसमें किसानों को बहुत सारा गैर जरूरी श्रम करना पड़ता है। अपने तरीके को ‘कुछ मत करो कृषि’ कहते हुए वे कहते हैं कि उनके तरीके से सिर्फ रविवार को खेत में काम करने वाला किसान भी अपने पूरे परिवार के लिए पर्याप्त अन्न उपजा सकता है। लेकिन उनका यह मतलब भी नहीं है कि इस प्रकार की खेती, बिल्कुल बिना कोई प्रयास किए भी की जा सकती है। उनके फार्म पर खेती, कृषि-कर्म के एक निश्चित कार्यक्रम को बनाए रखकर ही की जा सकती है। जो कुछ भी वहां किया जाता है, वह सही ढंग से, पूरी संवेदनशीलता के साथ करना होता है। जैसे ही कोई किसान तय करता है - इस प्लाट पर चावल या सब्जियां उगानी हैं और वह उनके बीज बो देता है, उसे उस प्लाट के रख-रखाव की सारी जिम्मेदारी अपने पर लेनी पड़ती है। प्रकृति के क्रिया-कलाप में एक बार विघ्न डाल देने के बाद उसे उसके हाल पर छोड़ देना बहुत ही नुकसानदेह तथा गैरजिम्मेदाराना काम होता है।
आज जबकि रासायनिक कृषि के दूरगामी खतरों को आमतौर से स्वीकार किया जाने लगा है, कृषि की वैकल्पिक विधियां खोजने में लोगों की दिलचस्पी फिर से बढ़ी है। फुकूओका जापान में कृषि-क्रांति के एक अग्रणी पक्षधर के रूप में उभरे हैं।
जिस समय सब्जियों के अंकुर छोटे होते हैं उस समय तो खरपतवार की निंदाई करनी ही पड़ती है। लेकिन जैसे ही सब्जियां अपनी जड़ पकड़ लेती हैं उन्हें प्राकृतिक जमीनी आवरण के साथ बे-रोकटोक बढ़ने दिया जाता है। कुछ सब्जियों को काटा नहीं जाता। उनके बीज जमीन पर गिर जाते हैं और एक-दो पीढ़ियों के बाद वे अपने मजबूत और थोड़े कड़वे वन्य पूर्वजों के बढ़ने की आदतों को अपना लेते हैं। इन सब्जियों में से कई बिना किसी देखभाल के उगती रहती हैं। एक बार जब मुझे फुकूओका के फार्म पर आए ज्यादा दिन नहीं हुए थे और मैं उनके बाग के दूरस्थ इलाके में घूम रहा था, मेरा पैर ऊंची घास के बीच किसी कठोर चीज से जा टकराया। नजदीक से देखने के लिए जब मैं नीचे झुका तो मुझे एक ककड़ी और उसके पास ही मेथी के बीच दुबका हुआ एक कुम्हड़ा दिखलाई पड़ा।बरसों, फुकूओका अपनी विधि के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे, रेडियो और टेलीविजन पर उनके साक्षात्कार भी प्रसारित हुए, लेकिन लगभग किसी ने भी उनके उदाहरण को खुद नहीं आजमाया। उन दिनों जापानी समाज पक्के इरादे के साथ उनसे ठीक उल्टी दिशा की ओर बढ़ रहा था।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अमरीकियों ने जापान का परिचय आधुनिक रासायनिक कृषि से करवाया। इसकी मदद से जापान के किसान तकरीबन उतनी ही पैदावार प्राप्त कर सके जितनी वे अपने परम्परागत तरीके से करते थे। लेकिन उनका श्रम और समय घट कर आधा रह गया। उस समय उन्हें यह स्वप्न साकार हो उठने जैसी बात लगी थी और एक ही पीढ़ी के दौरान लगभग सबने पुरानी विधि त्याग, नई रासायनिक विधि को अपना लिया।
जापान के किसानों ने सदियों तक मिट्टी में जैविक पदार्थों को फसल-चक्र, खाद-पात तथा फसलें उगाकर बनाए रखा था। लेकिन जैसे ही उन्होंने रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग आरंभ कर इन रीतियों का त्याग किया, एक ही पीढ़ी के दौरान मिट्टी की उर्वरता नष्ट हो गयी। मिट्टी की बनावट बिगड़ती गई। रासायनिक पोषण पर उसकी निर्भरता बढ़ती गई और फसलें कमजोर हो गयीं। घटे हुए मानवीय तथा प्राणी-श्रम की भरपाई करने के लिए नई प्रणाली ने मिट्टी के सुरक्षित उर्वरता-कोषों को उलीच डाला।
पिछले चालीस बरसों से फुकूओका ने अपनी आंखों से जापान के समाज और जमीन, दोनों को बड़े दुख के साथ बिखरते देखा। जापानियों ने बड़ी एकाग्रता सहित आर्थिक तथा औद्योगिक विकास के आदर्श का रास्ता अपनाया। किसानों द्वारा देहातों की अपनी जमीनें छोड़-छाड़कर शहरी औद्योगिक केंद्रों की तरफ जाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही। जिस गांव में फुकूओका जन्में तथा जहां उनका परिवार संभवतः पिछले चौदह सौ वर्षों से रह रहा था, उसकी ऐन सीमा तक मात्सुयामा महानगर के उपनगर बढ़ आए हैं। फुकूओका के धान के खेतों में से होकर गुजरनेवाला राष्ट्रीय राजमार्ग अपने इर्द-गिर्द साके (एक प्रकार की मदिरा) की बोतलें तथा अन्य प्रकार का कूड़ा-कचरा बिखेरता जाता है।
हालांकि फुकूओका अपने दर्शन को किसी खास धार्मिक सम्प्रदाय या संगठन से प्रेरित नहीं मानते, उसकी शब्दावली तथा शिक्षण विधियों पर जैन-बौद्धवाद तथा ताओ-दर्शन का गहरा प्रभाव है। कई बार तो वे अपने विचारों को स्पष्ट करने या चर्चा को गर्माने के लिए बाइबिल के उदाहरण भी देते हैं तथा यहूदी मसीही दर्शन तथा धर्मशास्त्रों के दृष्टांतों का भी उपयोग करते हैं।
फुकूओका मानते हैं कि प्राकृतिक कृषि व्यक्ति की आध्यात्मिक सेहत से प्रवाहित होती है। उनके हिसाब से जमीन के उपचार तथा मानवीय आत्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया एक ही है और इसीलिए वे एक ऐसी जीवनशैली और कृषि-प्रणाली की सिफारिश करते हैं जिसमें यह प्रक्रिया क्रियाशील हो सके।
यह सोचना सही नहीं होगा कि फुकूओका अपने जीवनकाल में ही वर्तमान परिस्थितियों के चलते, अपने सपनों को व्यावहारिक रूप प्रदान कर सकते हैं। तीस वर्षों से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी अभी उनकी तकनीकों का विकास जारी है। उनका सबसे बड़ा योगदान तो यह प्रदर्शित करना ही है कि आत्मिक स्वास्थ्य की स्थापना की दैनंदिन प्रक्रिया के द्वारा भी दुनिया में व्यावहारिक तथा कल्याणकारी बदलाव लाया जा सकता है।
आज जबकि रासायनिक कृषि के दूरगामी खतरों को आमतौर से स्वीकार किया जाने लगा है, कृषि की वैकल्पिक विधियां खोजने में लोगों की दिलचस्पी फिर से बढ़ी है। फुकूओका जापान में कृषि-क्रांति के एक अग्रणी पक्षधर के रूप में उभरे हैं। अक्टूबर 1975 में उनकी पुस्तक ‘द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन’ के प्रकाशन के बाद से जापानियों में प्राकृतिक कृषि के प्रति रुचि बड़ी तेजी से बढ़ी है।
फुकूओका के फार्म पर अपने डेढ़ वर्ष के प्रवास के दौरान मैं अपने क्योतो स्थित फार्म पर लौटा। वहां सभी लोग इस नई विधि को आजमाने के लिए उत्सुक थे और धीरे-धीरे हमारी जमीन के अधिकाधिक हिस्से प्राकृतिक कृषि के क्षेत्रों में बदलते गए।
हम लोगों ने परम्परागत फसल-चक्र के तहत धान और राई उगाने के अलावा अपने यहां फुकूओका की विधि से गेहूं, मक्का, आलू, सोयाबीन तथा पपरी उगाई। मक्का तथा कछार में बोई जाने वाली अन्य फसलें, जो देरी से अंकुरित होती हैं, को बोने के लिए हमने जमीन में बांस या लकड़ी के टुकड़ों से गहरे गड्ढे किए और प्रत्येक गड्ढे में एक-एक बीज डाल दिया। सोयाबीन व मक्का हमने एक ही समय उस तरीके से या उनके बीजों को मिट्टी की छोटी-छोटी टिकियों में लपेट कर खेतों में बिखेर दिए थे। इसके बाद हमने खरपतवार तथा सफेद मेथी से जमीनी आवरण की छंटनी कर पूरे खेत पर पुआल फैला दिया। मेथी पनपी तो सही, लेकिन तभी जब सोयाबीन ठीक से जड़ पकड़ चुकी थी।
फुकूओका ने कुछ सुझाव देकर हमारी मदद तो की, लेकिन हमें अपने यहां की परिस्थितियों और अपनी विभिन्न फसलों के हिसाब से उनकी विधि में कई सुधार भी ‘गलती करो, और उसे सुधर दो’ नीति अपनाते हुए किए। हमें यह शुरू से ही पता था कि प्राकृतिक कृषि को पूरी तरह अपनाने में हमें कई मौसम लगेंगे। क्योंकि इसके पूर्व हमें जमीन के साथ-साथ अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। परिवर्तन की यह प्रक्रिया निरंतर जारी है।
हिंदी अनुवाद: हेमचंद्र पहारे
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