भारत के संविधान के आर्टीकल 48 (ए), 49, 51 (ए) और 51 (जी) और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 2009 की व्यवस्थाओं के बावजूद गंगा की अविरलता, निर्मलता तथा कुदरती प्रवाह पर लगातार बढ़ रहे संकट का संज्ञान लेकर गंगा महासभा ने न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय की अध्यक्षता में सात लोगों की समिति को राष्ट्रीय नदी गंगाजी (संरक्षण तथा प्रबन्ध) अधिनियम का मसौदा तैयार करने का अनुरोध किया।
गंगा महासभा की अपेक्षा थी कि कमेटी ऐसा अधिनियम प्रस्तावित करे जिस पर अमल करने से गंगा को भारत की राष्ट्रीय नदी की पहचान और भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधित्व का कानूनी ओहदा मिल सके। उसके सम्मान की रक्षा हो सके। इसके साथ-साथ केन्द्र और राज्यों की सरकारों की नीतियों, योजनाओं, फैसलों तथा क्रियाकलापों में उचित महत्त्व तथा प्राथमिकता मिल सके।
कहना नहीं होगा कि इस आग्रह के पीछे इंजीनियर और पर्यावरणविद (वैज्ञानिक) से सन्यासी बने प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल का सोच था जो गंगा की अस्मिता को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधियों को पर्यावरणी चेहरा प्रदान करना चाहते थे। उसकी अस्मिता को अक्षुण्ण रखना चाहते थे। उससे मिलने वाले लाभों को स्थायी बनाना चाहते थे। कुछ लोग उस सोच को गंगा के प्रति उनकी उस आस्था और सम्मान की भावना कहते हैं जो प्रकारान्तर से देश के करोड़ों लोगों की भावना की अभिव्यक्ति भी थी।
गंगा की अस्मिता की रक्षा के लिये सन 2012 में न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय की अध्यक्षता में गठित सात लोगों की कमेटी ने राष्ट्रीय नदी गंगाजी (संरक्षण तथा प्रबन्ध) अधिनियम का मसौदा तैयार किया। विदित हो, इस कमेटी में दो न्यायमूर्ति (जस्टिस गिरधर मालवीय और जस्टिस एस.एस. कुलकर्णी), सुप्रीम कोर्ट के दो लब्ध प्रतिष्ठित एडवोकेट (एम. सी. मेहता और सन्तोष कुमार), दो लब्ध प्रतिष्ठित पर्यावरणविद (प्रोफेसर जी.डी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द तथा केन्द्रीय प्रदूषण मंडल के सदस्य-सचिव प्रत्यूष त्यागी) और इलाहाबाद हाईकोर्ट के एडवोकेट श्री अरुण कुमार सम्मिलित थे।
जाहिर है कानूनविदों की इस उच्च स्तरीय कमेटी ने संवैधानिक प्रावधानों तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 2009 की व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही गंगा के संरक्षण तथा प्रबन्ध के अधिनियम का मसौदा तैयार किया था। यही मसौदा भारत सरकार को भेजा गया था। उस मसौदे की मंजूरी के लिये स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द ने समय-समय पर सरकार (यू.पी.ए. और एन.डी.ए.) का ध्यान आकर्षित किया। मौजूदा सरकार को पत्र लिखे। अनशन किया और अनशन के दौरान स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द का निधन हो गया। गंगा की अस्मिता के लिये उनका निधन गंगा भक्तों, पर्यावरण प्रेमियों तथा सन्त समाज द्वारा अवर्णनीय क्षति के रूप में देखा जा रहा है।
राष्ट्रीय नदी गंगाजी (संरक्षण तथा प्रबन्ध) अधिनियम का मसौदा दो माननीय न्यायमूर्तियों, पर्यावरणविदों तथा पर्यावरण के लिये कानूनी लड़ाई लड़ने वाले सुविख्यात वकीलों द्वारा तैयार किया गया था। वह मसौदा 2012 में केन्द्र सरकार को भेजा गया था। वह मसौदा पूर्ववर्ती तथा मौजूदा सरकार के संज्ञान में था।
यदि उसमें संविधान तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 2009 की व्यवस्थाओं को लेकर कुछ गलत अथवा असंगत होता तो निश्चय ही सरकार की प्रतिक्रिया आती और समाज को उसकी जानकारी मिलती। प्रतिकूल प्रतिक्रिया के अभाव में यह माना जा सकता है कि उस मसौदे में संविधान तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 2009 की व्यवस्थाओं को लेकर एतराज जताने जैसी कोई बात नहीं थी। वह मसौदा संविधान तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 2009 की नजर में त्रुटिरहित था। नदी तथा समाज के हित में था।
अब कुछ बात उसके तकनीकी पक्ष की मोटी-मोटी बातों पर। मसौदे में गंगा की गंगासागर तक की सम्पूर्ण लम्बाई को गंगा, उसके बाढ़ प्रभावित इलाके और बफर जोन को गंगा का क्षेत्र मानने का अनुरोध किया गया है। मसौदे में नदी की कुदरती अक्षत प्रतिष्ठा, जलधारा की अविरलता, प्रदूषण रहित निर्मलता, अतिविशिष्ट इकोलॉजी, विलक्षण प्राकृतिक सौन्दर्य इत्यादि को सुनिश्चित करने की माँग की गई थी।
मसौदे में अनेक वर्जित गतिविधियों का उल्लेख है जो रेखांकित करता है कि गंगा में अनुपचारित गन्दगी तथा जलाए अपशिष्टों का डालना रोका जाये। नदी के प्रभाव क्षेत्र में प्रदूषण उत्पन्न करने वाली उत्पादन/निर्माण इकाइयों की स्थापना, पत्थर तथा खनन उद्योग, मांस प्रोसेसिंग इकाइयों को प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए। इत्यादि इत्यादि।
जहाँ तक नदी की धारा से पानी उठाने का प्रश्न है तो मसौदे में उसकी मनाही नहीं है। उल्लेख है कि पानी उठाते समय अविरलता तथा मात्रा का ध्यान रखा जाये। मसौदे में ऐसी संरचनाओं पर आपत्ति की गई है जिससे अविरलता खंडित होती है। यदि उसके किसी बिन्दु का देश की जलनीति से मतभेद होता तो वह मतभेद पिछले छः सालों में निश्चय ही सामने आता। यदि उसमें वैज्ञानिकता का अभाव होता तो वह भी उजागर होता।
गंगा के प्रबन्ध के लिये मसौदे में जो सुझाव हैं वे गंगा जैसी विशाल नदी के लिये व्यावहारिक प्रतीत होते हैं।
मसौदे में गंगा को आठ हिस्सों में विभाजित करने का सुझाव दिया गया है। यह सुझाव राज्य के पानी की योजनाओं के संविधान सम्मत अधिकारों को ध्यान में प्रस्तावित है। सुझाव में केन्द्रीय संस्था (एन.आर.जी.ए.) को मास्टर प्लान बनवाने का अधिकार देना प्रस्तावित है। यह संस्था गंगा क्षेत्र में भावी विकास और नदी संरक्षण तथा पुनर्जीवन को, अस्मिता को अक्षुण्ण रख, सुनिश्चित करेगी। मास्टर प्लान मोटे तौर पर करने योग्य तथा वर्जित गतिविधियों और संरचनाओं को रेखांकित करता है। वह वांछित अनुसन्धान भी प्रस्तावित करता है। अपेक्षा की गई है कि मास्टर प्लान पर 50 लोगों के कोर ग्रुप से सहमति ली जाएगी। यह सुझाव उचित प्रतीत होता है।
मसौदे में गंगा के प्रबन्ध तथा अन्य सभी व्यवस्थाओं के लिये केन्द्र स्तर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कमेटी गठित करने और सभी हितग्रहिओं की भागीदारी सुनिश्चित करने का सुझाव है। यह उच्चतम स्तर की कमेटी है। इसलिये मसौदे में उन्हें बन्धनकारी बनाने की पैरवी की गई है। राज्य स्तर पर भी प्रदेश के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी गठित होगी। बेहतर समन्वय हेतु ऐसी ही व्यवस्था सभी महत्त्वपूर्ण कामों में अपनाई जाती है।
गंगा महासभा के प्रस्ताव में पहली नजर में कोई खामी नजर नहीं आती। वह मोटे तौर पर एक ऐसे सन्यासी की वसीयत है जिसने गंगा की अस्मिता को कायम रखने के लिये अपना जीवन कुर्बान कर दिया। जिसने सत्य से समझौता नहीं किया। गंगा के पर्यावरणी स्वरूप को कायम रखने के लिये अनशन का गाँधीवादी मार्ग अपनाया। वह वसीयत आशा और चेतावनी का भी दस्तावेज है।
यदि गंगा की अविरलता, निर्मलता और कुदरती प्रवाह की अनदेखी नहीं की तो गंगा के अवदान उस समय तक मिलेंगे जब तक धरती पर जीवन है। यदि अनदेखी या अवहेलना की तो नदी का अन्त हो जाएगा। उस बर्बादी की देश और समाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। यह कीमत जन-धन की हानि के भी बहुत अधिक आगे होगी।
गंगा महासभा ड्राफ्ट को पढ़ने के लिये अटैचमेंट देखें।
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