एक नहीं, हर दिन पानी का

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र
समाज में तीज-त्योहारों का अपना महत्व है। धर्म की तरह समाज के बाकी हिस्सों में भी गैर-सामाजिक व राजनीतिक हिस्सों में भी पिछले कुछ वर्षों से हम सब तरह-तरह के दिवस मनाने लगे हैं। इन दिवसों का अपना महत्व हो सकता है, लेकिन उनका वजन तभी बढ़ेगा, जब हम बाकी वर्षभर इन पर अमल करेंगे।

जल दिवस उसी तरह का एक दिवस है। एक तो हम में से ज्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि ऎसे दिवस कौन तय करता है। हम तो बस मनाने लग जाते हैं। आठ-दस घंटे में भाषण, उद्घाटन, समापन आदि करके शाम तक भूल जाते हैं। हमारे यहां वर्षा के लिए पूरे चार महीने रखे गए हैं। सबको मालूम है कि चौमासा वर्षा के स्वागत व सम्मान के लिए ही किसान समाज ने बनाया था, लेकिन उसके आने की तारीखें वर्षा लाने वाले नक्षत्रों के हिसाब से ही तय होती हैं। इसी तरह चार महीने के समापन की तिथियां भी बादल समेटने के नक्षत्रों से जोड़कर देखी गई हैं। ऎसे सब आयोजन हमारे समाज की स्मृति में हजारों सालों से रचे-बसे हुए हैं, लेकिन विश्व जल दिवस जैसे अनेक नए दिवस हमारे जीवन में अभी-अभी आए हैं, किसी और के द्वारा लाए गए हैं, इसलिए इनकी तारीखें समाज के आचरण से मेल नहीं कर पाती हैं।

एक जल दिवस है, लेकिन वह 22 मार्च भी है। इस दिन दूर-दूर तक बरसात का कोई अता-पता नहीं लगने वाला, लेकिन जल का मतलब सिर्फ बरसात नहीं है- ऎसा भी कहा जा सकता है। इसलिए इसे मनाना हो, तो हम साल के बचे हुए 364 दिन क्या करेंगे, इसका भी ध्यान रखना पड़ेगा। एक दिन के सभा-समारोह आज लगातार बढ़ते जा रहे जलसंकट पर कुछ बूंदें भर छिड़क पाएंगे। आज जल दिवस पर उत्साह ऎसा होना चाहिए कि वह आने वाले लंबे समय तक हमें पानी की कमी, उसकी सफाई, उसके संग्रह और संग्रह के बाद उसके किफायत के साथ किए जाने वाले उपयोग की बराबर याद दिलाता रहे।

जब तक हम जल के मामले में बड़े और अव्यावहारिक विचारों से बंधे रहेंगे, जैसे बड़े बांध, बड़ी नहरें, तब तक हम जल के मोर्चे पर कोई बड़ा काम नहीं कर पाएंगे। जल के बड़े काम का रहस्य है, असंख्य छोटे-छोटे काम। इन्हीं से भू-जल का स्तर उठेगा, जिसके बारे में मैं अकसर बहुत दु:ख के साथ यह भी जोड़ता हूं कि हमारे देश का भू-जल स्तर राजनीति से भी ज्यादा बुरी तरह से नीचे गिरता जा रहा है। जल संरक्षण के छोटे-छोटे कामों व प्रयासों से ही लगातार सूखती जा रही नदियां फिर से बह सकेंगी। पारंपरिक जल कोष बच सकेंगे।यह जल दिवस विश्व के स्तर पर शुरू हुआ है और इसे हम पूरे देश में मनाते हैं, इसलिए मोटे तौर पर इस दिन हम सबका इतना तो कर्तव्य बनता ही है कि हम अपने-अपने इलाकों में थोड़े ही दिनों बाद सिर उठाने वाले जलसंकट को अपने ध्यान में रखें और उसकी मार को कम करने के लिए थोड़ी ईमानदारी के साथ तैयारी करें। पूरे देश में जल से जुड़ी समस्याओं का आभास होने लगा है। देश के एक कोने से चलें, तो कन्याकुमारी में तीन तरफ विशाल सागर है। मीठा पानी बहुत कम माना जाएगा, लेकिन बादलों की और वर्षा की कोई कमी नहीं है, इसलिए वहां के समाज ने वर्षोü से वर्षा जल के संचय की अनेक योजनाओं पर काम किया। उन्हें लागू किया और उन्हें सदियों तक उनका रखरखाव किया। दक्षिण में ही बेंगलूरू जैसे शहर को लें, जहां एक शहर में शायद सबसे अधिक तालाब हुआ करते थे, लेकिन सूचना के आधुनिक दौर में बेंगलूरू का कुछ विकास ऎसा हुआ कि उसके तालाब गायब हो गए हैं और उनकी जगह कांच के महल खड़े हो गए हैं। इस परिवर्तन का बुरा असर दो तरह से पड़ा है। गर्मी के मौसम में शहर को पानी की किल्लत भोगना पड़ती है और उसके बाद जब वर्षा का मौसम आता है, तब अब बेंगलूरू जैसे शहर में बाढ़ भी आने लगी है। पहले यह शहर बाढ़ से एकदम मुक्त था।

पहले चेन्नई जैसे शहर में न वर्षा की कमी थी और न वर्षा जल को सम्मान से रोक लेने वाले तालाबों की, आज वहां भी तालाब गायब हो रहे हैं। नए नेता और नए वैज्ञानिक समुद्र के खारे पानी को मीठा बना सकने वाली मशीनों पर अंध-श्रद्धा रखे हुए हैं। इसके लिए बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं, जबकि अभी तक ऎसा संभव नहीं हुआ है।

अहमदाबाद में शहर के कोने से लेकर बीच तक एक से एक तालाब हुआ करते थे, जो वर्षा जल संचय करके शहर के भू-जल का स्तर ऊंचा रखते थे। आज वहां के नागरिक हाईकोर्ट तक गए हैं, लेकिन अपने तालाबों को बचा नहीं पाए हैं। भोपाल में एक समय जो देश का सबसे बड़ा तालाब माना जाता था, आज वह न सिर्फ सिकुड़कर दसवां हिस्सा रह गया है, वह शहर की पानी की जरूरत पूरी नहीं कर पा रहा है। अब ऎसे शहरों में बाकी जगह का रोग आने वाला है, मतलब- दूर से किसी नदी का पानी लाकर इन शहरों की प्यास बुझाना। भोपाल से थोड़ी दूर पर नर्मदा नदी पर एक बड़ा उत्सव हो रहा है, जो 23 मार्च तक चलेगा। इसमें देशभर की नदियों और जल को बचाने वाले सभी तरह के लोग एक मंच पर आएंगे। ऎसे सब आयोजनों को गंभीरता से विचार करना पड़ेगा कि जब तक हम जल के मामले में बड़े और अव्यावहारिक विचारों से बंधे रहेंगे, जैसे बड़े बांध, बड़ी नहरें, तब तक हम जल के मोर्चे पर कोई बड़ा काम नहीं कर पाएंगे। जल के बड़े काम का रहस्य है, असंख्य छोटे-छोटे काम। इन्हीं से भू-जल का स्तर उठेगा, जिसके बारे में मैं अकसर बहुत दु:ख के साथ यह भी जोड़ता हूं कि हमारे देश का भू-जल स्तर राजनीति से भी ज्यादा बुरी तरह से नीचे गिरता जा रहा है। जल संरक्षण के छोटे-छोटे कामों व प्रयासों से ही लगातार सूखती जा रही नदियां फिर से बह सकेंगी। पारंपरिक जल कोष बच सकेंगे।

इसमें सबसे अच्छा उदाहरण राजस्थान के एक बड़े समाज ने प्रस्तुत किया है। चाहे तो पूरा देश और चाहे तो दुनिया भी नया सीख सकती है। काम बहुत पुराना है, लेकिन आधुनिकतम शहरों को यह आधुनिक पाठ पढ़ा सकता है। देश के सबसे कम वर्षा के इलाके भी इसी प्रदेश में हैं, लेकिन वहां के कई समाजों ने बिना जल दिवस मनाए, जल का पूरा वर्ष मनाया है। उन्होंने पूरे 365 दिन पानी की चिंता की है। जहां ऎसी चिंता है, वहां वे कम से कम जल दिवस पर तो छुट्टी मना सकते हैं, लेकिन जहां ऎसी चिंता नहीं है, वहां जल संरक्षण का जीवनोपयोगी कार्य शेष है।

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