एक नदी की व्यथा

मुझ पर है सबका अधिकार
मैं किस पर अधिकार दिखाऊँ
अनचाहे अवसाद में डूबी
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
ताप मिटाए पाप हटाए
सबको शीतलता दे जाऊँ
मेरा ताप कौन हरेगा
किससे मैं यह आस लगाऊं
जग की क्षुधा मिटाती आई
कैसे अपनी प्यास बुझाऊं
इतने गरल पिलाये मुझको
अब मैं सुधा कहाँ से लाऊं
अनगिन पातक आँचल धोये
अपना आँचल कैसे पाऊँ
हर पग बाँध रहे हैं मेरा
कैसे जल उन्मुक्त बहाऊं
बीत रही हूँ रीत रही हूँ
कैसे आगत को छल पाऊं
पल पल प्राण विकल होते हैं
कैसे शाश्वत गान सुनाऊं !!

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