एक नदी के ‘इंसान’ होने के मायने

यमुना नदी
यमुना नदी

विश्व जल दिवस 2017 से दो दिन पूर्व उत्तराखण्ड हाईकोर्ट का नदियों के सम्बन्ध में आया फैसला काफी महत्त्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने अपने इस फैसले में गंगा, यमुना तथा उसकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया है। न्यायालय का ऐसा करने का अर्थ बिलकुल स्पष्ट है, वह नदियों को जीवित के समान अधिकार देकर लोगों से इन नदियों के प्रति मनुष्यों के समान व्यवहार करने की अपेक्षा रखती है।

आधुनिक पूँजीवादी युग ने नदी, पानी, तथा अनाज जैसी दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर अपना नियंत्रण कर लिया है। ये वर्ग अपने निजी लाभ के लिये बड़े पैमाने पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे हैं। पहाड़ से लेकर रेगिस्तान तक का प्राकृतिक असन्तुलन बिगाड़ने में पूँजीवादी वर्ग जिम्मेदार हैं। नदियों में बढ़ता प्रदूषण का स्तर, जंगलों का विनाश, पहाड़ों पर तोड़-फोड़ इनमें प्रमुख हैं। इस वजह से इन प्राकृतिक बनावटों का स्वरूप पिछले कुछ वर्षों से बिलकुल बिगड़ गया है। अगर आप आज किसी बड़ी नदी को देखें तो यह नदी की तरह नहीं दिखती। इसमें बहता काले रंग का बदबूदार पानी इसे एक नाले की संज्ञा देने को मजबूर करता है। इन नदियों में गंगा तथा यमुना प्रमुख हैं।

कई बार गंगा, यमुना नदी को नाला कहकर न्यायालयों ने भी इस पर टिप्पणी की है। इनमें बढ़ते प्रदूषण के स्तर के लिये राज्य तथा केन्द्र सरकार को कई बार नोटिस भी जारी किया जा चुका है। इसके बावजूद आज इन नदियों की हालत जस-की-तस बनी हुई है।

हालांकि नदियों में बढ़ते प्रदूषण की वजह से मानव जाति को होने वाले नुकसान का आकलन करें तो इससे समाज का सबसे कमजोर तबका अधिक प्रभावित है। इनकी जीविका बनाए रखने में नदियों का बड़ा योगदान रहा है। ये वे कमजोर लोग हैं जिन्हें समाज ने हमेशा हाशिए पर रखा। इनके विरोध की अपनी कोई ताकतवर आवाज नहीं है। ध्यानपूर्वक देखें तो आज नदियों का हाल भी इसी कमजोर वर्ग के समान हो गया है। ये भी खुद पर हो रहे अत्याचार को चुपचाप सहन कर रही हैं। लेकिन हाल के उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के नदियों को इंसानी अधिकार का दर्जा दिये जाने से एक उम्मीद जगी है। नदियाँ इस कानूनी अधिकार के संरक्षण में अपनी आवाज उठा सकेंगी।

नदी, पारिस्थितिकी तथा लोकतंत्र


एक स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल में व्यक्ति अपने मूलभूत अधिकारों की माँग बेहतर तरीके से कर सकता है। इसमें चाहे अन्न का अधिकार हो, स्वास्थ का अधिकार, शिक्षा का या फिर जल का अधिकार हो, वह इसे पाने के लिये शासन पर दबाव बनाता है। यही माँग, आपूर्ति तथा नागरिकों की सुरक्षा लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। ठीक यही बातें प्रकृति के मामले में भी है। प्रकृति की अपनी एक पारिस्थितिकी पहचान है। नदी, वन, पहाड़ तथा झील सभी की अपनी एक स्वतंत्र पहचान है। इसका सन्तुलन बनाए रखना होगा। परन्तु आज ठीक विपरीत हो रहा है। उदाहरण के तौर पर देखें तो नदियों पर बाँध बनाना, उसे दूषित करना तथा नदी के किनारों का अतिक्रमण करना इसके सन्तुलन के लिये सबसे बड़ा खतरा है। गौरतलब है कि हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में गंगा तथा यमुना नदी को मनुष्य के पापों का नाश करने वाली बताया गया है। इस वजह से ये नदियाँ पूजनीय मानी जाती हैं। इसके बावजूद आज गंगा, यमुना समेत भारत की कई नदियाँ अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये संघर्ष कर रही हैं। कई सामाजिक संगठन तथा पर्यावरणविद नदियों को इस संकट से उबारने के लिये आगे आये हैं। तथा इस दिशा में कुछ अच्छे प्रयास भी किये। परन्तु कारखानों तथा शहरों से निकलने वाले दूषित रासायनिक पानी को इन नदियों में लगातार प्रवाहित किये जाने की वजह से इनका प्रदूषण स्तर बढ़ जाता है। 1252 किमी. लम्बी यमुना नदी का महज 2 प्रतिशत हिस्सा ही दिल्ली शहर से होकर जाता है किन्तु यहाँ यह नदी 80 प्रतिशत प्रदूषित होती है।

नदियों को कानून की ओर से जीवित व्यक्ति का दर्जा दिये जाने से ये भी एक लोकतांत्रिक देश में अपने अधिकारों की माँग कर सकेंगी।

न्यूजीलैंड की वांगानुई नदी भी है ‘जीवित व्यक्ति’


न्यूजीलैंड की वांगानुई नदी को वहाँ की संसद ने जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया है। वहाँ के स्थानीय माओरी जनजातियों की आस्था का प्रतीक मानते हुए ऐसा किया गया है। जनजाति समुदाय के लोग नदी तथा पहाड़ों को देवता मानकर इनकी पूजा करते हैं। वांगानुई नदी को यह अधिकार दिलाने के लिये इन्हें 147 वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा था। अगर कोई व्यक्ति इस नदी को दूषित अथवा इसके किनारों का अतिक्रमण करता है तो उस पर मुकदमा चलाया जाएगा।

भारत में पर्यावरण सुरक्षा के संवैधानिक अधिकार


भारतीय संविधान के अन्तर्गत पर्यावरण सुरक्षा तथा संवर्धन के सम्बन्ध में कोई सीधा प्रावधान नहीं है। हालांकि सत्तर के दशक में स्टाॅकहोम सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा के सम्बन्ध में हुई चर्चा के बाद भारत ने 1976 में 42वें संविधान संशोधन के अन्तर्गत पर्यावरण सुरक्षा तथा संवर्धन को अनुच्छेद 48(क) में जोड़ दिया। यह नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत राज्य का विषय है।

संविधान के अनुच्छेद 49(क) के अनुसार राज्य पर्यावरण, वन तथा वन्य जीवों की सुरक्षा के लिये प्रयास करें।

इसी तरह अनुच्छेद 51(क)(छ) नागरिकों के मूल कर्तव्य में भी पर्यावरण सुरक्षा की बात की गई है। इसमें देश के समस्त नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे प्रकृति की सुरक्षा में अपना सहयोग दें। जिसमें नदियों, पहाड़ों, झीलों तथा वनों को शामिल किया गया है।

संविधान द्वारा प्रकृति की सुरक्षा तथा संवर्धन की दृष्टि में ये अधिकार महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। परन्तु पिछले कुछ दशकों से देश में प्राकृतिक संसाधनों तथा वनों का जिस तरह अन्धाधुन्ध दोहन और विनाश हुआ है उसे देखते हुए इस दिशा में और प्रयास किये जाने की जरूरत महसूस होती है।

नदी के लिये जीवित व्यक्ति का दर्जा है खास


उत्तराखण्ड हाईकोर्ट द्वारा गंगा, यमुना तथा उसकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा ‘पैरेंट पीट्रीआई लीगल एक्ट’ को आधार बनाकर दिया गया है। इसके अन्तर्गत गंगा तथा यमुना नदियों की देखरेख से जुड़े अधिकारियों तथा विभागों को इन नदियों का अभिभावक घोषित किया गया है। अर्थात ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे की परवरिश तथा उसकी देखरेख में एक अभिभावक की अहम भूमिका होती है। वैसे ही अब सरकारी विभागों से जुड़े अधिकारी इन नदियों की दशा के लिये जिम्मेदार माने जाएँगे। इन अधिकारियों में नमामि गंगे परियोजना के निदेशक, उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव तथा महाधिवक्ता को शामिल किया गया गया है।

हालांकि हाल में नदियों को मिले इस अधिकार पर कानून विशेषज्ञों ने विस्तृत अध्ययन की बात की है। कुछ मान रहे हैं कि यह अब गंगा, यमुना तथा सहायक नदियों में फेंके गए कचरे को यह माना जाएगा कि किसी जीवित पर फेंका गया है। इन नदियों को बीमार करने तथा मारने की कोशिश को किसी जीवित व्यक्ति को बीमार करने और मारने की कोशिश मानकर मुकदमा दर्ज किया जा सकेगा।

देश में नदियों को स्वच्छ बनाने के लिये कई सरकारी नीतियाँ तथा योजनाएँ लागू की गई हैं। इसके बावजूद इन नदियों की हालत सुधरने की बजाय और बिगड़ती जा रही हैं।

देश की प्रमुख नदियों में प्रदूषण रोकने तथा इसे स्वच्छ बनाए रखने के लिये सरकारी तथा न्यायालयीय निर्णय जितने महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं, उतना ही महत्त्वपूर्ण लोगों का इन नदियों की स्वच्छता के लिये जागरूक होना भी है।

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